Friday, September 17, 2021

दक्षिण अफ्रीका की मुक्ति के लिए (1985)

 34 साल पहले का एक लेख


दक्षिण अफ्रीका की मुक्ति के लिए
ईश मिश्र

न्याय की आड़ में दक्षिण अफ्रीका की अल्पमत और तानाशाह गोरी सरकार द्वारा की गई राजनैतिक हत्याओं की कड़ी में, 18 अक्तूबर, 1985 को क्रांतिकारी कवि बेजामिन मोलाइस का नाम भी जुड़ गया। सं. राष्ट्र संघ, अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनो तथा तमाम राष्ट्राध्यक्षों की, क्षमादान की अपील की अनसुनी करके मोलाइस को फाँसी दे देने का फैसला, बोथा सरकार की निरंकुशता, विश्व जनमत की अवहेलना और बौखलाहट का परिचायक है। फाँसी देने से पहले मोलाइस को अपनी माँ से भी नहीं मिलने दिया गया। अपने वकील के मार्फत, देशवासियोम के नाम, अपनी माँ को भेजे संदेश में मोलाइस के कहा था, “कल मैं उनके लिए खून बहाऊंगा, जो मेरे पीछे है, आजादी बहुत करीब है। संघर्श जारी रखा जाना चाहिए” मोलाइस ने अपनी जनता की लड़ाई और जीत में आस्था व्यक्त करते हुए मृत्यु से थोड़ी देर पहले यह भी कहा था कि “एक दिन आएगा जब अश्वेत राज करेंगे।
क्रांतिकारी कवि मोलाइस दक्षिण अफ्रीका के मुक्ति संगठन ‘अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस’ के छापामार दस्ते ‘उम्खोंती वी सिज्वे’ के सक्रिय सदस्य थे। रंगभेद और नस्लवादी सरकार की बर्बरता से पीड़ित जनता की व्यथा और आकांक्षा को अपनी कविताओं में पिरोकर वह संघर्ष में लगे जनमानस तक पहुँचाते थे। विचारों की यही अभिव्यक्ति अल्पमत तानाशाह सरकार को खलने लगी थी। लेकिन तानाशाह सरकार को खलने लगी थी। लेकिन तानाशाह यह भूल जाते हैं कि व्यक्ति की हत्या तो की जा सकती है, विचारों की नहीं।
23 वर्ष पूर्व 1962 में नेल्सन मेण्डेला ने अदालत में कहा था, “गोरे लोग सारे कानून बनाते हैं, वे हमें अपनी अदालतों में घसीट कर लाते हैं, हमारे ऊपर आरोप मढ़ते हैं और खुद वहीं अदालतों में जज की कुर्सी पर बैठकर फैसला भी दे देते है”। दक्षिण अफ्रिका ती अदालतों में न्याय के नाम पर जो नाटक होता है, उसने तानाशाही और न्यायिक दीवालियेपन की कलई खोल कर रख दी है?
12 सितम्बर 1977 को, नस्लवादी सरकार द्वारा की गऊ स्टीव बीको की हत्या की प्रतिक्रिया पूरे विश्व में हुई थी। उसके दो महीने बाद 18 वर्षीय स्कूली छात्र म्बूतो राकी जेम्स को “जेल से भागने की कोशिश” के आरोप में गोली मार दी गई। दिसम्बर 1977 में मजुकिसी नोभादुला ने पुलिस-यातना से दम तोड़ दिया।‘अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस’ के मुखपत्र के अनुसार मार्च 1978 तक पुलिस बर्बरता के शिकार होकर मरने वालों की संख्या 50 से ऊपर पहुँच चुकी थी।
न्याय की आड़ लेकर, फाँसी द्वारा, दक्षिण अफ्रीका में राजनैतिक हत्याओं के सिलसिले की शुरूआत 6 अप्रैल 1979 को सोलोमन माहलेंगू की फाँसी से हुई। 9 जून 1983 को विश्व जनमत की परवाह न करते हुए, मोलाइस के तीन क्रांतिकारी साथियों, थेले साइमन मोगोने (23 वर्ष), जेरी सोमानी नौसोलोती (25 वर्ष) और मारबुस थावो मोतांग (27 वर्ष) को फाँसी पर चढ़ा दिया गया। और अब उसी कड़ी ने मोलाइस का नास भी जुड़ गया है। मोलाइस की फाँसी के बाद अश्वेत चेतना ने भी अक्रमण रूख अख्तियार किया है तथा सरकारी ठिकानों पर हमलों और सरकार-विरोधी दंगों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, उससे बोथा की नस्लवादी तानाशाह सरकार हिल उठी है। बोथा सरकार तानाशाही बर्बरता के खिलाफ उमड़ पड़े जनसमूह के ज्वार को दबाने के हर संभव प्रयास कर रही है। पिछले दिनों अश्वेतों, भारतीय और मिश्रित नस्ल के लोगों को आपस में लड़ने की कोशिशें हुई। भारतीय और मिश्रित नस्ल के लोगों को रियायतों के टुकड़े फेंके गए। ये रियायतें कहीं से भी बराबरी का दर्जा देने के निकट नहीं थीय़ फूट डालकर शासन करने की नीति में कुछ हद तक सफलता भी। मिली लेकिन बोथा की नस्लवादी सरकार को शायद पता नहीं है कि फूट डालकर राज करने की साजिश लंबे समय तक नही चल सकती।
उल्लेखनीय है, मोलाइस ने, ‘मोराकाथ्री’ नाम से जाने जाने वाले अपने उक्त तीनों साथियों मोगोनें, मोसोलोली और मोतांग के खिलाफ, तमाम यातनाओं के बावजूद, अदालत में बयान देने से इंकार कर दिया था। फिर भी तीनों को फाँसी दे दी गई थी। मोलाइस के ऊपर कोई भी आरोप ने होने से उन्हें, उस समय रिहा कर दिया गया था। अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेश के बयान के बावजूद, बौखलाहट में बदले की भावना के मोलाइस को दुबारा गिरफ्तार कर लिया गया और न्याय का नाटक रचकर 18 अक्तूबर 1985 को मोलाइस को भी फाँसी दे दी गई। लेखकों-कवियों तथा अन्य सर्जनात्मक रचनाकारों के दमन और उनकी रचनाओं पर प्रतिबंध लगाने का दौर द. अफ्रीका में 1960 में शार्पविले हत्याकांड से शुरू होकर, 1976 के सोवेरो विद्रोह के दौर से गुजरात हुआ, आज अपने चरम-उत्कर्ष पर पहुँच गया है। रचनाओं पर प्रतिबंध लगाने, और रचनाकारों को निवार्सित करने से शुरू होकर दमन चक्र रचनाकोरों की हत्या तक पहुँच चुका है।
टैचर और रीगन प्रशासन, दक्षिण अफ्रीका को जनता की व्यथा पर घड़ियाती आँसू बहाते रहे हैं, पर बोथा सरकार पर कोई भी प्रभावशाली प्रतिबंध लगाने को तैयार नहीं दिखते। रंगभेद और नस्लवाद को ‘अमानवीय’ मानने के बावजूद. रीगन-प्रशासन द. अफ्रिका गौरी सरकार का ही पक्ष लेता रहा है। दक्षिण अफ्रीका की समस्या के ‘शातिपूर्ण’ समाधान के प्रति अपना सरोकार जताते हुए, रीगन ने तो यहाँ तक घोषित कर दिया कि प्रीटोशिया में गोरे-काले का भेदभाव ‘खत्म’ हो गया है। अमेरिकी राजनीति में दक्षिण अफ्रीकी मसले के फिर से तूल पकड़ने से रीगन प्रशासन को समस्या पर पुनर्विचार के लिए बाध्य होना पड़ रहा है। रंग-भेद और नस्लवाद के विरोधियों को पहली बार विजय निकट दिखने लगी है। अफ्रीकी राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष ओलिवर ताम्बो ने एक बयान में कहा है, “दस साल से भी कम समय में वह दक्षिण अफ्रीका में अश्वेत बहुमत शासन की उम्मीद करते हैं”।
इंग्लैड में टैचर, अपने मानसिक और राजनैतिक दिवालिएपन का परिचय देते हुए दुनिया को यह मनवाने पर तुली हुई हैं, कि दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी अल्पमत सरकार पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने से अश्वेतों को नुकसान पहुँचेगा। टैचर की इसी हठधर्मिता और नस्लवादी मानसिकता के कारण, राष्ट्रकुल में, दक्षिण अफ्रीका की सरकार के पूर्ण प्रतिबंध का प्रस्ताव नहीं पारित हो सका। जो प्रस्ताव पारित हुआ वह बहुत लचर और प्रभावहीन है।
दक्षिण अफ्रीका की आजादी की लड़ाई में, ‘जंगे-जमीर’ के अश्वेतों के भी शामिल होने से एक नया आयाम जुड़ गया है। नस्लवाद और तानाशाह के खिलाफ अश्वेतों के संग्राम में बहुमत की जीत का गजब का विश्वास पैदा हुआ है। अश्वेत क्रांतिकारी दुमिशानी ने एक वक्तव्य में कहा – “हम बहुमत में हैं और बहुमत की अपनी ताकत को मनवा कर रहेंगे”
नई पीढी जीत के लिए आखिरी दम तक लड़ने को तैयार दिखती है। आज की लड़ाई में 12 और 13 साल के बच्चे भी शरीक है। भविष्य उन्हीं का है। दमन चक्र की कोई भी बर्बरता उन्हें आजादी के लक्ष्य के लिए लड़ने से विचलित करने में असफल हो रही है।
1960 में, शार्पजिले में 67 प्रदर्शनकारियों की पुलिस द्वारा हत्या के बाद दक्षिण अफ्रीका में जिस सशस्त्र संघर्ष की शुरुआत, नेल्सन मेण्डेला द्वारा छापामार दस्ते ‘उमखोंती वीसिज्वें’ की स्थापना से हुई थी, आज वह निर्णायक दौर में है। हथियारों के अभाव में, आधुनिकतम हथियारों से लैस पुलिस और सेना भी सशक्त हथियार बन जाते हैं।
संघर्ष में जुटे इन युवाओं के सामने आजादी के बाद समता वाले समाज की स्थापना का लक्ष्य है। ‘न्यूज वीक’ को दिए एक वक्तवय में ‘उमखोंती वी सिज्वे’ के एक युवा सदस्य ने बताया है कि उनका उद्देश्य “समान नागरिकता, समान शिक्षा और रंगभेद कानून स रहित” शासन की स्थापना है। अश्वेत बहुमत वाली सरकार का उद्देश्य “पूंजीवाद का खात्मा और समाजवाद की स्थापना” होगा। बहरहाल अब यह विश्वास पुष्ट होता दिखाई दे रहा है कि दक्षिण अफ्रीका की मुक्ति के लिए कुर्बानी देने वाले महान योध्दाओं का खुन जल्दी ही अपना रंग दिखाने वाला है और बोथा की रंगभेदी –नस्लवादी सरकार के दिन जल्दी ही लदने वाले हैं।
ईश मिश्र
युवक धारा 16 नवंबर 1985

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