मेरे लिए किसी का नाम पहचान की एक संज्ञा है, उसके अर्थ का कोई महत्व नहीं होना चाहिए। मेरा पूरा नाम ईश नारायण मिश्र है, पहले पूछने पर पूरा नाम ही बताता था। उस समय हमारे यहां ईश जैसे छोटे नामों का चलन नहीं था। 12 साल की उम्र में कक्षा 9 में पढ़ने शहर (जौनपुर) गया और टीडी (तिलक धारी) सिंह इंटर कॉलेज में में दाखिला लिया। टीडी डिग्री कॉलेज से मेरे सबसे छोटे फूफा, सीताराम पांडेय के सबसे छोटे भाई, संत प्रसाद पांडेय (संतू फूफा) बी. एस्सी कर रहे थे, वे मुझे ईश बुलाते थे, तो मुझे नाम का नारायण अनावश्यक लगा और मैंने व्यवहार में उसे हटा दिया. दस्तावेजों में पूरा नाम ही रहा. English शैक्षणिक लेखों और सरकारी दस्तावेजों में Ish N. Mishra लिखने लगा। अंग्रजी के अखबारी लेख और हिंदी के लेख ईश मिश्र नाम से ही लिखता रहा। उसके बहुत बाद में पढ़ा कि वर्गविहीन समाज में राज्य अनावश्यक होकर बिखर जाएगा। दूसरी अनावश्यक चीज मुझे अपनी चुर्की (चुटिया) लगी उससे भी मुक्ति पा लिया। जनेऊ की अनावश्यकता महसूस करने में एक और साल लग गया। अब कहता हूं कि मैंने तो 13 साल की ही उम्र में जनेऊ से छुटकारा लेकर बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया। इसी लिए Ish Mishra नाम से मेरा पुराना फेसबुक अकाउंट जब अलभ्य हो गया तो नया अकाउंट Ish N. Mishra नाम से खोल लिया।
बहुत ही सीमित देश-दुनिया वाले दूर-दराज के एक गांव के 12-13 साल के लड़के की वैचारिकी और चेतना इतनी विकसित नहीं होती कि वह इसका अंतर्निहित वैचारिक महत्व को समझता। जहां तक मुझे याद है एक दिन बाल कटवाने गया तो चोटी अनावश्यक लगी तो कटवा दिया, वही जनेऊ के साथ भी हुआ और उसके बाद नाम क नारायण के साथ।
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