जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलभूत सिद्धांत है जो भी ऐसा करता है वह ब्राह्मणवाद के फंदे में फंस कर वर्ग-द्रोही की भूमिका निभाता है. इतिहास के अंधों को नहीं दिखाई देता कि शासक जातियां ही शासक वर्ग रही हैं. वर्ण-व्यवस्था के शुरुआत से ही इसका विरोध भी होता रहा है. विरोध की लहर भी सदा मुख्यधारा तोड़ते हुए उससे ही निकलती है.जिन्हें साज के बौद्धिक संसाधनों की सुलभता होती है वही इतिहास की जटिलता को समझ कर वैकल्पिक दर्शन देते रहे हैं, कबीर-रूसो सरीके् अपवादों को छोड़कर. रामायण-महाभारत-मनुस्मृति में जिन भौतिकवादियों -- लोकायत-चारवाक परंपरारा -- को गालियां दी गयी हैं उन्हें नास्तिक ब्राह्मण भी कहा गया है. अब जब शासित वर्गों को बौद्धिक संसाधन सुलभ हैं तो उसका उपयोग मिथ्याचेतना के तहत वर्गीय लामबंदी विकडत करने में कर रहा है. @शालू मिताक्षरा -- अापकी पार्टी के सारे शीर्ष नेता सवर्ण रहे हैं, क्या सीयम-वीयम-डीबी सभी छद्म कम्युनिस्ट रहे हैं तथा कॉरपोरेटी दलाली वाले माया-मुलायम क्रांतिकारी?. कितनी प्रसन्नता होती यदि सारे बाभन बाभन से इंसान बन दो कदम अागे जाकर कम्युनिस्ट बन जाते. लेकिन ज्यादातर दुर्भाग्य से बाभन से इंसान नहीं बन पाते तथा सत्ता के दोने चाटने के लिए कभी मोदी भक्त बन जाते हैं या फिर मुलायम-माया के. मुलायम के लंबरदार राजा भैया-हरिशंकर तिवारी हैं तो माया के शशांकशेखर-सतीश मिश्र तथा भदोही का लंपट रंगनाथ मिश्र. जो जीववैज्ञानिक दुर्घटना से ब्राह्मण हो गया है उसे भी इतिहास समझने-बदलने का हक़ है. शासकवर्ग अपनी एकता बनाये रखने तथा शासितों को खानों में विभाजित करने की नीति अपननाता है. पूंजीवाद ने हिंदू जातिव्यवस्था की तर्ज पर मेहनतकश (जो भी श्रम बेचकर रोजी कमाता है) को इतने खानों में बाँट दिया है कि लगभग हर किसी क अपना नीचे देखने को कोई मिल जातता है. प्रति वर्चस्व वर्चस्व की सस्या का विकल्प नहीं है, विकल्प वर्चस्व का विनाश है.
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