किसी भी विचारधारा को समकालीनता से उठाकर प्राचीनता में प्रस्थापित करना अनैहितासिक कृत्य है। आधुनिक राष्ट्र-राज्य और उसकी विचारधारा, राष्ट्रवाद को प्राचीन काल में ढकेलना ऐसा ही कुकृत्य है। यूरोप में मध्ययगीन सामंतवाद के खंडहरों पर आधुनिकता का उदय, घटना-परिघटनाओं की व्याख्या परंपरा और धर्मशास्त्रीय मान्यताओं को अमान्य कर, तार्किकता और उपयोगिता के आधार पर करने की बुनियाद पर हुआ। मध्ययुगीन सामंती राज्य (राजतंत्र) की सत्ता की वैधता का स्रोत ईश्वर था तथा विचारधारा धर्म। नवोदित आधुनिक अर्थव्यवस्था (पूंजीवीद) के लिए घटना-परिघटनाओं की धर्मशास्त्रीय व्याख्या की जगह नए दार्शनिक आधार की जरूरत थी जिसकी पूर्ति व्यक्ति-केंद्रित दर्शन उदारवाद ने की जिसकी नींव पहले उदारवादी दार्शनिक थॉमस हॉब्स ने की और उस पर भवन निर्माण का काम जॉन लॉक से शुरू कर उनके परवर्ती उदारवादी दार्शनिकों ने किया। नवजागरण और प्रबोधन (एनलाइटेंनमेंट) क्रांतियों ने ईश्वर को उसकी सृष्टि से विलुप्त कर दिया। ईश्वर की जगह नवोदित आधुनिक (पूंजीवादी) राष्ट्र-राज्य की वैधता के स्रोत की वैधता के नये स्रोत और धर्म की जगह नई विचारधारा की जरूरत थी। अमूर्त ईश्वर की जगह अमूर्त 'लोग' का अन्वेषण हुआ और धर्म की जगह विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद का। भारत में नवजागरण और प्रबोधन के समतुल्य क्रांतियां नहीं हुईं। सामाजिक-आध्यात्मिक समानता के संदेश का कबीर के साथ शुरू नवजागरण अपनी तार्किक परिणति नहीं पहुंच सका। औपनिवेशिक हस्तक्षेप के कारण प्रबोधन क्रांति और पूंजीवाद के स्वतंत्र विकास की संभावनाएं समाप्त हो गयीं। औपनिवेशिक पूंजी का मकसद भारत में औद्योगिक पूंजी का विकास नहीं, यूरोप में औद्योगिक पूंजी के विकास के लिए भारत के संसाधनों की लूट था। इसलिए यहां राष्ट्रवाद का उदय और विकास साम्राज्यवाद विरोधी विचारधारा के रूप में हुआ। आधुनिक राष्ट्र-राज्य और उसकी विचारधारा के रूप में राष्ट्रवाद के इस विकास को बाधित करने के औपनिवेशिक शासकों ने बांटो और राज करो की नीति के तहत धर्म आधारित हिंदू और मुस्लिम राष्ट्र की विचारधारा के रूपमें दोनों समुदायों के अपने दलालों की मार्फत सांप्रदायिक विचारधाऱा को प्रश्रय दिया। फलस्वरूप विखंडत आजादी मिली और विखंडन का घाव नासूर बन आज भी विखंडित भारत को लहूलुहान कर रहा है।
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