ज़िंदगी की जीवंतता के लिए उत्सव भी जरूरी होते हैं, उत्सव के लिए अवसर चाहिए, उत्सव के अवसर कमते जा रहे हैं, ऐसे में जन्मदिन उत्सव मनाने; मिलने-जुलने का अवसर देता है। हमारे लड़कपन या जवानी में, सामुदायिकता-केंद्रित हमारे गांवों में सामुदायिक/परिवारिक उत्सव तो मनाए जाते थे लेकिन व्यक्तिगत उत्सव माने का चलन नहीं था। लंबे समय तक मुझे तो रोमन कैलंडर का अपना जन्मदिन ही नहीं मालुम था। मां और गांव की स्ियां बड़की बाढ़ के पहले का बताती थीं। बाद में शक संवत (आषाढ़, कष्णपक्ष दसमी, संवत 2012) में जन्मकुंडली मिल गयी, जिसे बाबा की लिखावट के नमूने के तौर पर मैंने सभांलकर रखा है। सोचा थाआषाढ़ का मतलब जून-जुलाई में कभी होना चाहिए। 9 साल की उम्र में,1964 में, प्राइमरी पास किया। बाबू साहब ( हमारे हेडमास्टर, बासुदेव सिंह) ने मेरे भविष्य पर विचार किया और पाया कि न्यूनतम आयु सीमा के नियम के तहत1969 में हाईस्कूल की परीक्षा देने के लिए 1 मार्च को कम-से-कम 15 साल का होना चाहिए तो 1954 की फरवरी की जो भी तारीख मन में आया लिख दिया। अब फरवरी में तो आषाढ़ हो नहीं सकता था। चूंकि जन्मदिन के उत्सव का चलन नहीं था इसलिए पता करने की सोचा ही नहीं। जएएनयू में एमफिल के किसी कोर्स वर्क के एक टर्मपेपर के शोध के लिए 1950-60 के दशकों के कुछ हिंदीअखबार देखने थे। उन दिनों हिंदी अखबारों में रोमन कैलेंडर की तारीख के साथ शक/विक्रम कैलेंडर की भी तारीख होती थी तो जन्म कुंडली के हिसाब से 26 जून 1955 पाया गया और तब से दोस्तों के साथ जन्मदिन मना लेता हूं।
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