Monday, August 27, 2018

समीर अमीन




मार्क्सवाद के एक योद्धा का निधन
ईश मिश्र
“विशिष्ट संघर्षों से आंशिक जागरूकता पैदा होती है ...। इन विशिष्ट किस्म की जागरूकताओं के विकास तथा समागम से पूंजीवाद के विनाश के नए नियमों के प्रतिपादन की संभावनें पैदा होंगी। लेकिन यह उन्नत जागरूकता पूंजीवादी संचय की जरूरतों के बदले हुए संस्करणों में ढलने से नहीं, न जरूरतों के खात्मे से आएगी। आंदोलन के ज्यादा जागरूक तपके दूसरों के प्रति तिरस्कार दिखाने की बजाय उन्हें दूसरों की समझ बढ़ाने के लिए सभी आंदोलनों में शिरकत करना चाहिए”
n  समीर अमीन, ‘रीडिंग कैपिटल, रीडिंग हिस्टोरिकल कैपिटलिज्म’ (मंथली रिविव, जुलाई-अगस्त, 2016)

12 अगस्त 2018 को मानव मुक्ति के लिए तीसरी दुनिया की मुक्ति को आवश्यक शर्त मानने वाला, मार्क्सवादी दुनिया का एक चमकता सितारा अस्त हो गया। एंटोनियो ग्राम्सी की ही तरह मार्क्सवाद को नए आयाम देने वाले तथा जनवादी दुनिया के सपने के आशाद्वीप समीर अमीन ने ऐसे समय दुनिया को अलविदा कह दिया जब उनकी बेइम्तहां जरूरत थी। लेकिन वे आने वाली पीढ़ियों के लिए समृद्ध विरासत छोड़ते हुए, मानवमुक्ति के इतिहास में अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी निभा कर गये। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का नियम है कि जिसका भी वजूद है, उसका अंत निश्चित है। महत्त्वपूर्ण है वजूद की सार्थकता। और उनका वजूद जनवाद को आजीवन समर्पित रहा। 1931 में मिस्र में जन्मे समीर अमीन ने मार्क्सवाद में एक नया आयाम जोड़ते हुए यूरोकेंद्रीयता पर आधारित निर्भरता का सिद्धांत प्रतिपादित कर बौद्धिक जगत में तहलका मचा दिया था। मिस्र की राजधानी कायरो में फ्रेंच पद्धति की स्कूली शिक्षा के बाद उच्चशिक्षा के लिए फ्रांस चले गए फ्रांस की कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ गए। लेकिन शीघ्र ही सोवियत संघ के नेतृत्व वाले मार्क्सवाद से उनका मोहभंग होने लगा और वे पार्टी से अलग हो गए तथा उनकी रुझान माओ के विचारों की तरफ होने लगी। राजनैतिक अर्थशास्त्र पर पीयचडी की थेसिस लिखते वक्त वे फ्रांस में कम्युनिस्ट आंदोलन में सक्रिय थे। निर्भरता सिद्धांत के अन्य विद्वानों की तरह उन्होंने भी तीसरी दुनिया के देशों की दुर्दशा का कारण औपनिवेशिक लूट को बताया जो उपनिवेशवाद के खात्मे के बाद भी आर्थिक साम्राज्यवाद के रूप में जारी है। वे भूमंडलीय पूंजी की बेरहम लूट के चलते वे दुनिया की दुर्दशा से दुखी तो थे लेकिन भविष्य की  संभावनाओं के प्रति आशावान भी।

1952 में अब्देल नासिर ने मिश्र का ब्रिटिश समर्थित राजशाही के विरुद्ध तख्तापलट कर सत्ता पर काबिज हुए तथा गुटनिरपेक्ष आंदोलन में शामिल हुए। समीर अमीन पीयचडी लमाप्त पर कायरो वापस आकर नासिर के इंस्टीट्यूट ऑफ इकॉनॉमिक मैनेजमेंट से जुड़ गए (1957-60) और फिर नए बने अफ्रीकी देश माले के योजना मंत्रालय के सलाहकार (1960-63) रहे। उनके दिलोदिमाग पर अपने देश मिश्र तथा अन्य अफ्रीकी देशों के विकास का मुद्दा सदा हावी रहा। 1963 से 1970 तक वे डकार स्थित अफ्रीकन आर्थिक विकास संस्थान के प्रमुख के रूप में काम किया तथा साथ-साथ पेरिस और डकार विश्वविद्यालयों में शिक्षण भी करते रहे। बाद में वे थर्ड वर्ल्ड फोरम के निदेशक बने और आजीवन यह जिम्मेदारी सम्हाले रहे।

1960 के दशक में आई उनकी पहली पुस्तक अफ्रीकी देशों माली, गिनी और घना के नियोजित विकास के अनुभवों पर आधारित है। विश्व पूंजीवाद की असमान व्यवस्था के चलते सबल देश मुनाफा कमाते हैं और तीसरी दुनिया के कमजोर देश गरीबी। 1970 में छपी उनकी प्रमुख किताब विश्वस्तर पर पूंजी-संचय (अकुमुलेसन ऑफ कैपिटल ऑन अ वर्ल्ड स्केल) की स्थापनाओं ने उन्हें निर्भरता सिद्धांत की अगली पंक्ति में खड़ा कर दिया। विश्वबैंक और आईयमयफ के माध्यम से अमेरिका के नेतृत्व में साम्राज्यूमंडलीय पूंजी द्वारा थोपे गए विकास मॉडल के चलते तीसरी दुनिया के देशों का आर्थिक समुचित आर्थिक विकास नहीं हो सकता। निर्भरता सिद्धांत के अन्य सिद्धांतकारों की ही तरह समीर अमीन का भी मानना था कि विकसित पूंजीवादी देश केंद्र के रूप में  पूर्वउपनिवेशों, परिधि के देशों का तमाम तरीके से ऐसा शोषण करते हैं कि विश्व के मौजूदा पूंजीवादी ढांचे में वे अविकसित रहने को अभिशप्त हैं। उनका विकास इस पूंजीवादी ढांचे के विनाश से ही संभव है। इस पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों के माध्यम से स्थापित किया गया है कि उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद भी साम्रज्यवादी रेंट के रूप में परिधि देशों के संसाधनों प्रवाह की धुरी देशों (पूर्वउपनिवेशवादी) की तरफ जारी है। 1985 में छपी असंबद्धता: एक बहुकेद्रीय दुनिया के पक्ष में (डिलिंकिंग: टुवर्ड्स अ पॉलीसेंट्रिक वर्ल्ड) में वे धुरी देशों के विकास एजेंडा और दबाव से मुक्ति पाने की अपील करते हैं।

सोवियत संघ के पतन के बाद की दुनिया में अमेरिका अकेला महाशक्ति बन गया। इस दुनिया को उन्होंने अराजकता का साम्राज्य (एंपायर ऑफ केओस) (1992) की संज्ञा दी। इसमें इन्होने भविष्यवाणी की थी कि पूंजीवाद के इस नए कालखंड में गरीबी, श्रम की अनिश्चितता (बेरोजगारी तथा दयनीय दर की मजदूरी) बढ़ेगी; कृषि का सत्यानाश होगा; और धर्म की राजनीति का खतरा बढ़ेगा। दो दशक बाद जब फिर उन्होंने इस विषय पर कनम चलाया तो समकालीन पूंजीवाद की विविधता (इम्प्लेजसीन ऑफ कंटेम्पोरेरी कैपिटलिज्म) (2013) तो अपनी भविष्यवाणी तथ्यात्मक रूप सो शब्दशः सही पाया। व्यापारी वैतनिक नौकर बन गया और मीडियाकर्मी नए पुजारी। भूंमंडलीय कॉरपोरेट घरानों ने वित्तीय वर्चस्व से आमजन के आजीविका की तलाश में दर-दर भटकने की स्थिति बनाकर ऐसा आलम पैदा कर दिया है कि मानवता ही खतरे में पड़ गयी है। लेकिन अमीन विल्पहीनता का रोना नहीं रोते बल्कि ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांतो पर समाजवादी विकल्प के प्रति हमेशा आशावान रहे। द्वंद्वात्मक भौतिवाद का नियम है कि जिसका भी अस्तित्व है, उसका अंत भी निश्चित है, पूंजीवाद इसका अपवाद नहीं है।  

समीर अमीन बहुध्रुवीय दुनिया के पक्षधर थे। 2006 में अमेरिकी वर्चस्व से परे? बहुध्रुवीय विश्व की संभावनाओं का मूल्यांकन (बियांड यूयस हेजेमनी) में वे लिखते हैं. “मैं एक बहुध्रुवीय दुनिया का पक्षधर हूं, जिसक सीधा अर्थ है पृथ्वी के सैन्य-नियंत्रण की वाशिंगटन की वर्चस्ववादी परियोजना की पराजय”। इसके लिए उन्होंने तरकीब भी पेश की। अमेरिकी सैनिक चुनौती के लिए पेरिस, वर्लिन, मॉस्को, चीन, भारत आदि देशों के बीच एक सामरिक गठजोड़ की हिमायत करते हुए कहते हैं, “अमेरिकी चुनौती तथा वाशिंगटन के आपराधिक मंसूबों के चलते यह जरूरी हो गया है। .......  वर्चस्ववाद के खिलाफ ऐसे मोर्चे का निर्माण आज उतना ही जरूरी है, जितना कल नाजीवाद के खिलाफ था। .... ऐसा मोर्चा जरूरी तथा संभव है। इसीसे पृथ्वी पर वर्चस्व की मुनरो योजना के पराजित किया जा सकता है”।

धर्म के राजनैतिक प्रयोग को भी वे जनतंत्र के लिए खतरा मानते हैं। इसके लिए वे मिश्र में मुस्लिम ब्रदरहुड की मिशाल देते हैं, जो संस्कृति को धार्मिक पहचान का पर्याय मानता हैं। संसद ये ऐसे प्रतिक्रियावादी नियमों का समर्थन करते हैं जो धनवानों हित में हैं और किसानों के हितों के विरुद्ध। पाकिस्तान और सउदी अरबिया के पूंजीपतियों का भी राजनैतिक इस्लाम का समर्थन करता है। हम देख रहे हैं भारत में धर्म के राजनैतिक इस्तेमाल ने आमजन के नजरिए से देश को आर्थिक अस्ताचल में पहुंचा दिया है तथा कॉरपोरेट घरानों को मालामाल कर दिया है और सामाजिक विघटन के कगार पर खड़ा कर दिया है। 

समीर अमीन खुद को ‘जुझारू बुद्धिजीवी’ (मिलिटेंट इंटेलेक्चुअल) मानते थे। मार्क्सवाद के इस योद्धा को सच्ची श्रद्धांदलि अमेरिकी वर्चस्व और धार्मिकता (सांप्रदायिकता) के विरुद्ध संघर्षों को शक्तिशाली बनाने के संकल्प से दी जानी चाहिए। उम्मीद है कि एक शोषण और वर्चस्वविहीन समाज के उनके सपने को अगली पीढ़ियां साकार करेंगी। कॉमरेड समीर अमीन को लाल, लाल, लाल सलाम।
27.08.2018 







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