ज्ञान (सीखना) एक निरंतर और अनवरत प्रक्रिया है, कुछ चीजें ज्ञात हैं, बहुत सी चीजें ज्ञात होना (सीखना) बाकी हैं। मनुष्य ने जब संकेतों और ध्वनियों भाषा का आविष्कार किया तो वह तब तक का सबसे क्रांतिकारी अन्वेषण था, या उसी तरह शिकारी चरण में तीर- धनुष का अन्वेषण अति क्रांतिकारी अन्वेषण था।किशोरावस्था (12 साल ) में हम जब गांव से शहर आए तो कुंए से या हैंडपंप से पानी निकालने की तुलना में नल की टोंटी ऐंठने से अविरल जल प्रवाह या लालटेन जलाने की जटिल प्रक्रिया से थोड़ा सा प्रकाश पाने की तुलना में स्विच दबाने से इफरात रौशनी किसी चमत्कार सा था। जब भी कोई चीज/बात/चमत्कार हमारी समझ में नहीं आता तो उसे हम किसी परमसत्ता/दैवीय शक्ति की कृति मान लेते हैं। हमारे वैदिक पूर्वजों कोवायु, बरसात या प्रकाश जैसी प्रकृतितिक शक्तियों के प्रभाव नहीं समझ में आए तो उन्होंने इन्हें दैवीय मान लिया। दैवीयता की अवधारणा ऐतिहासिकरूप से मनुष्य निर्मित है इसीलिए देश-काल के अनुसार उसका स्वभाव और चरित्र बदलता रहता है।
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ज्ञान का विकास किश्तों में ही होता है, इसीलिए यह अनवरत निरंतर प्रक्रिया है। जैसे कोई अंतिम सत्य नहीं होता वैसे ही कोई परम ज्ञान नहीं होता। एक स्थिति में जो अंतिम सत्य लगता है विकास के अगले चरण में वह गलत साबित हो जाता है और दूसरा सत्य अन्वेषित हो जाता है।
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