जेंडर (मर्दवाद) कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही पाई (=22/7) के मान या प्रकाश की गति की तरह कोई सास्वत विचार है, जेंडर विचार नहीं, विचारधारा है जो हम नित्य-प्रति की जीवनचर्या और विमर्श में निर्मित-पुनर्निर्मित करते हैं। विचारधारा मिथ्याचेतना होती है जो एक खास मान्यता को अंतिम सत्य के रूप में प्रक्षेपित करती है। एक मिथ्या चेतना के रूप में विचारधारा उत्पीड़क को ही नहीं पीड़ित को भी प्रभावित करती है। मसलन यदि किसी लड़की को बेटा कह कर शाबासी दूं तो वह भी इसे शाबासी ही लेती है। अनजाने में ही हम दोनों विचारधारा के रूप जेंडर को पुष्ट और मजबूत करते हैं। मेरी बेटियों को कोई बेटा कहता है तो अकड़ तर कहती हैं, "एक्सक्यूज मी, आई डोन्ट टेक इट ऐज कॉम्लीमेंट"। इसीलिए स्त्री-पुरुष संबंधों में लड़की के दोष की मान्यता स्त्रियों में भी वैसे ही है जैसे पुरुषों में। न सिर्फ बलात्कारी सोचता है कि उसने लड़की को कलंकित कर दिया बल्कि बलत्कृत भी खुद को कलंकित समझती है। इसी लिए लड़ाई विचारधारा की है।
Saturday, December 29, 2018
Thursday, December 27, 2018
शिक्षा और ज्ञान 176 ( सार्वजनिक स्थान पर धार्मिक आयोजन)
सार्वजनिक पार्कों में नमाज की मनाही राजनैतिक है। जब तक सार्वजनिक पार्कों में धर्मोंमाद की नीयत से लगने वाली शाखा पर प्रतिबंध नहीं लगता तब तक किसी अन्य धर्म के कार्यक्रम (नमाज) पर प्रतिबंध स्वीकार्य नहीं है। अंग्रेजों ने स्वार्थ में शाखा को प्रोत्साहित किया, कांग्रेसी सरकारों ने बहुसंख्यक तुष्टीकरण में प्रतिबंध हटा लिया। बलात् धार्मिकता पर रोक एक प्रतिक्रांतिकारी कदम होगा। धर्म छोड़ने की मांग उन खुशफहमियों को छोड़ने की मांग है जो धर्म से मिलती है। सचमुच की खुशी मिलेगी तो खुशफहमी की जरूरत नहीं रहेगी। नास्तिकता अपने आप में कोई उद्देश्य या साध्य नहीं है, एक तर्कशील, मानवीय जीवन का साधन है, साधन ही साध्य बन जाए तो जीवन कुतर्कपूर्ण बन जाता है। सावरकर और जिन्ना दोनों नास्तिक थे। मजदूरों का खून चूसने वाले बहुत से सरमाएदार नास्तिक हैं। लोगों में वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार होगा तो आस्था की जगह तर्क स्थापित होगा। तर्क दोधारी तलवार है यह मानवता के पक्ष और विपक्ष दोनों में इस्तेमाल होता है। मार्क्स ने 1844 में 'हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा' में लिखा, " धार्मिक पीड़ा वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति के साथ ही उसके (वास्तविक पीड़ा) के विरुद्ध प्रतिरोध भी है। धर्म जपल्म के मातों की आह है, हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा है। यह लोगों की अफीम है"।
"खुशी की खुशफहमी के रूप में धर्म की समाप्ति मांग का मतलब है वासतविक खुशी की मांग। लोगों से अपने हालात की शुशमहमियां छोड़ने की मांग का मतलब है उन परिस्थितियों का खात्मा जिनमें खुशफहमी की जरूरत होती है"। .
जब इंसान को पीड़ा के कारणों का ज्ञान होगा और आत्मबल का एहसास, धर्म अनावश्यक हो अपने आप बिखर जाएगा।
Wednesday, December 26, 2018
फुटनोट 217 (मुस्लिमलीग-हिंदूमहासभा)
Rakesh Kalia भाषा की तमीज शाखा में सीखा या मां-बाप से? अंग्रेजों के कुछ दल्ले मुस्लिम रईशजादों ने अंग्रेजों की दलाली में मुस्लिम लीग बनाया और हिंदू गल्लों ने हिंदू महासभा । उपनिवेशवाद की दोनों नाजायज सरकारों का एकमात्र उद्देश्य कांग्रेस के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर करना और दंगे फैलाना था। फिर हिंदुत्व के नाम पर राष्ट्रीय आंदोलन के विरुद्ध अंग्रेजों की खुली दलाली में आरयसयस बनाया। जब राष्ट्रवादी ताकतें उपनिवेशविरोधी आंदोलन में लगी थीं तब इन दोनों फिरकापरस्त दल्लों ने बंगाल और और उत्तर प्रांत में मिली-जुली सरकार बनाई तथा आजादी की लड़ाई की धार तेज होते देख दोनों ही देशद्रोही ताकतों ने फिरकापरस्त खून-खराबा शुरू किया, लाखों लाशों पर मुल्क का अनैतिहासिक बंटवारा, अंग्रेजों के इन्ही दलालों की कमीनगियों का नतीजा था, जिसके घाव नासूर बन अब तक रिस रहे हैं। इन्ही देशद्रोहियों की वैचारिक औलादें देशभक्ति की सनद बांट रही हैं।
शिक्षा और ज्ञान 175 ( हम-तुम)
शिक्षित जाहिलों की इस मुल्क में एक प्रजाति ऐसी है जोवपूरे देश के; खास धार्मिक; जातीय या जनजातीय या ऐतिहासिक-क्षेत्रीय समुदाय की भावनाओं को किसी चमत्कारिक विधा से आत्मसात कर उनके प्रवक्ता बन अन्य समुदाय के किसी एक व्यक्ति या व्यक्तियों को पूरे समुदाय का प्रवक्ता बना सवाल-जवाब करते हैं। ऐसे ही एक सज्जन ने एक मुसलमान नामधारी व्यक्ति को संबोधित कर बोले कि 'दम तुम लोगों का सम्मान करते हैं और तुमलोग बकचोदी पेलते हो। एक बार एक हिंदुत्ववादी बड़े भाई अपने वामपंथी छोटे भाई से मुसलमानों की किसी प्रवृत्ति के बारे में बता रहे थे। उसने पूछा कि क्या वे सभी भाई एक से हैं? और कहा कि जब एक ही माहौल में पैदा हुए-बढ़े दो सगे भाई एक से नहीं हो सकते तो आप करोड़ों-लाखों लोगों को एक ही प्रवृत्ति की कोटि में कैसे बंद कर सकते हैं? ऐसे ही एक सज्जन ने एक मसलमान नामधारी को कहा कि वे उन लोगों की बहुत सम्मान करते हैं फिर भी वे लोग बकचोदी करते हैं, उस पर:
Peeyush Pandey ये तुम लोग कौन हैं और तुम लोग कौन हो?
किसका तुम सम्मान करतो हो कौन बकचोदी पेलता है?
तुम अपने सारे भाइयों के बदले बोल सकते हो?
पैतृक संपत्ति की हिस्सेदारी में उनके पिछवाड़े लाठी ठेल सकते हो
अपने सगे भाई के जब नहीं हो तो करोड़ों हिंदुओं के प्रवक्ता हो सकते हो?
पहले तो ये बताओ पांड़े जी तुम बाभन हो कि हिंदू?
तुम अगर हिंदू हो तो चमार कौन है?
है अगर हिंदू चमार भी, अपनी बहन क्या उससे व्याह सकते हो?
होते नहीं जब दो सगे भाई एक से करोड़ों को एक कोष्ठ में क्या ठेल सकते हो?
पहले बाभन से इंसान बनो, इंसानियत की बात तभी कर सकते हो।
Saturday, December 22, 2018
मार्क्सवाद 164 ( फासीवाद और कम्युनिस्ट)
यहां की कम्युनिस्ट पार्टियों के नेतृत्व का चरित्र हमेशा अकम्युनिस्ट ही रहा, तात्कालिक समझौते दीर्घकालिक और स्थाई हो गया। चुनाव में शिरकत क्रांतिकारी चेतना के विस्तार के लिए रणनीतिक तौर पर अपनाया गया लेकिन वही इनका स्थाई भाव बन गया। कालांतर में (खासकर 1967 के संविद सरकारों के प्रयोग के बाद) सीपीआई तथा सीपीयम और अन्य चुनावी पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया। वर्ग संघर्ष और आत्मालोचना की तस्वीरें टांगकर उनपर फूल मालाचढ़ा दिया गया। नंदीग्राम सिंगूर कॉफिन की अंतिम कीलें साबित हुईं। आज हमारे पास फासीवाद से लड़ने के लिए सांप्रदायिकता और विश्वबैंक की दलाली में भाजपा की प्रतिस्पर्धी कांग्रेस के समर्थन के अलावा कोई रास्ता नहीं है। वैसे भीराजनैतिक रूप से अप्रासंगिक हो चुकी इन पार्टियों के समर्थन-विरोध का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। फिलहाल कॉ. अरुण माहेश्वरी जी से सहमत हूं कि फासीवाद से मुक्ति के लिए फौरी इलाज कांग्रेस के नेतृत्व में अन्य कॉरपोरेटी पार्टियों के गठबंधन का समर्थन ही चुनावी रास्ता है। दूरगामी लक्ष्य जनांदोलनों के जरिए सामाजिक चेतना का जनवादीकरण है, जिसकी ताकतें भविष्य के गर्भ में हैं, मौजूदा पार्टियों से जिसकी उम्मीद नहीं है।
Friday, December 21, 2018
शिक्षा और ज्ञान 174 (वेद)
Rajpal Kaushik आपने शायद वेद पढ़ा नहीं है। अपने देश-काल के हिसाब से एक पशुपालक-चरवाहे समुदाय द्वारा ऋगवेद की ऋचाओं की रचना अद्भुत है जो श्रुति ज्ञान के रूप में पीढी-दर-पीढ़ी चलती आई और ईशापूर्व 6ठीं शताब्दी के बाद लिपिबद्ध होना शुरू हुई क्योंकि तब तक हमारे वैदिक पूर्वजों को लिपिज्ञान नहीं था। ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है। हर अगली पीढ़ी सामान्यरूप से तेजतर होती है, पिछली पीढ़ियों के ज्ञान को समेकित कर आगे बढ़ाती है, तभी हम पाषाणयुग से साइबरयुग तक पहुंचे हैं। मस्तिष्क के क्रमिक विकास के नियम और एक्सपोजर की सीमाओं के कारण हमारे पाषाणयुगीन या पशुपालन-चरवाही कालीन पूर्वज अपनी भविष्य की पीढ़ियों से अधिक बुद्धिमान नहीं हो सकते, यह एक ऐतिहासिक यथार्थ है, इसमें अहंकार की कोई बात नहीं है। आप अपने और अपने दादाजी की समाजिक चेतना के स्तर की तुलना कीजिए। क्या आपके दादा जी किसी दलित के साथ उसी पांत में बैठकर खा सकते थे? क्या आप उन्ही की तरह सार्वजनित रूप से दलित के साथ पांत में बैठने से मना कर सकते हैं? वैदिक साहित्य के कितने भी विंदुओं पर शोध क्यों न हों, हर रचना अपने समय को ही प्रतिबिंबित करती है।
मोदी विमर्श 105 (हनुमान की जाति)
मिथकीय महाकाव्य रामायण के एक वानर पात्र की जाति को लेकर भाजपा नेताओं में विवाद छिड़ गया है, कोई कह रहा है वह दलित है तो कोई उसे जाट बता रहा है तो कोई मुसलमान। अंबेडकरनगर के पांडेय सांसद को लगा कि लोगों की जातिनिर्धारण का काम पार्टी की अब्राह्मण जातियां कैसे कर सकती हैं तो उन्होंने तुरंत वानरदेव को ब्रह्मण घोशित कर दिया, सुग्रीव को कुर्मी और बालि को अहिर। इसीलिए तो कहता हूं कि हिंदू तो कोई होता ही नहीं, कोई चमार होता है कोई बाभन। चौपाए देवताओं को भी संघियों ने जातियों में बांट दिया है ।
Tuesday, December 18, 2018
शिक्षा और ज्ञान 172 (वेद)
मैं वेद विरोधी नहीं हूं, वेद को अपने समतामूलक, पशुपालक-चरवाहे ऋगवैदिक पूर्वजों की अमूल्य विरासत मानता हूं। बिना पढ़े उसे सब ज्ञान का श्रोत मानने वाले ब्राह्मणवादी पोंगापंथियों का विरोधी हूं। चरवाही युग के हमारे पूर्वज हमसे ज्यादा बुद्धिमान नहीं हो सकते। ज्ञान निरंतर प्रक्रिया है, पोंगापंथी ताकतें अतीत में महानताओं के अन्वेषण के प्रपंच से भविष्य के खिलाफ, जानबूझकर भी लेकिन अक्सर अनजाने में, जहालत के प्रसार की साजिश करते हैं। ज्ञान-विज्ञान में भारत की अधोगति अब हिंदुत्व का चोला पहन चुकी इसी ब्राह्मणवादी साजिश का नतीजा है।
Monday, December 10, 2018
मार्क्सवाद 163 (नास्तिक)
सांप्रदायिकता और जातिवाद के उन्मूलन के लिए जरू,री है वैज्ञानिक शिक्षा, मनुष्यता की दीक्षा। नास्तिकता किसी के अच्छे इंसान होने की गारंटी नहीं है, बल्कि यदि कोई नास्तिक स्व के स्वार्थबोध को स्व के परमार्थबोध पर तरजीह देता है तो समाज के लिए आस्तिक से भी खतरनाक हो जाता है।
Tuesday, December 4, 2018
अंडमान
पोर्टब्लेयर
28.11.2018
अंडमान की एक झलक
पहली किश्त
मिडिल स्कूल में
भूगोल की किताब में और ग्लोब पर, भारत के नक्शे में मुख्यभूमि (मेनलैंड) के पीछे
समुद्र में अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह नामक, बड़ी-छोटी और बहुत छोटी, अनियमित
ज्यमितीय आकृतियों की टेढ़ी-मेढ़ी रेखा मुझे हमेशा रोचक लगती थी। इस छोटी सी रेखा
को अगर एक विंदु मान लिया जाए तो वह कलकत्ता और मद्रास बिंदुओं के साथ, लगभग
समद्विभुजीव, समकोण त्रिभुज पर है। नौकरी में आखिरी से पहले वाली यलटीसी पोर्ट ब्लेयर में तमिलों और बंगालियों की ही
बहुतायत है, वैसे तो बन स्कूल दिनों से ही अंडमान द्वीप समूह के बारे में जानने की
उत्सुकता थी। नौकरी समाप्त होने के पहले आखिरी के पहले वाले यलटीसी सुविधा का
उपयोग अंडमान यात्रा में किया।
50-60 हजार पहले से आबाद द्वीपों की जानकारी द्वीपों
की खोज की कहानी वैसी ही है जैसे भूगोल के गड़बड़ जानकारी वाले स्पेनी नाविक
कोलंबस द्वारा हजारों सालों से आबाद और विकसित अमेरिकी महाद्वीपों और कैरिबियाई
द्वीपों समेत उनके द्वीपों की खोज की। अंग्रेज जब यहां पहुंचे तो उन्होंने
प्राकृतिक संपदा से समृद्ध यहां के मूल निवासियों और उनकी संस्कृति के साथ वैसा ही
विनाशकारी खेल खेला जैसा उन्होंने अमेरिकी महद्वीपों साथ किया था। जिस तरह
कैरिबियाई द्वीपों में वहां के संसाधनों के दोहन के लिए वहां गुलाम तथा उपनिवोशों
से बंधुआ मजदूर लाए गए, वैसे ही इन द्वीपों के संसाधनों के दोहन के लिए बंगाल, तमिलनाडु
आदि जगहों से यहां मजदूर लाए गए जिनमें से ज्यादातक के वंशज यहीं बस गए। 1947 के
बाद सिलुलर जेल (काला पानी) से मुक्त कैदियों में यहां बसने के इच्छुक कैदियों को
भी जमीन दी गयी। लकड़ी काटने और ढोनों के लिए अंग्रज झारखंड से मजदूर लेकर आए थे।
उनके वंशज भी यगीं बस गए। ऐंथ्रोपॉलिजिकल संग्रहालय से प्राप्त सूचना के अनुसार
पोर्टब्लेयर की आबादी में 23% बंगाली, 19% तमिल; 5% झारखंडी तथा बाकी अन्य
राष्ट्रीयताओं के लोग हैं।
दूसरी किश्त
17
विश्वविद्यालय मार्ग, दिल्ली 110007
03.12.2018
भारतीय नौसेना
नियंत्रित छोटे से पोर्ट-ब्लेयर हवाई अड्डे से निकलते ही नीरज से मुलाकात हुई,
जिन्होंने अपना परिचय हमारे टूर मैनेजर के रूप में दिया। इनके साथ ही एक और
स्मार्ट लड़का था जमीर, ड्रावर। जमीर के परदादा 1947 में सेलुलर जेल से छूटे कैदी
थे। नीरज को सही सही नहीं याद है कि उनके किस पीढ़ी के पूर्वज बंगाल से कैसे पोर्टब्लेयर
आए। दोनों का ही क्रमशः बंगाली या तमिल की बजाय अपनी अंडमानी पहचान पर जोर था।
यहां संपर्क भाषा हिंदी है। एयरपोर्ट से होटल का रास्ता मुश्किल से 15-20 मिनट का
होगा। चौराहे पर गांधी की मूर्ति वाली मुख्य बाजार से थोड़ी ही दूर स्थित यह
मलयाली बाहुल्य इलाका है। शहर पहाड़ पर बसा है और सड़कें नारियल, सुपाड़ी, आम एवं
अन्य पेड़ों की हरियाली से आच्छादित हैं।
नाश्ते के बाद जमीर
के साथ हम पहले दिन के पर्यटन पर निकल पड़े। पहला और सूचनाप्रद पड़ाव
एंथ्रोपॉलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया (एयसआई) का संग्रहालय था। मूलनिवासियों की
जीवनशैली के नमूने और विवरण अत्यंत सूचनाप्रद हैं। द्वीपसमूह पर उपनिवेशीकरण के
चरणों के भी कुछ विवरण हैं, अधिक नहीं। महान अंडमानी जनजाति द्वारा उपनिवेशीकरण का
सशस्त्र प्रतिरोध लगभग उसी समय अमेरिका में अरिजोना घाटी के मूलनिवासियों के
सशस्त्र प्रतिरोध की याद दिलाता है तथा औपनिवेशिक बर्बरता की भी। (डी ब्राउन की
पुस्तक, बरी माई हर्ट ऐट वुंडेज नी में इसका सचित्र सा वर्णन है।) दोनों
में ही मुकाबला तीर-धनुष और बंदूक में था। मार्क्स के शब्दों में भारत
का स्वतंत्रता संग्राम, 1857 की सशस्त्र किसान क्रांति को सिंधिया जैसे
गद्दार रजवाड़ों की मदद से कुचलने के बाद औपनिवेशिक शासकों के पास युद्धबंदियों के रूप में कैदियों की संख्या काफी
थी। अंडमान के द्वीप उनकेलिए कैदखाने बन गए। उसके बाद हम सेलुलर जेल पहुंचे। टिकट
की लाइन लंबी नहीं थी। ज्यादातर पर्यटक
भारतीय ही थे। परिसर के बाहर से भवन तथा उसका आर्टिटेक्चर सुंदर लगा। वृत्त की
त्रिज्याओं की आकृति में बने बहुत से
तीनतल्ला विंग हैं। वहां से अगले पड़ाव रोस्स द्वीप के निकलते समय जेल के
पिछवाड़े बने जीबी पंत मेडिकल कॉलेज दिखाकर बताया कि जेल के कई विंग उसको समर्पित
हो गए। ऊपर रोशनदान के साथ 15X10 फुट के एकाकी (सॉलिटरी)
कोठरियां देखकर जो बात दिमाग में आई वह थी, भारतीय जेलों के मौजूदा जेलों की
अमानवीय हद तक दयनीय हाल। एक विंग
में दूसरी मंजिल की सबसे कोने की कोठरी में सावरकर को रखा गया था। लगभग हर पर्यटक
उल कोठरी तक जाता है। इसी कोठरी के कष्टों के चलते 1907 में, 1957 की किसान
क्रांति के 50वें वर्ष के उपलक्ष्य में लिखी अपनी पुस्तक भारत का प्रथम
स्वतंत्रता संग्राम में कौमी एकता तथा सामासिक संस्कृति के प्रशंसक,
प्रखर उपनिवेशवाद-विरोधी देशभक्त विनायक दामोदर सावरकर का कायाकल्प हो गया। वे
उपनिवेशविरोधी राष्ट्रवाद के विकास को बाधित करने के लिए हिंदुत्व राष्ट्रवाद का
सिद्धांत देकर अंग्रेजों की बांटो-राज करो नीति का एक हथियार निर्मित किया। कष्ट
लगता है जज्बाती विद्रोहियों को वफादार बना देती होगी। सावरकर की राजनैतिक यात्रा
की चर्चा की गुंजाइश नहीं है।
हमारा अगला नियोजित
पड़ाव कार्बिन कैंडी बीच था। सेलुलर जेल से हरे-भरे पहाड़ी पहाड़ी सडडक से जल्दी
ही हम कार्बन बीच पहुंच गए। दो तरफ से हरे पहाड़ों से घिरे बीच; वाटर स्पोर्ट्
खेलते लड़के-लड़कियां; बच्चों के साथ किनारे उथले पानी में सेल्फी और फोटो खीचते
पर्यटक – मनोरम दृश्य था। लगभग 2 घंटे बीच पर बिताने के बाद होटल पहुंचने के पहले
सेलुलर जेल में लाइट एंड साउंड कार्यक्रम था।
जारी................
Monday, December 3, 2018
भक्तिभाव की क्रूरता
भक्त विवेकशून्य तो होता ही है
क्रूर भी होता है
पिता की भक्ति में
परसुराम अपनी मां की हत्या कर देता है
राम पिता की भक्ति में
बिना शर्त अंध आज्ञाकारिता में
वनवासी बन जाता है
एक लड़की के प्रणय-निवेदन करने पर
उसके नाक-कान काट लेता है
छिपकर अकारण बलि की हत्या करता है
और लंका में भीषण नरसंहार मचाता है
धोखे से रावण की हत्या कर
सीता की अग्नि परीक्षा रचाता है।
वर्णाश्रमी मर्दवाद की भक्ति में
गर्भवती पत्नी को घर से निकाल देता है
और ब्राह्मणवादी भक्तिभाव में
ऋषि संबूक की हत्या कर देता है।
माता-पिता की भक्ति में
श्रवण कुमार जीवन उन्हे कंधे पर ढोने में नष्ट कर देता है
अपना जीवन जिए बिना दशरथ के हाथों मारा जाता है।
भक्तिभाव आस्था की वेदी पर
विवेक की बलि चढ़ाता है
मनुष्योचित विवेकभाव को छोड़
वापस पशुकुल में चला जाता है।
(ईमि: 04.12.2018)
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