Wednesday, August 14, 2024

शिक्षा और ज्ञान 353 (हिंदू-मुसलमान)

 Prof Gopeshwar Singh की राजमोहन गांधी की किताब 'मुस्लिम मन का आइना' की समीक्षा की पोस्ट पर एक कमेंट:


भारत में सांप्रदायिकता औपनिवेशिक निर्मिति (construction) है। 1857 में में दिखी हिंदुस्ततानी एकजुटता के दुःल्वप्न से त्रस्त औपनिवेशिक शासकों ने बांटो-राज करो की नीति के तहत धर्म के अंतर्विरोध की बुनियाद पर दोनों ही समुदायों से सहयोगी की तलाश शुरू कर दिया। 1905 में बंगाल का बंटवारा देश के बंटवारे का रिहर्सल था, तब तक उपनिवेश-विरोधी विचारधारा के रूप मे उभरते भारती राष्ट्रवाद को हिंदू-मुसलमान यानि हिंदुस्तानकी आवामी एकजुटता ने रिहर्सल को बाधित कर दिया। भारतीय राष्ट्रवाद ठोस रूप लेता रहा लेकिन उसके बाद के 40 सालों में औपनिवेशिक शासक अपने विश्वस्त सहयोगियों -- मुस्लिम लीग-जमाते इस्लामी और हिंदू महासभा-आरएसएस की मदद से सांप्रदायिक नफरत फैलाकर आवामी एकजुटता में दरार डालने में सफल रहे, रिहर्सल तो नहीं हो सका लेकिन अभूतपूर्व रक्तपात तथा अनैतिहासिक विस्थापन के साथ औपनिवेशिक शासक मंचन में सफल रहे। विभाजन के घाव नासूर बन न जाने कितनी पीढ़ियों तक रिसते रहेंगे, विभाजन के खून के धब्बे न जाने कितनी बरसातों में धुलेंगे? दुलेंगे तो सही, हमारे जीवन मे न सही हमारी नतनियों या पर नतनियों के जीवन में ही सही। इतना तो तय है कि यदि देश न बंटता तो इस भूखंड के किसी भी खंड में सांप्रदायिक (धार्मिक कट्टरपंथी) ताकतों को पनाह महीं मिलती। इसीलिए ब्राह्मणवाद अखंड भारत के शगूफे कितने भी छेड़े, अखंड भारत की कल्पना को हकीकत नहीं बनने देगा। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है।

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