एक अधूरी कविता
देवराज इंद्र नहीं पढ़ते इतिहास
नहीं है उनको नारी प्रज्ञा के प्रवाह की गति का अहसास
कि नहीं है नारी अब नारद के व्याख्यानों की अहिल्या
आखेट कर ले जिसका इंद्र सा कोई बहुरूपिया बहेलिया
बनती नहीं वह किसी मर्दवादी शाप से पत्थर
गौतमों की जमात को तर्क से करती है निरुत्तर
विवेक से करती है छल-फरेब तार तार
ज़ुल्फ के जलवे नहीं कलम होता है हथियार
नहीं चलाती वंकिम नयनों से छायावादी तीर
शब्दों से बनाती है धारदार दानिशी शमसीर
ललकारती है वह आज के देव-देवराजों को
मर्दवाद के सारे मानिंद सरताजों को
नारी चेतना का निकला है ये जो कारवाने जुनून
नष्ट करे देगा पति-परमेश्वरता के दंभ का शुकून
देगी समाज को समता के सुख की शिक्षा
अधिकार है आजादी न कि कोई भिक्षा
निकला है जो नारी चेतना का रथ
रुकेगा नहीं कठिन कितना भी पथ
सर्जक है सृष्टि की करेगी हिफाज़त
नहीं होगी अब खुराफात की इज़ाज़त
जुटाती ये शक्ति अमन चैन के लिए
शोषण-दमन को दफ्न करने के लिए
नहीं है ये किंवदंतियों की बेचारी नारी
बल-बुद्धि-साहस की है जीवंत पिटारी
वैसे तो शांति-सौहार्द से इसका स्वभाव लबरेज
मगर ईंट का जवाब पत्थर से देने में नहीं परहेज
नहीं है रीतकालीन कवियों की छुई-मुई कोई कल्पना
है ये अफलातून के गणराज्य की घुड़सवार वीरांगना
नहीं सुनती मनुवादी पति-परायणी बकवास
उल्टे देती मर्दवाद को निरंतर सांस्कृतिक संत्रास
(ईमिः 23.08.2015)
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