परंपराएं हमारे मन-मष्तिष्क पर पूर्वजों की लाशों के भार के दुःस्वप्न की तरह लदी रहती हैं और बोझ तो फिर बोझ होता है। समाजीकरण के दौरान युग चेतना (सामाजिक चेकना) और परंपराओं से निर्मित स्वचेतना को स्वतंत्र दिशा देने के लिए अनवरत, साहसिक आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। आर्थिक संरचना में परिवर्तन को संभालने के लिए परिवर्तित राजनैतिक और वैधानिक (लीगल) संरचनाओं की जरूरत होती है और वे आसानी से हो जाते हैं। लेकिन परंपरा-प्रेरित सांस्कृतिक मूल्यों से निर्धारित सामाजिक चेतना तुरंत नहीं बदलती, क्योंकि सांस्कृतिक मूल्यों को हम सवाभाविक और अंतिम सत्य के रूप में इस तरह आत्मसात कर लेते हैं कि वे हमारे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं। सांस्कृतिक वर्चस्व से निर्मित सामाजिक चेतना से मुक्ति के लिए निष्ठुर आत्मावलोकन और आत्मालोचना के साथ अनवरत आत्मसंघर्ष की आवश्यकता होती है। प्रकृति अराजक है मनुष्य इस प्राकृतिक अराजकता को विवेकसम्मत बनाकर मनुष्यता को पशुता से अलग करता है। शुभकामनाएं।
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