जाने-माने लेखक Chandra Bhushan की एक पोस्ट पर कमेंट। पोस्ट नीचे कमेंट बॉक्स में।
अद्भुत, आपने नवीं क्मैंलास में ही दार्शनिक लेख लिख डाला। होनहार विरनवान के होत चीकने पात। तो एमएस्सी तक सोचता था कि लेखक किसी औरग्रह से आते होंगे। 18साल की उम्र में पिताजी से पैसा लेना बंद करने के बाद से ही गणित के ट्यूसन से ही काम चलाता था और गणित में 100 में 8-10 पाने वाले भी 60-70 पाने लगते थे। डायलेक्टिकल मैटेरियलिज्म जानता नहीं था लेकिन चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली चेतना दली परिस्थितियों का तथा परिस्थितियां मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं, इसका अनुभव एक कर्मकांडी ब्राह्मण बालक से तर्कशील नास्तिक बनने की प्रक्रिया में कर रहा था। मैंने भगत सिंह लेख तब पढ़ा जब मैं पहले ही नास्तिक न चुका था। समाजवाद के किले दरकने से मेरा विश्वास नहीं दरका क्योंकि मैं इन्हें उत्तर-क्रांति (पोस्ट रिवल्यूसनरी) समाज मानता था, समाजवादी समाज नहीं। सोचता था कि अगली क्रांति के बाद पेरिस कम्यून के अगले संस्करण के समाजवादी समाज का निर्माण होगा लेकिन अगली प्रतिक्रांति हो गयी। अगली क्रांति शायद हमारी अगली दूसरी-तीसरी पीढ़ियों के जमाने में हो। मेरे प्रकाशित शोधपत्रों में मेरे एमफिल के दो टर्मपेपर हैं, यदि लेखक होने का आत्मविश्वास होता तो शायद कुछ और संभालकर रखता। 1983 में जनसत्ता के लिए शिक्षा व्यवस्था पर एक लेख के 2-3 ड्राफ्ट तैयार किए। 4-5 लोगों को पढ़ाया तब भी उसकी गुणवत्ता पर भरोसा नहीं हुआ और छद्म (किसी का वास्तविक) नाम से छपवाया। छपने के बाद जब लोगों ने पसंद किया तब अपने लेखक होने का भरोसा हुआ।
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