सार्वजनिक पार्कों में नमाज की मनाही राजनैतिक है। जब तक सार्वजनिक पार्कों में धर्मोंमाद की नीयत से लगने वाली शाखा पर प्रतिबंध नहीं लगता तब तक किसी अन्य धर्म के कार्यक्रम (नमाज) पर प्रतिबंध स्वीकार्य नहीं है। अंग्रेजों ने स्वार्थ में शाखा को प्रोत्साहित किया, कांग्रेसी सरकारों ने बहुसंख्यक तुष्टीकरण में प्रतिबंध हटा लिया। बलात् धार्मिकता पर रोक एक प्रतिक्रांतिकारी कदम होगा। धर्म छोड़ने की मांग उन खुशफहमियों को छोड़ने की मांग है जो धर्म से मिलती है। सचमुच की खुशी मिलेगी तो खुशफहमी की जरूरत नहीं रहेगी। नास्तिकता अपने आप में कोई उद्देश्य या साध्य नहीं है, एक तर्कशील, मानवीय जीवन का साधन है, साधन ही साध्य बन जाए तो जीवन कुतर्कपूर्ण बन जाता है। सावरकर और जिन्ना दोनों नास्तिक थे। मजदूरों का खून चूसने वाले बहुत से सरमाएदार नास्तिक हैं। लोगों में वैज्ञानिक शिक्षा का प्रसार होगा तो आस्था की जगह तर्क स्थापित होगा। तर्क दोधारी तलवार है यह मानवता के पक्ष और विपक्ष दोनों में इस्तेमाल होता है। मार्क्स ने 1844 में 'हेगेल के अधिकार के दर्शन की समीक्षा' में लिखा, " धार्मिक पीड़ा वास्तविक पीड़ा की अभिव्यक्ति के साथ ही उसके (वास्तविक पीड़ा) के विरुद्ध प्रतिरोध भी है। धर्म जपल्म के मातों की आह है, हृदयविहीन दुनिया का हृदय है, आत्माविहीन परिस्थितियों की आत्मा है। यह लोगों की अफीम है"।
"खुशी की खुशफहमी के रूप में धर्म की समाप्ति मांग का मतलब है वासतविक खुशी की मांग। लोगों से अपने हालात की शुशमहमियां छोड़ने की मांग का मतलब है उन परिस्थितियों का खात्मा जिनमें खुशफहमी की जरूरत होती है"। .
जब इंसान को पीड़ा के कारणों का ज्ञान होगा और आत्मबल का एहसास, धर्म अनावश्यक हो अपने आप बिखर जाएगा।
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