भ्रष्टाचार मुक्त मोदी युग में देशद्रोही मीडिया वाले सुविधा-शुल्क को दलाली कहकर अलग चाल-चरित्र वाली पार्टी के नेताओं का चरित्र हनन कर रहे हैं। यूनिवर्सिटी की नियुक्तियों में प्रोफेसरों की मठाधीशी (गॉडफादरी) हमेशा ही चलती रही है, अच्छेल चाल-चलन-चरित्र वाले कुछ राजनैतिक फेसिलिटेटर कुछ सुविधा-शुल्क भी वसूल ले रहे हैं तो इसमें क्या बुराई है? इतना जरूर है कि धर्मपिताओं (गॉडफादरों) के धर्मपुत्र-पुत्रियों में कुछ पढ़ने-लिखने वाले भी होते थे लेकिन जब लाखों में नौकरी खरीदने वाले पढ़ाने में भी मेहनत क्यों करेंगे? मेरे जैसे नास्तिकों की समस्या यह थी कि ज गडवै नहीं है तो गॉडफदरवा कहां से होगा? मुझसे सहानुभूति जताने वाले लोग जब कहते कि मेरे साथ बहुत नाइंसाफी हुई, नौकरी बहुत देर से मिली। मैं कहता था कि पहली बात यह कि एक अन्यायपूर्ण समाज में निजी अन्याय की शिकायत क्यों? निजी न्याय सुनिश्चित करने के लिए, समाज को न्यायपूर्ण बनाना होगा, निजी आजादी के लिए समाज को आजाद करना पड़ेगा। दूसरी बात यह कि सवाल उल्टा है, देर से ही सही मिल कैसे गयी? कुछ दिनों पहले अग्रज प्रो. रमेश दीक्षित से पेसन रुकी होने की बात हो रही थी, रमेश भाई ने विनोद भाव से कहा कि उन्हें तो अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है, कि मुझे नौकरी मिल गयी थी और रिटायरमेंट तक चल गयी। पहले प्रोफेरों की कृपापात्रता के पीछे 'दयाभाव' होता था, ग्लोबलाइजेसन के कॉरपोरेटी युग में कृपापात्रता खरीदनी पड़ती है।श
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