Rajpal Kaushik आपने शायद वेद पढ़ा नहीं है। अपने देश-काल के हिसाब से एक पशुपालक-चरवाहे समुदाय द्वारा ऋगवेद की ऋचाओं की रचना अद्भुत है जो श्रुति ज्ञान के रूप में पीढी-दर-पीढ़ी चलती आई और ईशापूर्व 6ठीं शताब्दी के बाद लिपिबद्ध होना शुरू हुई क्योंकि तब तक हमारे वैदिक पूर्वजों को लिपिज्ञान नहीं था। ज्ञान एक निरंतर प्रक्रिया है। हर अगली पीढ़ी सामान्यरूप से तेजतर होती है, पिछली पीढ़ियों के ज्ञान को समेकित कर आगे बढ़ाती है, तभी हम पाषाणयुग से साइबरयुग तक पहुंचे हैं। मस्तिष्क के क्रमिक विकास के नियम और एक्सपोजर की सीमाओं के कारण हमारे पाषाणयुगीन या पशुपालन-चरवाही कालीन पूर्वज अपनी भविष्य की पीढ़ियों से अधिक बुद्धिमान नहीं हो सकते, यह एक ऐतिहासिक यथार्थ है, इसमें अहंकार की कोई बात नहीं है। आप अपने और अपने दादाजी की समाजिक चेतना के स्तर की तुलना कीजिए। क्या आपके दादा जी किसी दलित के साथ उसी पांत में बैठकर खा सकते थे? क्या आप उन्ही की तरह सार्वजनित रूप से दलित के साथ पांत में बैठने से मना कर सकते हैं? वैदिक साहित्य के कितने भी विंदुओं पर शोध क्यों न हों, हर रचना अपने समय को ही प्रतिबिंबित करती है।
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