Wednesday, August 22, 2018

मार्क्सवाद 147 (जयभीम-लालसलाम)

Aridaman Singh Chauhan बिल्कुल बन सकते हैं, हर शख्स के अंदर क्रांतिकारी संभावनाएं होती हैं। लेकिन अपने आप संभावनाएं हकीकत में नहीं नहीं बदलतीं। न्यूटन का गति का नियम है कि अपने आप कुछ नहीं होता। संभावनाओं को सायास, कठिन आत्मसंघर्ष से सक्रिय करना होता है, जिसकी आवश्यक शर्त है निष्ठुर आत्मालोचना, जो मुश्किल तो है किंतु सुखद। इसके जन्म के संयोग से मिली अस्मिता की सामाजिक चेतना के जाल को काटकर विवेक सम्मत इंसानी अस्मिता के निर्माण की जरूरत किसी भी ज्ञान की कुंजी है, सवाल-दर सवाल और जवाब-दर-जवाब। वही जवाब सही है जिसका हो प्रमाण। सवाल की कड़ी की शुरुआत अपने आप से होती है। जय भीम नारा सामाजिक अन्याय से मुक्ति का नारा है और लाल सलाम आर्थिक अन्याय से। दोनों अन्यायों में एकता है तथा दोनों एक दूसरे के संबल देते हैं। चूंकि अन्याय एकजुट हैं तो संघर्षों को भी एकजुट होना पड़ेगा। जिन वर्गों का आर्थिक संसाधनों का वर्चस्व होता है सामाजिक वर्चस्व भी उन्हीं का होता है। लाल सलाम और जयभीम दोनों नारों से अपनी नफरत के कारणों पर गंभीरता से विचार कीजिए। मेरे बचपन में दलित प्रज्ञा तथा दावेदारी की गति त्वरित नहीं थी इसलिए जयभीम नारा उतना प्रचलित नहीं था। लाल सलाम से मुझे भी एक ब्राह्मण बालक होने के नाते, अकारण ही नफरत थी। जानता भी नहीं था कि लाल सलाम होता क्या है? ऐसी नफरत मिथ्या सामाजिक चेतना का परिणाम होता है। उस पर सवाल करने से कारण का पता लगता है। नफरत से फासीवाद आता है प्यार से इंकिलाब।

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