मैं लंबे समय तक फ्री-लांसर (बेरोजगार) रहा हूं, उस समय (शायद आज भी ऐसा ही हो) अंग्रेजी की तुलना में हिंदी लेखन की भुगतान दर बहुत ही दयनीय थी। घर चलाने के लिए अंग्रेजी में लिखता था, भाषा के प्रति प्रतिद्धता के लिए हिंदी में। कलम की मजदूरी से घर चलाने के दौरान हिंदी के एक जाने माने मित्र के साथ मिलकर एक अंग्रेजी जर्नल निकाला, दूसरा अंक अन्यान्य कारणों से नहीं निकल सका। थिएटर के एक प्रोफेसर ने एक बड़े फ्रांसीसी नाटककार (मॉलियर) के एक बहुत अच्छे मुश्किल नाटक (मिसऐंथ्रोप) केअंग्रेजी अनुवाद से पद्य से पद्य में हिंदी अनुवाद किया तथा मल प्रति उसे इस समझ से दे दिया कि वह टाइप कराकर एक कॉपी मुझे देगा। न पैसा दिया न कॉपी। टेलीविजन की स्क्रिप्ट में कुल मिलाकर लगभग 2 लाख की मजदूरी मारी गयी। एक प्रो्यूसर ने छोटे छोटे काम के लिफाफे में धन्यवाद पत्र के साथ भुगतान करके क्रेडिट बनाया और एक सीरियल का पैसा मार गया। खैर फ्री-लांसिंग से घर चलाना मुश्किल काम है। बाखी फिर...
Saturday, July 29, 2023
Thursday, July 27, 2023
अक्षत
शोले फिल्म में एके हंगल द्वारा अभिनीत पात्र का एक डायलॉग है कि जीवन का सबसे बड़ा दुख बेटे की लाश को कंधा देना होता है, कल अग्रज-मित्र अनिल मिश्र के बेटे 30-32 साल के, अक्षत की अंत्येष्टि से लौटा तब से दिमाग सुन्न सा है। बहुत जहीन लड़का था, मित्र का बेटा होने के साथ मेरा मित्र भी था। सड़क दर्घटना में उसकी मृत्यु हो गयी। 22 साल पहले उसके बड़े भाई, अंकुर की यमुना में डूबने से मृत्यु हो गयी थी। वह भी मेरा मित्र था। अंकुर होता तो आज वह बड़ा रंगकर्मी और कवि होता। इसी को कहते हैं विपत्ति का पहाड़ टूटना। मेरे पास शांत्वना देने के शब्द ही नहीं हैं।
Sunday, July 23, 2023
शिक्षा और ज्ञान 312 (सांप्रदायिकता)
मेरी एक पोस्ट पर एक कमेंट का जवाब:
जी नहीं वर्णव्यवस्थावाद (ब्रह्मणवाद) और शिक्षा पर एकाधिकार के चलते वर्णाश्रमवाद यहां पहले से मौजूद थे, वे अंग्रेजों के चलते नही के नहीं उपजे.। शिक्षा की सार्वभौमिक सुलभता औपनिवेशिक शिक्षा नीति का एक सकारात्मक उपपरिणाम है। इसी के चलते ब्राह्मणवादी वर्चस्व पर आए खतरे को टालने के लिए ब्राह्मणवाद को हिंदुत्व का चोला पहनाकर पेश किया गया। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की राजनैतिक अभिव्यक्ति है , जिससे कुछ के हित को सबकी शक्ति से बढ़ाया/बचाया जा सके। मार्क्स जब हिंदुस्तान पर पढ़ना-लिखना शुरू किए तो पाए कि वर्णाश्रमी सामंतवाद समेत यहां की तमाम विशिष्टताएं, यूरोपीय इतिहास पर आधारित ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत में नहीं फिट बैठते तो उन्होंने इसके लिए एसियाटिक मोड ऑफ प्रोडक्सन का सिद्धांत प्रतिपादित किया। उन्हें लगा था कि औपनिवेशिक शासन भारत के पूंजीवादीकरण के लिए एशियाटिक मोड को तोड़ेंगे। लेकिन अंग्रेजों भारत का पूंजीवादीकरण की बजाय एशियाटिक मोड का इस्तेमाल इसके संसाधनों को लूटने में किया। लेकिन बांटो-राज करो की नीति के तहत सांप्रदायिकता का उदय औपनिवेशिक रणनीति के उपपरिणाम के रूप में हुआ। ज्ञान पांडेय इसे तथ्यों के साथ अपनी किताब, Construction of communalism in colonial North India में विधिवत दर्शाया है। सादर।
Saturday, July 15, 2023
शिक्षा और ज्ञान 311 (आध्यात्मिकता)
अमूर्त सैद्धांतिक चिंतन (Thinking theoretically) ही अध्यात्म है। कुछ लोग अध्यात्म को धर्म के साथ उसी तरह गड्ड-मड्ड कर देते हैं जैसे संस्कृति को। सैद्धांतिक विज्ञान अध्यात्म है मूर्ति-पूजा नहीं। आध्यात्मिकता जब तक तार्किक रहती है विज्ञान के साथ उसका कोई अंतर्विरोध नहीं होता लेकिन आस्थापरक होते ही वह विज्ञान के विरुद्ध खड़ी हो जाती है। हर धर्म अवैज्ञानिक और अधोगामी होता है क्योकि वह आस्था की वेदी पर तर्क की बलि चढ़ा देता है।
शिक्षा और ज्ञान 310 (प्रेमचंद)
31 जुलाई को प्रेमचंद का जन्मदिन है, इस अवसर पर हिंदी साहित्य के जाने-माने आलोचक,Virendra Yadav ने स्त्री लेखा पत्रिका के लिए प्रेमचंद की स्त्री-दृष्टि पर अपना लेख शेयर किया है जिसमें प्रेमचंद को स्त्री विरोधी या दलित विरोधी बताने वालों का तथ्यपरक खंडन किया है। उस पर टिप्पणी:
बहुत सुंदर विवरण एवं विश्लेषण। किसी भी परिघटना को उसके ऐतिहासिक संदर्भ में बेहतर समझा जा सकता है। विकास के हर चरण के अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप और स्तर होता है।1923 या 1932 में, सामाजिक चेतना के विकास के उस चरण में सांप्रदायिकता; स्त्रियों या जाति पर प्रेमचंद के विचार समय से आगे एवं क्रांतिकारी हैं। जन्म के आधार पर व्यक्तित्व-कृतित्व का मल्यांकन ब्राह्मणवाद का मूलमंत्र है, ऐसा करने वाले जन्मना असवर्ण, नव ब्राह्मणवादी सामाजिक चेतना के जनवादीकरण के रास्ते के ब्राह्मणवादियों जितने ही खतरनाक गतिरोधक हैं। प्रेमचंद को दलितविरोधी या स्त्री विरोधी बताने वाले नवब्राह्मणवादी इसी कोटि के प्रतिक्रांतिकारी हैं। अंबेडकर जाति का विनाश चाहते थे जवाबी जातिवाद नहीं।सभी रचनाएं समकालिक होती हैं, महान रचनाएं सर्वकालिक हो जाती हैं। प्रेमचंद की सभी रचनाएं सर्वकालिक हैं। उनकी जयंती पर कालजयी रचनाकार को सलाम।
Thursday, July 13, 2023
शिक्षा और ज्ञान 309 (परंपराएं)
परंपराएं हमारे मन-मष्तिष्क पर पूर्वजों की लाशों के भार के दुःस्वप्न की तरह लदी रहती हैं और बोझ तो फिर बोझ होता है। समाजीकरण के दौरान युग चेतना (सामाजिक चेकना) और परंपराओं से निर्मित स्वचेतना को स्वतंत्र दिशा देने के लिए अनवरत, साहसिक आत्मसंघर्ष की जरूरत होती है। आर्थिक संरचना में परिवर्तन को संभालने के लिए परिवर्तित राजनैतिक और वैधानिक (लीगल) संरचनाओं की जरूरत होती है और वे आसानी से हो जाते हैं। लेकिन परंपरा-प्रेरित सांस्कृतिक मूल्यों से निर्धारित सामाजिक चेतना तुरंत नहीं बदलती, क्योंकि सांस्कृतिक मूल्यों को हम सवाभाविक और अंतिम सत्य के रूप में इस तरह आत्मसात कर लेते हैं कि वे हमारे व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन जाते हैं। सांस्कृतिक वर्चस्व से निर्मित सामाजिक चेतना से मुक्ति के लिए निष्ठुर आत्मावलोकन और आत्मालोचना के साथ अनवरत आत्मसंघर्ष की आवश्यकता होती है। प्रकृति अराजक है मनुष्य इस प्राकृतिक अराजकता को विवेकसम्मत बनाकर मनुष्यता को पशुता से अलग करता है। शुभकामनाएं।
Sunday, July 9, 2023
शिक्षा और ज्ञान 308 (व्यक्तित्व)
इसीलिए मनुष्य का व्यक्तित्व क्षुधा आधारित उसके अंतःकरण और विवेक के द्वंद्वात्मक योग से निर्मित होता है, संतुलन बिगड़ते ही मनुष्य पशुकुल में वापसी कर लेता है क्योंकि हमारे आदिम पूर्वजों ने खुद को अपनी प्रजाति विशिष्ट प्रवृत्ति, विवेक के इस्तेमाल से अपनी आजीविका के उत्पादन-पुरुत्पादन करके पशुकुल से अलग किया था।
Saturday, July 8, 2023
शिक्षा और ज्ञान 307 (ज्ञान)
ज्ञान (सीखना) एक निरंतर और अनवरत प्रक्रिया है, कुछ चीजें ज्ञात हैं, बहुत सी चीजें ज्ञात होना (सीखना) बाकी हैं। मनुष्य ने जब संकेतों और ध्वनियों भाषा का आविष्कार किया तो वह तब तक का सबसे क्रांतिकारी अन्वेषण था, या उसी तरह शिकारी चरण में तीर- धनुष का अन्वेषण अति क्रांतिकारी अन्वेषण था।किशोरावस्था (12 साल ) में हम जब गांव से शहर आए तो कुंए से या हैंडपंप से पानी निकालने की तुलना में नल की टोंटी ऐंठने से अविरल जल प्रवाह या लालटेन जलाने की जटिल प्रक्रिया से थोड़ा सा प्रकाश पाने की तुलना में स्विच दबाने से इफरात रौशनी किसी चमत्कार सा था। जब भी कोई चीज/बात/चमत्कार हमारी समझ में नहीं आता तो उसे हम किसी परमसत्ता/दैवीय शक्ति की कृति मान लेते हैं। हमारे वैदिक पूर्वजों कोवायु, बरसात या प्रकाश जैसी प्रकृतितिक शक्तियों के प्रभाव नहीं समझ में आए तो उन्होंने इन्हें दैवीय मान लिया। दैवीयता की अवधारणा ऐतिहासिकरूप से मनुष्य निर्मित है इसीलिए देश-काल के अनुसार उसका स्वभाव और चरित्र बदलता रहता है।
Thursday, July 6, 2023
शिक्षा और ज्ञान 306 (लेखक)
जाने-माने लेखक Chandra Bhushan की एक पोस्ट पर कमेंट। पोस्ट नीचे कमेंट बॉक्स में।
अद्भुत, आपने नवीं क्मैंलास में ही दार्शनिक लेख लिख डाला। होनहार विरनवान के होत चीकने पात। तो एमएस्सी तक सोचता था कि लेखक किसी औरग्रह से आते होंगे। 18साल की उम्र में पिताजी से पैसा लेना बंद करने के बाद से ही गणित के ट्यूसन से ही काम चलाता था और गणित में 100 में 8-10 पाने वाले भी 60-70 पाने लगते थे। डायलेक्टिकल मैटेरियलिज्म जानता नहीं था लेकिन चेतना भौतिक परिस्थितियों का परिणाम है और बदली चेतना दली परिस्थितियों का तथा परिस्थितियां मनुष्य के चैतन्य प्रयास से बदलती हैं, इसका अनुभव एक कर्मकांडी ब्राह्मण बालक से तर्कशील नास्तिक बनने की प्रक्रिया में कर रहा था। मैंने भगत सिंह लेख तब पढ़ा जब मैं पहले ही नास्तिक न चुका था। समाजवाद के किले दरकने से मेरा विश्वास नहीं दरका क्योंकि मैं इन्हें उत्तर-क्रांति (पोस्ट रिवल्यूसनरी) समाज मानता था, समाजवादी समाज नहीं। सोचता था कि अगली क्रांति के बाद पेरिस कम्यून के अगले संस्करण के समाजवादी समाज का निर्माण होगा लेकिन अगली प्रतिक्रांति हो गयी। अगली क्रांति शायद हमारी अगली दूसरी-तीसरी पीढ़ियों के जमाने में हो। मेरे प्रकाशित शोधपत्रों में मेरे एमफिल के दो टर्मपेपर हैं, यदि लेखक होने का आत्मविश्वास होता तो शायद कुछ और संभालकर रखता। 1983 में जनसत्ता के लिए शिक्षा व्यवस्था पर एक लेख के 2-3 ड्राफ्ट तैयार किए। 4-5 लोगों को पढ़ाया तब भी उसकी गुणवत्ता पर भरोसा नहीं हुआ और छद्म (किसी का वास्तविक) नाम से छपवाया। छपने के बाद जब लोगों ने पसंद किया तब अपने लेखक होने का भरोसा हुआ।
Sunday, July 2, 2023
मार्क्सवाद 288 (निजीकरण)
एक पोस्ट पर कमेंट:
1. आज की फासीवादी हिंदुत्व सांप्रदायिकता साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी का औजार है, हिंदुत्व के खुले एजेडा के पीछे सार्वजनिक प्रतिष्ठानों के निजीकरण-उदारीकरण, शिक्षा-स्वास्थ्य-खेती के कॉरपोरेटीकरण, सामाजिक सुरक्षा के कल्याणकारी संस्थानों को विघटित कर क्रोनी (कृपापात्र) पूंजीपतियों के हवाले करने का हिडेन साम्राज्यवादी एजेंडा है। देश का बंटवारा बांटो-राजकरो की नीति के अंग के रूप मेंऔपनिवेशिक परियोजना थी जिसमें औपनिवेशिक शासन के हिंदू-मुसलमान सांप्रदायिक सहयोगियों (हिंदू महासभा-आरएसएस तथा मुस्लिम लीग-जमाते इस्लामी) ने मुल्क में फिरकापरस्त नफरत का जहर फैलाकर समान रूप से शासन की वफादारी किया। हिंदू और मुसलमान सांप्रदायिकताएं औपनिवेशिक पूंजी के गर्भ से पैदा जुड़वा औलादें हैं, जो पूरी निष्ठा से साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी की सेवा कर रही हैं। देश के बंटवारे (दो राष्ट्र सिद्धांत) का प्रस्ताव पहले (1937)सारकर की अध्यक्षता में हिंदू महासभा ने पारित किया फिर (1940) मुस्लिम लीग ने।
2. आपकी दूसरी बात से सहमत हूं कि आज की सांप्रदायिक सत्ता विरोधी शक्तियां यदि पहले सक्रिय होतीं तो यह नौबत न आती। 1947 में नेहरू जैसी वैज्ञानिक तथा मानवीय सोच का नेतृत्व न होता तो 1947 में ही भारत हिंदू पाकिस्तान बन गया होता। 1984 से कांग्रेस बहुसंख्यक तुष्टीकरण की नीति को तहत भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक खेल खेलने लगी तथा दुश्मन के मैदान में उसी के हथियार से लड़ाई में हार निश्चित होती है। 1991 के बाद वह भाजपा के साथ साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी के प्रतिस्पर्धी खेल खेलने लगी उसमें भी उसकी पराजय निश्चत थी। लेकिन आज की हालात की ज्यादा जिम्मेदारी कम्युनिस्ट पार्टियों की कमनिगाही और अकर्मों की है। राजनैतिक शिक्षा के जरिए सामाजिक चेतना के जनवादीकरण करने के अपने कर्तव्य में वे बुरी तरह असफल रहे, इस पर विस्तार से फिर कभी।