नफरत की बाजार मिली है हमें विरासत में
Wednesday, January 25, 2023
नफरत की बाजार मिली है हमें विरासत में
Monday, January 23, 2023
विविधता में एकता
समाज बहुत लोगों
का ही नहीं
भांति-भांति
के लोगों का समुच्चय है
दो
या चार सगे भाई भी एक से नहीं अलग अलग होते हैं
यही
विविधता खूबसूरती है समाज और प्रकृति की।
विविधता
के विरुद्ध समरस-एकसरता की सोच
लोगों
को धर्म, जाति या जगह की
एकरसता
के खांचे में कैद करने का विचार
सोची-समझी
फासीवादी साजिश है
प्रकृति
की विविधता की खूबसूरती के खिलाफ
समाज
की सामासिकता के खिलाफ
तथा
विविधता में एकता की मनुष्यता के खिलाफ
ऐसे
ही नहीं वैसे भी होते हैं इलाहाबाद के लड़के
कुछ
भक्त होते हैं
तो
कुछ विद्रोह करते हैं भक्तिभाव के विरुद्ध
कुछ
पक्के आस्थावान होते हैं
तो
कुछ प्रामाणिक नास्तिक
लेकिन
कुल मिलाकर चिंतनशील होते हैं इलाहाबाद के लड़के
जो
कि साझी कड़ी है विविधता में एकता की
भांति-भांति
के होते हैं इलाबाद के लड़के
और
हां लड़के ही नहीं लड़किया में होती हैं इलाहााद में
ऐसी
भी और वैसी भी
(ईमि: 23.01.2023)
Saturday, January 21, 2023
शिक्षा और ज्ञान 396 (मर्दवाद)
मर्दवाद न होता तो हमारे यहां सती प्रथा भी न होती न ही विधवा आश्रम होते। आज भी स्त्री भ्रूणहत्या, 'सम्मान हत्या'. बलात्कार इतनी तादाद में न होते। मैं अपनी बेटियों और छात्राओं को कहता था कि वे भाग्यशाली हैं कि 1-2 पीढ़ी बाद पैदा हुयीं वरना स्कूल-कॉलेज से दूर घर की चारदीवारी में गुलामी में जीवन कटता। नस्लवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद की ही तरह मर्दवाद भी कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं, बल्कि विचारधारा है और विचारधारा उत्पीड़क और पीड़ित को समान रूप से प्रभावित करती है. मर्दवादी होने के लिए पुरुष होना जरूरी नहीं है न स्त्रीवादी होने के लिए, स्त्री।
स्त्रियों को कमतर समझना और उस पर वर्चस्व स्थापित करना पुरुषवाद (मर्दवाद) है तथा भेदभाव के विरुद्ध समानता की स्थापना की लड़ाई स्त्रीवाद है।"
Thursday, January 19, 2023
शिक्षा और ज्ञान 395 (राष्ट्रवाद)
किसी भी विचारधारा को समकालीनता से उठाकर प्राचीनता में प्रस्थापित करना अनैहितासिक कृत्य है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य और उसकी विचारधारा, राष्ट्रवाद को प्राचीन काल में ढकेलना ऐसा ही कुकृत्य है। यूरोप में मध्ययगीन सामंतवाद के खंडहरों पर आधुनिकता का उदय, घटना-परिघटनाओं की व्याख्या परंपरा और धर्मशास्त्रीय मान्यताओं को अमान्य कर, तार्किकता और उपयोगिता के आधार पर करने की बुनियाद पर हुआ। मध्ययुगीन सामंती राज्य (राजतंत्र) की सत्ता की वैधता का स्रोत ईश्वर था तथा विचारधारा धर्म। नवोदित आधुनिक अर्थव्यवस्था (पूंजीवीद) के लिए घटना-परिघटनाओं की धर्मशास्त्रीय व्याख्या की जगह नए दार्शनिक आधार की जरूरत थी जिसकी पूर्ति व्यक्ति-केंद्रित दर्शन उदारवाद ने की जिसकी नींव पहले उदारवादी दार्शनिक थॉमस हॉब्स ने की और उस पर भवन निर्माण का काम जॉन लॉक से शुरू कर उनके परवर्ती उदारवादी दार्शनिकों ने किया। नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेंनमेंट) क्रांतियों ने ईश्वर को उसकी सृष्टि से विलुप्त कर दिया। ईश्वर की जगह नवोदित आधुनिक (पूंजीवादी) राष्ट्र-राज्य की वैधता के स्रोत की वैधता के नये स्रोत और धर्म की जगह नई विचारधारा की जरूरत थी। अमूर्त ईश्वर की जगह अमूर्त 'लोग' का अन्वेषण हुआ और धर्म की जगह विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद का। भारत में नवजागरण और प्रबोधन के समतुल्य क्रांतियां नहीं हुईं। सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के संदेश का कबीर के साथ शुरू नवजागरण अपनी तार्किक परिणति नहीं पहुंच सका। औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण प्रबोधन क्रांति और पूंजीवाद के स्वतंत्र विकास की संभावनाएं समाप्त हो गयीं। औपनिवेशिक पूंजी का मकसद भारत में औद्योगिक पूंजी का विकास नहीं, यूरोप में औद्योगिक पूंजी के विकास के लिए भारत के संसाधनों की लूट था। इसलिए यहां राष्ट्रवाद का उदय और विकास साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के रूप में हुआ। आधुनिक राष्ट्र-राज्य और उसकी विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद के इस विकास को बाधित करने के औपनिवेशिक शासकों ने बांटो और राज करो की नीति के तहत धर्म आधारित हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र की विचारधारा के रूपमें दोनों समुदायों के अपने दलालों की मार्फत सांप्रदायिक विचारधाऱा को प्रश्रय दिया। फलस्वरूप विखंडत आजादी मिली और विखंडन का घाव नासूर बन आज भी विखंडित भारत को लहूलुहान कर रहा है।
Saturday, January 14, 2023
शिक्षा और ज्ञान 394 (भूमंडलीकरण)
दुर्भाग्य से हमारा सामाजिक संरक्षणबोध बहुत बुरा है। अनादिकाल से लोग आजीविका तथा अन्यान्य कारणों से लोग एक जगह से दूसरी जगह आते-जाते, बसते रहे हैं। वैसे तो इस ऐतिहासिक अर्थ में देश-दुनिया सदा भूमंडलीय (अंतर्राष्ट्रीय)) रही है लेकिन पूंजीवाद ने विशुद्ध रूप से भूमंडलीय बना दिया। यूरोप में पूंजीवाद का उदय और विकास तथा औपनिवेशिक विस्तार साथ-साथ शुरू हुए और पूंजी के तथाकथित आदिम संचय में किसान-कारीगरों के सर्वहाराकरण के साथ औपनिवेशिक लूट की प्रमुख भूमिका रही है। हर जगह जाना ओऔर नीड़ बनाना पूंजी का ऐतिहासिक चरित्र रहा है लेकिन भूमंडलीकरण के बाद पूंजी का चरित्र स्पष्टतः भूमंडलीय हो गया है क्योंकि अब यह न तो स्त्रोत के मामले में न निवेश के मामलों में स्थानीय-केंद्रिक (Geo-centric) रह गयी है, प्रधान मंत्री ने स्टेटबैंक को अडानी को हजारों करोड़ कर्ज देने का निर्देश आस्ट्रेलिया में कोयला-खनन में निवेश के लिए दिया था।जिस तरह पूंजी का कोई देश नहीं होता उसी तरह मजदूर का भी कोई देश नहीं होता लेकिन भूमंडलीय मजदूर एकता के मंसूबों के विरुद्ध उसे राष्ट्रीयता के माऴनात्मक चक्र में फंसाए रखा जाता है। उन्नीसवी-बीसवीं सदी में दो देशों के मजदूरों में दो विपरीत परिभाषा के राष्ट्रवाद विकसित हो रहे थे। इंगलैंड के मजदूर औपनिवेशिक लूट को राष्ट्रवादी गौरव मान रहे थे और कभी सूर्यास्त न होने वाले साम्राज्य का हिस्सा होने में गर्व महसूस कर रहे थे, यह अलग बात है कि औपनिवेशिक लूट से उनके अपने शोषण-उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आती थी। और भारत के मजदूर औपनिवेशिक लूट के विरुद्ध उपनिवेशविरोधी भारतीय राष्ट्रवाद के लिए लड़ रहे थे जिसे तोड़ने के लिए औपनिवेशिक शासकों ने बांटो-राज करो की नीतिको तहत मजदूरों (आमजन) को धर्म के आधार पर परिभाषित करना शुरू किया और उन्हें दोनों प्रमुख समुदायों से कारिंदे भी मिल गए। अनैतिहासिक धर्मोंमादी राष्टवाद (सांप्रदायिकता) के युद्धेोंमाद ने भारतीय राष्ट्रवाद और राष्ट्र के टुकड़े कर दिेए और देश का बंटवारा हमारे इतिहास और राजनीति का स्थाई नासूर बन गया। भाषा-संस्कृति के मुद्दे पर पाकिस्तान के टुकड़े होना धर्म आधारित राष्ट्रवाद की अवधारणा के फरेब का भंडाफोड़ करता है। भारत में आज के सत्तासीन और उनके भक्त धर्मोंमादी राष्ट्रवाद (सांप्रदायिकता) से मानवता को खंडित करने के अपने वैचारिक पूर्वजों की राह पर चलते हुए इतिहास को पीछे ढकेलने पर तुले हैं।
Friday, January 13, 2023
शिक्षा और ज्ञान 393 (शिक्षक का सम्मान[बेतरतीब])
एक मित्र ने एक विशिष्ट संदर्भ में कमेट किया कि मैं ब्राह्मणों को गाली देकर ज्ञानी बनने की कोशिस करता हूं। उस पर --
ब्राह्मण का नहीं, काम-विचारों की बजाय जन्म के आधार पर व्यक्तित्व का मूल्यांकन करने वाली विचारधारा, ब्राह्मणवाद (जातिवाद) की आलोचना करता हूं। ज्ञानी तो हूं नहीं, दिमागी क्षमता की सीमाओं के अंतर्गत सवाल-जवाब की द्वंद्वात्मक प्रक्रिया से नित ज्ञानार्जन के प्रयास में रहता हूं और शिक्षक के नाते उसे छात्रों समेत मित्रों के साथ शेयर करता हूं। क्योंकि जैसे कोई अंतिम सत्य नहीं होता, वैसे ही कोई अंतिम ज्ञान नहीं होता। ज्ञान एक निरंतर ऐतिहासिक प्रक्रिया है तथा ऐतिहासिक रूप से हर अगली पीढ़ी तेजतर होती है जो पिछली पीढ़ी की उपलब्धियोें को समीक्षात्मक रूप से (critically) समेकित (consolidate) करती है और उसमें नया जोड़कर आगे बढ़ाती है। तभी तो हम पाषाण युग से साइबर युग तक पहुंचे हैं।शिक्षक को लगातार शिक्षित होते रहना चाहिए। हम सजग रहें तो हमे परिवेश नित शिक्षित करता है, हमारे बच्चे और छात्र भी। मैं अपनी बेटियों के साथ बढ़ने के कुछ अनुभव, राजनैतिक दर्शन पढ़ाते हुए, उदाहरण के रूप में अपने छात्रों के साथ शेयर करता था, मेरी बेटी रॉयल्टी मांगती है। मेरी छोटी बेटी जब 4 साल की थी तो एक बार दोनों बहनें लड़ रही थीं। उससे मैंने कहा कि उसे सोचना चाहिए कि वह उससे 5 साल बड़ी है। उसने अकड़कर जवाब दिया था 'उन्हें भी तो सोचना चाहिए कि मैं उनसे 5 साल छोटी हूं'। मुझे लगा बात तो बिल्कुल सही कह रही है। इज्जत कमाई जाती है और पारस्परिक होती है। सीनियर्स को यदि जूनियर्स से इज्जत चाहिए तो उन्हें भी उनकी इज्जत करना सीखना चाहिए। इसीलिए मैं कहता हूं कि अभिभावकी करते हुए हमें बच्चों के सोचने के अधिकार और बालबुद्धिमत्ता का सम्मान करना चाहिए। कमेंट लंबा हो गया, बाकी बातें फिर कभी। एक बात और मुझसे जब कोई कहता है कि मेरे छात्र मेरा बहुत सम्मान करते हैं तो मैं कहता हूं कि कौन सा एहसान करते हैं, मैं भी तो उनका सम्मान करता हूं। पुराने छात्र मिलते हैं तो इस बात का आभार जताते हैं कि मैं उनसे मित्रवत व्यवहार करता था। मैं कहता हूं कि पहली बात कि उन्होंने मेरा खेत नहीं काटा था कि शत्रुवत व्यवहार करूं और दूसरी बात कि ऐसा स्वार्थवश करता था क्यों कि किसी रिश्ते का वास्तविक सुख तभी मिलता है जब वह जनतांत्रिक, समतामूलक और पारदर्शी हो, पारस्परिक सम्मान उसका उपप्रमेय होता है। समता एक गुणात्मक अवधारणा है, मात्रात्मक इकाई नहीं। शक्तिजन्य, श्रेणीबद्धता के संबंधों में सुख नहीं, सुख का भ्रम मिलता है। बहुत लंबा कमेंट हो गया, क्षमा कीजिएगा। अंतिमबात, ब्राह्मणवाद-नवब्राह्मणवाद (जातिवाद-जवाबी जातिवाद) की आलोचना प्रकारांतर से आत्मालोचना है जो कि बौद्धिक विकास की अनिवार्य शर्त है। सादर।शिक्षा और ज्ञान 392 (अच्छा शिक्षक)
एक मित्र द्वारा अच्छा शिक्षक होने की प्रशंसा पर
इतने बड़े कांप्लीमेंट के लिए बहुत बहुत आभार। ऐसे कांप्लीमेंट से गद गद हो जाता हूं और मॉडेस्टी नहीं दिखा पाता। मैंने हमेशा अच्छा इंसान और अच्छा शिक्षक बनने का निरंतर प्रयास किया है। अच्छा शिक्षक होने के लिए अच्छा इंसान होना जरूरी है, करनी-कथनी में एका जिसकी एक अनिवार्य शर्त है। शिक्षक (और अभिभावक) को प्रवचन से नहीं मिशाल से पढ़ाना चाहिए। जब तक कोई बाध्यता न हो कभी लेक्चर तैयार किए बिना क्लास नहीं जाता था। जिस दिन बिना तैयारी के साथ गया बच्चों को बता देता था। कल एक छात्रा (फिलहाल राजस्थान में प्रशिक्षु जिला जज) का फोन आया था उसने मजा लेते हुए याद दिलाया कि एक ऐसी ही क्लास के बाद उसने 'निवेदन' किया था कि सर आप बिना तैयारी के क्लास आया कीजिए। हा हा। पुराने छात्रों से बात-मुलाकात एक शिक्षक के लिए बहुत ही आनंददायी होता है। प्रशंसा से खुश होने में आत्ममुग्धता का खतरा रहता है, जिससे बचना चाहिए।
Sunday, January 8, 2023
शिक्षा और ज्ञान 391 (मैक्यावली)
मंहगाई, बेरोजगारी, अर्ध-रोजगारी (10 हजार में 12 घंटे की दिहाड़ी), असमानता, सैकड़ों साल के अनवरत संघर्षों से हासिल मजदूर अधिकारों की ऐसी-तैसी लेकिन धर्म के ठेकेदारों द्वारा विधर्मियों का संहार, बलात्कार, बहिष्कार का नफरती अभियान चुनावी ध्रुवीकरण का आसान तरीका है। ज्यादातर लोग दिमाग से नहीं दिल से सोचते हैं और एक साझा दुश्मन की कल्पना से लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण कर उन्हें उल्लू बनाकर अपना उल्लू सीधा करना आसान है। जैसा ऊपर के कमेंट में कहा है कि भक्त पेट पर भी लात प्रसाद समझकर खा लेता है। धर्म सदा ही प्रभावी राजनैतिक औजार रहा है। कौटिल्य तो आपद्धर्म के रूप में राजनैतिक फायदे के लिए लोगों के धार्मिक अंधविश्वास की भावनाओं के दोहन की बात करते हैं, लेकिन मैक्यावली 'समझदार'राजा को सलाह देता है कि धार्मिक कर्मकांड और अनुष्ठान कितने भी बेहूदे क्यों न हों उसे सदा उनका अनुपालन सुनिश्चित करना चाहिए। वह हर तरह का छल-कपट-दुराचार कितना भी करे लेकिन उसे अपनी छवि धर्मात्मा की बनाए रखना चाहिए। धर्म लोगों को लामबंद करने तथा उनकी एकता और वफादारी सुनिश्चित करने का सबसे कारगर औजार है। वैसे भी भगवान का भय राजा के भय में आसानी से तब्दील हो जाता है।
09.01.2019
Thursday, January 5, 2023
शिक्षा और ज्ञान 390 (सवित्री बाई फुले)
सावित्री बाई फुले को स्त्रियों और दलितों को शिक्षित करने के अपने अबियान में ब्राह्मणों का ही नहीं अब्राह्मण पुरुषों का भी कोप झेलना पड़ा था, क्योंकि वे शिक्षा पर ब्राह्मणों के ही नहीं पुरुषों के वर्चस्व को भी चुनौती दे रही थीं, लेकिन सारी बिघ्न-बाधाओं और प्रताड़नाओं के बावजूद वे अपने कर्म-पथ पर बढ़ती रहीं। उनका अभियान दोहरी वर्जना तोड़ रहा था। शिक्षा की सार्वजनिक सुलभता औपनिवेशिक शिक्षा नीति का एक सकारात्मक उपपरिणाम था। सावित्री बाई के जज्बे को सलाम।
शिक्षा और ज्ञान 389 (शाखामृग)
मेरे एक लिंक (समाजवाद 3)[समयांतर, मई में छपे लेख की] पर एक फेसबुक मित्र ने संघ के किसी बौद्धिक अधिकारी के बौद्धिक के हवाले से बताया कि रूस में क्रांति नहीं तख्ता-पलट हुआ था, जिसे क्रांति कहना अनुचित है। उस पर मेरा कमेंट:
शाखा की बौद्धिकों में अफवाहजन्य इतिहास सिखाया जाता है और कुप्रचार किया जाता है। बौद्धिक देने वाला खुद मूर्ख होता है (शाखामृग के रूप में अनुभवजन्य ज्ञान), रूसी क्रांति तक यह लेखमाला नौंवे भाग (नवंबर 2017) में पहुंचती है। मैं 13 साल का कर्मकांडी परिवेश में पला गांव का ब्राह्मण लड़का था लेकिन धार्मिक फरेबों पर संदेह होने लगा था। जौनपुर का जिला प्रचारक दुकच्छी धोती वाला, बाल स्वयं सेवको का ज्यादा ध्यान देने वाला वीरेश्वर जी (वीरेश्वर द्विवेदी, विहिप का मौजूदा राष्ट्रीय सचिव) था, उसने एक बौद्धिक में बताया कि हेडगेवार युधिष्ठिर का अवतार था। गोलवल्कर ने आजादी की लड़ाई के दौरान 'वि ऑर आवर नेसन डिफान्ड' में लिखा (1939) कि हिंदुओं को अंग्रजों से लड़ने में ऊर्जा व्यर्थ नहीं करना चाहिए, बाद में कम्युनिस्टों और मुसलमानों से लड़ने के लिए संरक्षित करनी चाहिए। उसी पुस्तक में लिखता है कि प्रचीन काल में उत्तरी ध्रुव उस जगह था जहां आज उड़ीसा और बिहार है, लेकिन शाखा में पढ़ने को हतोत्साहित किया जाता है, शाखामृग बिना पढ़े किसी को महान पवित्र ग्रंथ मान लेता है। उसी पुस्तक में यह भी लिखा है कि हिटलर ने जिस तरह सेमेटिक नस्ल का सफाया कर अपनी नस्ल की शुद्धा कायम की है वह हिंदुओं के लिए अनुकरणीय मिशाल है। हिटलर का मुख्य औजार अफवाहो को सच की तरह प्रचारित करने का प्रोपगंडा था। उसने बताया नहीं कि कैसे वह तख्ता पलट था? तख्ता पलट तो था ही लेकिन जनता द्वारा। इस लेख को पढ़े, लिंक पर बाकी भी हैं। यह भाग फ्रांस में 1848 की क्रांति पर है। 1917 की क्रांति की चर्चा अंतिम (भाग 9, नवंबर 2017) में है। लेकिन संघी तो बिना पढ़े कमेंट करता है।
Sunday, January 1, 2023
शिक्षा और ज्ञान 388 (मनुस्मृति)
कुछ आदिवासी समूहों को छोड़कर सभी समाज पितृसत्तात्मक रहे हैं और सभी पितृसत्तात्मक समाजों में स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। मनुस्मृति का अध्याय 9 स्त्रियों पर केंद्रित है, जिसमें साफ लिखा गया है कि स्त्री को पहले पिता के फिर पति के और स्वामी की मृत्यु के बाद पुत्रों के अधीन रहना चाहिए. उसे कभी भी स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। स्त्रीवादी विमर्श में मनुस्मृति की नहीं सभी पुरुषवादी आचार संहिताओं की आलोचना होती है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्त्रीवादी दार्शनिक मेरी वाल्स्टोनक्रॉफ्ट को इसलिए बुरी तरह ट्रोल किया गया था कि वह लड़कियों के पढ़ने के समान अधिकार की बात कर रही थी लेकिन उनकी सहशिक्षा की बात से लोगों को इतना सदमा पहुंचा था कि उन्हें कलंकिनी माना गया। लेकिन इससे मनुस्मृति के स्त्रीविरोधी होने की बात गौड़ नहीं हो जाती। ऋगवैदिक समाज में स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार प्राप्त थे। उत्तवैदिक गणतंत्रों में भी राजतंत्रों कीतुलना में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त थे।
शिक्षा और ज्ञान 387 ( वेद)
स्त्रियों और शूद्रों द्वारा शिक्षा प्राप्त करने के प्रयास करने के "अपराध" में दंडित करने का प्रावधान मनुस्मृति में है जिसका रचना काल वैदिक युग से कुछ हजार साल बाद का है । ऋगवैदिक समाज एक समता मूलक जनतांत्रिक समाज था तथा विदथ, सभा और समिति जैसी निर्णयकारी संस्थाएं लोक सहमति पर आधारित थीं। समाज कुटुंबों में बंटा था कुटुंब के मुखिया को राजा कहा जाता था। ऋगवेद के 7वें मंडल में वर्णित दस राज्ञ युद्धः दरअसल कुटुंबों की लड़ाई थी जिसमें एक तरफ में दस कबीलों (कुटुंबों) का गठजोड़ था जिसके सलाहकार विश्वामित्र थे दूसरी तरफ भारत समुदाय के तुत्सु कुटुंब के मुखिया (राजा) सुदास थे जिसके सलाहकार वशिष्ठ थे। युद्ध में सुदास की विजय हुई थी और समझौते में विश्वामित्र और वशिष्ठ दोनों ही सुदास के पुरोहित (सलाहार) बने।