सांस्कृतिक वर्चस्व अदृश्य बाध्यकारी ताकत है जो अधीनस्थ से स्वेच्छथा पूर्वक अधीनता स्वीकार करवाती है, शोषक शोषित का शोषण शोषित की सहमति से करता है, शासक शासित पर उसकी सहमति से शासन करता है। सांस्कृतिक वर्चस्व के चलते मर्दवादी समाज में स्त्रियां ''स्वेच्छा'' से अधीनस्थता स्वीकार करती हैं। मर्दवादी सांस्कृतिक वर्चस्व या मर्दवादी वैचारिक मिथ्या चेतना को रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, नित्यप्रति के क्रिया कलापों तथा विमर्श से निर्मित, पुनर्निर्मितल तथा पोषित किया जाता है। मर्दवाद (Gender) जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि विचारधारा (मिथ्या चेतना) है जिसके मूल्यों को पलने-बढ़ने में समाजीकरण के जरिए हम स्वाभाविक प्रवृत्ति समझकर अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं जिससे मुक्ति के लिए साहसिक सामाजिक और आत्मसंघर्ष की नजरूरत होती है। विचारधारा शोषक या उत्पीड़क को ही नहीं शोषित या पीड़ित को भी प्रभावित करती है। किसी लड़की को पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी बेटा कहकर साबाशी देती हैं और लड़कियचां भी इसे साबाशी मानकर खुश हो जाती हैं। मर्दवाद चूंकि विचारधारा है इससे लड़ाई भी मूलतः वैचारिक है। हमें अपने रोजमर्रा के जीवन तथी विमर्शों में हर कृत्य और हर शब्द में इसे नकारना होगा। इसे (लैंगिक भेदभाव की विचारधारा) नकारने या लैंगिक समानता की स्थापना की वैचारिक लड़ाई ही विचारधारा के रूप में स्त्रीवाद का मूल है। जरूरत सामाजिक उत्सवों को विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों से मुक्त कर स्वरूप बदलने की है, उन्हें नया जनतांत्रिक अर्थ देने की है।
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