Wednesday, September 15, 2021

बेतरतीब 112 (1971)

मैं तो न कभी घर में मार खाया न स्कूल में। होमवर्क इसलिए कर लेता था कि टीचर क्लास में खड़ा न कर दे। 12वीं मे केमिस्ट्री के प्रैक्टिकल का एक टुच्चा टीचर था, काफी रौब-दाब वाला। शहर के सारे गुंडे (11वीं-12वी क्लास के, जैसे भी होते हैं) उसके चेले थे। किसी और बात की हुक्मनाफरमानी का बदला लेने के लिए वह प्रैक्टिकल में कुछ गलती निकालकर मुझे पीटना चाहा। उसका आतंक यह था कि जैसे ही किसी लड़के के पास खड़ा होकर आवाज लगाता, 'खदेरू (लैब असिस्टेंट) बेंत लाओ तो', रूपक में कहें तो उसके पैंट गीले हो जाते। जैसे ही उसने खदेरू की गुहार लगाई, मेरे मन में आया, मार नहीं खाऊंगा। जैसे ही उसने मारने के लिए हाथ उठाया, उसने सोचा मैं मार खाने के लिए हाथ बढ़ा रहा था, लेकिन मैं छड़ी पकड़ने के लिए हाथ बढ़ा रहा था। मैं 16 साल से कम उम्र का दुबला-पतला बालक था, भैस सा मोटा वह मेरे ऊपर गिर पड़ता तो मैं दबकर ही मर जाता। लेकिन भौतिक चोट तो महज लक्षण है, चोट तो कहीं और लगाई जाती है और लगती है। उसके आतंक का साम्राज्य टूट गया पूरे कैंपस में चर्चा यही थी कि एक मरियल से लड़के ने गंगा गुरू की छड़ी पकड़ ली। वह सही मायने में शिक्षक होता तो मेरे निडर साहस की प्रशंसा करता। उसने मुझे प्रैक्टिकल में फेल कराकर अपने अहंकार पर आघात का बदला लिया। किसी छात्र के विरुद्ध किसी भी कारण से दले की भावना रखने वाला शिक्षक शिक्षक होने की पात्रता खो देता है। पास होता तो पहले 10 में यूपीबोर्ड की परीक्षा में होता और 30 में 9 की बजाय 27 मिलते तो टॉप करता, अच्छा हुआ। गम के कुछ दिन तो थे लेकिन ज्यादा दिन नहीं। प्रिंसिपल ने अगले साल से उसे परीक्षा-ड्यूटी से मुक्त कर दिया। मेरा क्या लंबी जिंदगी में एक साल से क्या फर्क पड़ता है, उसी के 2 साल बाद वह मर गया, मेरे शाप से नहीं, टीबी से। बाद में ग्लानि हुई कि किसी की मौत से खुश नहीं होना चाहिए। लेकिन 17-18 साल के लड़के में इतनी नैतिक संवेदनशीलता नहीं होती।

घटना स्थल -- टीडीयस इंटर कॉलेज, जौनपुर (उप्र)
वर्ष -- 1971

16.09.2017

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