जब मैं, जो मिल गयी, हिंदू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) की उस नौकरी का , इंटरविव देकर रात 10 बजे मॉल रोड पर घर जाने के लिए बस का इंतजार कर रहा था तो स्वस्फूर्रत रूप से, स्वगत राम दरश मिश्र जी की ये पंक्तियां गुनगुनाने लगा।
'जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर, वहां हम भी पहुंचे मगर धीरे धीरे, ..........'
पिछली और इस शताब्दी के महान साहित्यकार, राम दरश मिश्र जी को 100वीं जयंती पर बधाई एवं स्वस्थ सक्रिय दीर्घायु की शुभकामनाएं।
"बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।
जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,
वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।
न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।
ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।
मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।"
कई साल पहले उनके रंगकर्मी, ज्येष्ठ पुत्र हेमंत का हृदयाघात से निधन हो गया था तथा अभी कुछ महीने पहले ही उनकी पत्नी सरस्वती जी के निधन जीवन से जीवन में कुछ रिक्तता आ गयी है। उनका सबसे छोटा, लेखक-अभिनेता, बेटा विवेक उनके जीवन और कृत्य पर एक नाटक तैयार कर रहा है। पिछले वर्ष अपने 99वें जन्मदिन समारोह में बैठकर बोलने के लोगों के आग्रह को टालकर खड़े होकर कड़कती आवाज लगभग एक घंटा अपनी सर्जन यात्रा बोले।
100 वीं वर्षगांठ मुबारक हो, सर। सलाम।
मुबारकां
ReplyDeleteशुक्रिया
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