कुछ आदिवासी समूहों को छोड़कर सभी समाज पितृसत्तात्मक रहे हैं और सभी पितृसत्तात्मक समाजों में स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाता रहा है। मनुस्मृति का अध्याय 9 स्त्रियों पर केंद्रित है, जिसमें साफ लिखा गया है कि स्त्री को पहले पिता के फिर पति के और स्वामी की मृत्यु के बाद पुत्रों के अधीन रहना चाहिए. उसे कभी भी स्वतंत्र नहीं होना चाहिए। स्त्रीवादी विमर्श में मनुस्मृति की नहीं सभी पुरुषवादी आचार संहिताओं की आलोचना होती है। 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में स्त्रीवादी दार्शनिक मेरी वाल्स्टोनक्रॉफ्ट को इसलिए बुरी तरह ट्रोल किया गया था कि वह लड़कियों के पढ़ने के समान अधिकार की बात कर रही थी लेकिन उनकी सहशिक्षा की बात से लोगों को इतना सदमा पहुंचा था कि उन्हें कलंकिनी माना गया। लेकिन इससे मनुस्मृति के स्त्रीविरोधी होने की बात गौड़ नहीं हो जाती। ऋगवैदिक समाज में स्त्रियों को अपेक्षाकृत अधिक अधिकार प्राप्त थे। उत्तवैदिक गणतंत्रों में भी राजतंत्रों कीतुलना में स्त्रियों को अधिक स्वतंत्रता और अधिकार प्राप्त थे।
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