उ.प्र. मे भाजपा की जीत का श्रेय मुलायम और अखिलेश जैसे जाहिल-अपराधियों को ही जाता है, ये अगर अहीरों की गुंडागर्दी रोक देते और मुजफ्फरनगर में मोदी के सहयोगी न बन दंगे रोकते सैफई में सामंती उत्सव की बजाय, तो यूपी में उनकी लुटिया न डूबती, अखिलेश-मुलायम भी एक तरह के बजरंगी लंपटों के ही मुखिया हैं. मुलायमी गुंडागर्दी की बजाय अब बजरंगी गुंडागर्दी चल रही है. मुलायम-अखिलेश उतने ही कॉरपोरेटी दलाल हैं जितने मोदी-योगी.
Wednesday, May 31, 2017
Footnote 5 (marriage)
Lyudmila Fedchenko No condolences needed, we are happy couple with 2 grown grown up pit (teenage marriages) sounds terrible in the 2nd decade of the 21st century but was considered to be a norm in the mid 20th century in India, particularly rural India. Colonial rule had left India, de-industrialized, uneducated and pauperized. Karl Marx had thought that colonial rule in order to capitalize the country, would break the 'Asiatic mode' but contrary to his expectation it used that for plundering the country's resources. I am the first generation learner in the modern education and had just appeared in my 12th standard examination. At that age (17 minus) too I strongly protested against it but eventually succumbed to social pressure. The marriage was not my choice, but without knowing the person I was going to be married, living the marriage was my choice. If two people are victims of some social custom/evil, one co-victim must not further victimize the more co-victim and in patriarchy, the woman is more co-victim. This was the answer given to a fellow student, 37 years ago, I was living as a married 'bachelor'. She, a "feminist", was suggesting that as mine was a child marriage, I could get an easy divorce. One has to derive a balance between one's social conscientiousness and rights to the freedom of desires, including the desire to be in love. And every person, married or unmarried has right to be in love as long as there is no breach of trust and use of force. Family, the rule of man over women and children is means to maintain patriarchy. But then, as Marx writes in the 18th Brumaire of Louie Bonaparte, "Men make their own history, but they do not make it as they please; they do not make it under self-selected circumstances, but under circumstances existing already, given and transmitted from the past."
Tuesday, May 30, 2017
समाजवाद 4
रूसी
क्रांति की शताब्दी वर्ष के अवसर पर
समाजवाद
पर लेखमाला: (भाग 4)
समाजवाद के
विभिन्न परिप्रेक्ष्य
मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीयता की
दिशा में
ईश मिश्र
बढ़ते विश्वबाजार के संदर्भ में मार्क्स ने पूंजी के भूमंडलीय
चरित्र को उजागर किया। धरती के चप्पे-चप्पे पर इसकी पहुंच होनी चाहिए। इसका कोई
देश नहीं है, न तो श्रोत के अर्थों में और न ही निवेश के। जैसा कि मार्क्स ने कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में स्पष्ट
किया है कि आधुनिक राज्य पूंजीपतियों के सामान्य मसलों की कार्यकारिणी समिति है और
राष्ट्रवाद इसकी विचारधारा। जिस तरह पूंजी का कोई देश-धर्म नहीं होता उसी तरह
मजदूर का भी कोई देश-धर्म नहीं होता लेकिन शासक वर्ग मजदूरों की वर्गचेतना की
संभावनाओं को कुंद करने के लिए उसे राष्ट्रवाद और धर्म-जाति की मिथ्या चेतना में
फंसाकर रखना चाहता है। इसी लिए समाजों के इतिहास को वर्ग-संघर्षों का इतिहास बताने
से शुरू घोषणापत्र का समापन दुनिया के मजदूरों की एकता के नारे से होता है।
‘दुनिया के मजदूरों एक हो, तुम्हारे पास खोने के लिए सिर्फ बेड़ियां हैं और पाने
को पूरी दुनिया’। इस लेख में क्रांति के अवकाशकाल के रूप में जाने जाने वाले दौर
(1851-64) के दौरान, समाजवाद, यानि शोषण-दमन से मुक्त समतामूलक समाज की विभिन्न
धाराओं और अवधारणाओं के विकास की संक्षिप्त चर्चा और उनके गठबंधन से पहला
इंटरनेसनल नाम से
सुविदित, दुनिया के पहले अंतर्राष्ट्रीय संगठन, कामगरों
का अंतर्राष्ट्रीय संगठन (इंटरनेसनल असोसिएसन ऑफ वर्किंग मेन) के गठन पर बात की जाएगी। इंटरनेसनल के कामों और सम्मेलनों; वैचारिक टकराव और बिखराव की चर्चा
अगले लेख में।
फ्रांस में 1848 की
क्रांति के बाद स्थापित पूंजीवादी गणतंत्र में किस तरह सर्वहारा के नेतृत्व को
सार्वजनिक मंचों से दूर रखने के प्रयास के विरुद्ध सर्वहारा प्रतिरोध को कितनी
निर्ममता से कुचला गया और 1951 में लुई बोनापार्ट के समर्थकों ने, जनता के नाम पर
संसद पर हमलाकर वहां अधिनायकवादी शासन की स्थापना की। तब से हर फासीवादी गिरोह
जनता के नाम पर जनतांत्रित संस्थानों तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले बोलता आ
रहा है। राष्ट्रपति लुई बोनापार्ट ने खुद को सम्राट
नेपोलियन तृतीय घोषित कर
दिया। पूरे घटनाक्रम का विस्तृत वर्णन और वैज्ञानिक समीक्षा मार्क्स के लेखों के
दो संकलनों – फ्रांस में वर्गसंघर्ष: 1848-50 और एटींथ
ब्रूमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट में की गयी है। एटींथ ब्रूमेयर 1951-52 में
एक अमेरिकी पत्रिका में छपे लेखों का संग्रह है, जिसकी प्रतियां चोरी-छुपे जर्मनी
में भी पहुंची, मगर पुस्तक वितरकों के माध्यम से नहीं। यूरोप में क्रांति के
उत्तरकाल में व्याप्त भय का अनुमान पुस्तक के 1869 संस्करण की भूमिका में मार्क्स
के इस कथन से लगाया जा सकता है कि जब उन्होंने जर्मनी में एक स्वघोषित जनपक्षीय
पुस्तक वितरक से संपर्क किया तो उसने यह कहकर हाथ खड़े कर दिया कि ऐसे बुरे समय में
वह यह खतरा नहीं मोल ले सकता था। हमारे देश
में पिछले साल राणा अयूब की पुस्तक, गुरात फाइल्स का कोई प्रकाशक नहीं मिला
और जब खुद छापा तो कोई वितरक नहीं मिला। भला हो पुस्तकों की ऑनलाइन खरीद-परोख्त
व्यवस्था का कि खूब बिकी यह किताब। वैसे तो एटींथ ब्रूमेयर ऑफ लुई बोनापार्ट पढ़ने
के बाद शीर्षक और अंतर्वस्तु का संबंध समझ में आ जाता है, फिर भी बताते चलें कि
1789 की क्रांति के उत्तरकाल में जिस दिन निर्देशक-मंडल में धोखा-धड़ी के प्रायोजन
और युद्धोंमाद के प्रचार-प्रसार से नेपोलियन बोनापार्ट ने सत्ता हथियाया, वह तारीख
फ्रांसीसी क्रांति के कैलेंडर में एटींथ ब्रूमेयर नाम से जानी जाती है।
इसीलिए मार्क्स ने शुरुआत ही हेगेल के उद्धरण से किया है कि इतिहास
खुद को दोहराता है और साथ में
जोड़ दिया, पहली बार त्रासदी के रूप में और
दूसरी बार मजाक के रूप में। मार्क्स की इन
दोनों किताबों में क्रांति और उसके बाद के घटनाक्रम की समीक्षा की संक्षिप्त चर्चा
अगले मजदूर विद्रोह, पेरिस कम्यून और उसके निर्मम दमन की चर्चा के साथ की
जाएगी। लेकिन मार्क्स की यह बात सार्वभौमिक, साश्वत लगती है कि हर युग में लोग
अपने किसी स्वर्णकालीन पूवजों सा दिखना चाहते हैं और उनके चिरकुट
नमूने से दिखते हैं, जैसे लुई बोर्नापार्ट (नेपोलियन तृतीय) नेपोलियन बोर्नापार्ट
का।
1851 के बाद, जैसा कि समाजवाद के कुछ इतिहासकारों ने लिखा है, मजदूर
आंदोलन लंबे अवकाश पर चला गया। लेकिन यह आंदोलनों का भौतिक अवकाश का दौर था,
वैचारिक अवकाश का नहीं। विचारों की द्वद्वात्मक यात्रा जारी रही। वैसे भी अवकाश का
मतलब कुछ न करना नहीं होता बल्कि इसका मतलब रचनात्मक कामों के लिए फुरसत का समय
होता है। कम्युनिस्ट घोषणापत्र में मार्क्स, एंगेल्स ने लिखा कि वर्ग संघर्ष एक
निरंतर प्रक्रिया है, कभी खुलकर और कभी लुके-छिपे। 1848 की क्रांति के बाद मार्क्स
और एंगेल्स जर्मनी के शहर कोलोन आ गए और न्वॉये
त्शाइटुंग (नया अखबार) निकालना शुरू
किया जिसके मुख्य संपादक मार्क्स थे। 1849 में प्रुसियन शासन ने अखबार पर पाबंदी
लगा दी और मार्क्स को जर्मनी छोड़ना पड़ा। शासक हमेशा नए विचारों से आतंकित हो
विचारक का उत्पीड़न करना शुरू कर देता है। मार्क्स को जर्मनी छोड़ना पड़ा, फ्रांस
में भी ठिकाना खोजने की कोशिस नाकाम रही और 1949 में लंदन आ गए जो परिस्थितिवश
आजीवन उनकी कर्म भूमि रही। तथाकथित अवकाशकाल में कम्युनिस्टों के अलावा भूमिगत
प्रोपगंडा और सैद्धांतिक क्षेत्रों में कम्युनिस्टों के अलावा अराजकतावादी
समाजवादी भी खुले-छिपे सक्रिय थे।
मध्यांतर:
1851-64
यह कहना कि 1848-51 की क्रांति-प्रतिक्रांति
के कोलाहलपूर्ण दौर के बाद समाजवादी या मजदूर आंदोलनों के हलकों में लंबा सन्नाटा
छाया रहा, एक ऐतिहासिक सरलीकरण होगा। जैसे कभी निर्वात नहीं रहता वैसे ही सन्नाटा
भी कभी नहीं। मौन भी बोलता है और कई बार मौन की मुखरता ज्यादा
असरदार होती है। 1836 में अपने अदालती बयान में ब्लांकी ने सर्वहारा
के रूप में अपना परिचय तो दिया
लेकिन उनकी सर्वहारा की अवधारणा अपरिभाषित और अस्पष्ट थी। मार्क्स ने
सर्वहारा के रूप में
इतिहास के नए नायक के अन्वेषण के बाद उसे वर्ग के रूप में परिभाषित किया और
दिहाड़ी की गुलामी से मुक्ति के लिए पूंजीपति वर्ग के विरुद्ध उसके संघर्ष को शोषक
और शोषित के बीच ऐतिहासिक वर्ग संघर्ष की ताजी कड़ी बताया। एक वर्ग के रूप में
सर्वहारा की बदहाली का कारण उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व और मुक्त
श्रम के सिद्धांत
पर आधारित उत्पादन का सामाजिक संबंध है जिससे मुक्ति के लिए आवश्यक है पूंजीवादी
राजनैतिक अर्थशास्त्र के नियमों की समझ। वस्तु पर विचारों की प्राथमिकता देने वाले हेगेल
का अधिकारों का दर्शन की समीक्षा में, सम्मान
के साथ, सिर के बल खड़े हेगेल के द्वंद्वात्मक आदर्शवाद को उलटकर सीधा करके मार्क्स द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के व्यवहारिक दर्शन की रचना शुरू की। द्वंद्वात्मक और ऐतिहासिक
भैतिकवाद की समीक्षा आगे की जाएगी। 1843 में आर्थिक
और दार्शनिक मैनुस्क्रिप्ट से शुरू हुई पूंजीवाद
के राजनैतिक अर्थशास्त्र के गतिविज्ञान के नियमों और मजदूर वर्ग की मुक्ति पर शोध
और विचारों के प्रचार-प्रसार की मार्क्स की मुहिम जारी रही। 1848-50 की क्रांतियों की मार्क्स के अनुभव और समीक्षा की झलक,
ऐतिहासिक भौतिकवाद की कुंजी समझे जाने वाले 1859 में प्रकाशित राजनैतिक
अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान की भूमिका में मिलता है, समाज मे भौतिक उत्पादन के चरण के
अनुरूप सामाजिक चेतना का स्वरूप होता है जिसके जनवादीकरण से लोग अंतर्विरोधों को
समझकर उनके विरुद्ध लड़कर नये युग का उद्घाटन करते हैं।
क्रांति और प्रतिक्रांति के बाद फ्रांस में
पूंजीवादी गणतंत्र की जगह बोनापार्ट नें नेपोलिय तृतीय के रूप में राजशाही की
पुनर्स्थापना की जिसके तहत फ्रांस में पूंजीवाद का बेतहाशा विकास हुआ। जैसा कि
पिछले लेख में बताया गया है कि इंगलैंड के मजदूर संगठन चार्टिस्ट दोलन के बिखराव
के बाद राजनिति से विरक्त हो गए। 1850 के बाद मार्क्स-एंगेल्स के नेतृत्व वाला
कम्युनिस्ट लीग, जर्मनी और इंगलैंड के कुछ शहरों में छोटे-मोटे समूहों में सिमट कर
रह गया और मार्क्स समकालिक विषयों पर लेखन के साथ पूंजीवाद के गतिविज्ञान के
नियमों के अन्वेषण में लीन रहे जिसकी परिणति 1867 में 3 खंडों में लिखी पूंजी में हुई। मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट
घोषणापत्र में पूंजीवाद
के अंतरराष्ट्रीय चरित्र का चित्रण किया जो विस्तारित बाजार में अपना माल खपाने
सारी धरती पर पहुंच बनाता है। इसे हर जगह अपना घोसला चाहिए और हर जगह अपने लोग।
चूंकि पूंजीवाद और पूंजीवादी शोषण का चरित्र अंतरराष्ट्रीय है, इसलिए सर्वहारा का
प्रतिरोध भी अंतरराष्ट्रीय होनी चाहिए। जिस तरह पूंजी का कोई देश नहीं होता, उसी
तरह मजदूर का भी कोई देश नहीं होता, लेकिन क्रांतियां राष्ट्रीय सीमाओं में ही
होंगी, जिस पर आगे बात की जाएगी। इसीलिए कम्युनिस्ट घोषणा पत्र में दुनिया के
मजदूरों की एकता का नारा दिया और नारे को राजनैतिक अर्थ देने के लिए 1864 में कामगरों
का अंतरराष्ट्रीय संगठन (फर्स्ट इंटरनेसनल) के गठन में अग्रणी भूमिका निभाया।
इस दौर में समाजवाद के
नाम पर फूरियर और सेंट साइमन के संसदवादी अनुयायी ही जाने जाते थे, व्यवस्था में
आमूल परिवर्तन के पैरोकारों को कम्युनिस्ट कहा जाता था। पूंजीवाद की आर्थिक
व्यवस्था और उसके सिद्धांत, उदारवाद के विकल्प के रूप में समाजवाद की बौद्धिक और
राजनैतिक धाराओं में एकरूपता नहीं थी। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि 1848 में
सर्वहारा के संगठित प्रतिरोध और नवनिर्वाचित गणतांत्रिक सरकार के आदेश पर सेना और
किसानों द्वारा उसके दमन और नरसंहार ने मजदूर संगठनों की हवा निकाल दी। 1849 में
पश्चाताप से ग्रस्त जनतंत्रवादियों और सुधारवादी समाजवादियों के गठबंधन ने
प्रतिरोध का नया तरीका आजमाया। उन्होंने पेरिस में असफल शांतिपूर्ण प्रदर्शन का
आयोजन किया जो जल्दी ही बिखर गया लेकिन यह गठबंधन भविष्य के सामाजिक जनतंत्रवाद का
भ्रूण साबित हुआ। गौर तलब है कि 1776 और 1848 के बीच जनतांत्रिक आंदोलन अपनी
भूमिका अदा कर चुका और शताब्दी खत्म-होते होते उसके जरिए समानता-स्वतंत्रता का
सपना टूट गया। इन सालों का महत्व यह है कि 1776 में ऐडम स्मिथ की मशहूर रचना, राष्ट्र
की संपत्ति (वेल्थ ऑफ नेसन) का प्रकाशन
हुआ और उसी साल अमेरिका में स्वाधीनता संग्राम शुरू हुआ। जिस तरह देश के संसाधनों
और कामगरों की लूट पर आधारित कॉरपोरेटी विकास को देश का विकास प्रचारित किया जा
रहा है, उसी तरह शोषण और मुनाफाखोरी से संचय की गयी नवोदित नवोदित पूंजीपति वर्ग
की संपत्ति को एडम स्मिथ राष्ट्र की संपत्ति की संज्ञा देते हैं, भले ही राष्ट्र
का कामगर बहुमत अमानवीय हालात में जी रहा था। असल ऐडम स्मिथ के राष्ट्र की संपत्ति
का मतलब तिजारेदारों की संपत्ति थी।
1848 में फ्रांस में सर्वहारा का पहला संगठित प्रतिरोध हुआ,
जिसे भले ही बुरी तरह कुचल दिया गया लेकिन इसने मार्क्स की भाषा में इतिहास के नए
नायक, सर्वहारा के प्रतिरोध की मिशाल कायम की और भविष्य में मजदूरों के संगठित
संघर्ष का पथ प्रशस्त किया। इसी साल मार्क्स-एंगेल्स ने कम्युनिस्ट
घोषणापत्र प्रकाशित
किया। मार्क्स और एंगेल्स ने सोचा था 1848 में जर्मनी में राष्ट्रीय जनतांत्रिक
आंदोलन अंततः इंगलैंड के चार्टिस्ट आंदोलन और फ्रांस के साम्यवादी आंदोलन के साथ
मिलकर य़ूरोप में सर्वहारा क्रांति की बुनियाद तैयार करेगा, लेकिन जिस तरह फ्रांस
में सर्वहारा विप्लव को कुचल दिया गया उसी तरह जर्मनी का राष्ट्रीय लोकतांत्रिक
क्रांति भी नाकामयाब रही। मार्क्स और एंगेल्स ने जर्मनी के कोलोन में 1848 में न्वाय
राइनिशे त्शाइटुंग अखबार
निकालना शुरू किया, जिसकी विषयवस्तु के बारे में आगे चर्चा की जाएगी लेकिन प्रसियन
(जर्मन) राजा ने न सिर्फ अखबार बंद करवा दिया बल्कि मार्क्स पर कई मामलों में
मुकदमा चलाया और अंततः उन्हें दुबारा निर्वसन की पीड़ा झेलनी पड़ी। फ्रांसीसी और जर्मन
क्रांतियों की विफलता के बाद साम्यवाद राजनैतिक विमर्श से गायब सा हो गया और
इंगलैंड में समाजवाद लंबे अवकाश पर चला गया। लंबे समय तक कम्युनिस्ट
घोषणापत्र का पठन-पाठन
मार्क्स के चंद अनुयायियों तक सिमटा रहा। बचे-खुचे लोग जब 1860 के दशक में फिर से
संगठित होना शुरू किए तब तक घोषणापत्र के अर्थों में साम्यवाद (कम्युनिज्म) अप्रासंगिक रहा। तब से अब तक मार्क्स और मार्क्सवाद, चूंकि समाजवादी विमर्श और
आंदोलनों के केंद्रीय बिंदु बने हुए हैं, इस पर इस लेखमाला के अगले खंड में थोड़ा
विस्तार से चर्चा की जाएगी।
समाजवाद के विभिन्न परिप्रेक्ष्य
इस दौर में समाजवाद की प्रमुखतः 4 धाराएं थीं, जो कभी समानांतर
होतीं तो कभी उनका संगम भी होता।
राज्य समाजवाद: सामाजिक-जनतंत्रवाद (सोसल डेमोक्रेसी) की
बुनियाद
लुई ब्लांक ने नेतृत्व वाला संसदीय समाजवाद या राज्य समाजवाद, जिसकी चर्चा पिछले लेख में की गयी है, इस दौर में अप्रासंगिक सा हो गया था। संसद भंग थी इसलिए चुनाव के जरिए सत्ता हासिल कर जनपक्षीय कानूनों और राज्य मशीनरी से समतामूलक समाज की संभावनाएं नदारत। फ्रांस में सेंट सिमोन और फूरियर के सहकारितावादी अनुयायी जो संसदीय रास्ते से सत्ता हासिल कर अर्थव्यवस्था पुनर्गठित करने के पैरोकार थे। इस धारा के प्रमुख प्रतिनिधि लुई ब्लांक थे जिनके बारे में पिछले लेख में बताया गया है कि शासन पर बोनापार्ट के एकाधिकार स्थापित होने के बाद देश छोड़कर भागना पड़ा। यूरोप के कई देशों और अमेरिका में कई समाजवादी सांसद भी बने लेकिन मजदूरों की हालत दयनीय बनी रही। जैसा कि आगे देखेंगे कि समाजवादियों से निराश मजदूरों ने अराजकतावाद का दामन थामा। 1886 में शिकागो के टेक्सटाइल मजदूरों के ऐतिहासिक आंदोलन समेत ज्यादातर मजदूर आंदोलन अराजकतावादियों के नेतृत्व में हुए। इस दोलन की चर्चा आगे की जाएगी 1 मई 1886 को अमेरिका के मजदूर संघों ने मिलकर निश्चय
किया कि वे 8 घंटे से ज्यादा काम नहीं करेंगे। जिसके लिए
संगठनों ने हड़ताल की थी। इस हड़ताल के दौरान शिकागो की हेयमार्केट में बम ब्लास्ट
हुआ। जिससे निपटने के लिए पुलिस ने मजदूरों पर गोली चला दी जिसमें कई मजदूरों की
मौत हो गई और 100 से ज्यादा लोग घायल हो गए। हेयमार्केट के
शहीदों को श्रद्धांजलि के रूप में दुनिया भर
में एक मई को मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है। इंगलैंड में मजदूर संगठन उदारवाद के प्रभाव में चले गए और ओवेनवादी समाजवादियों का अगला संस्करण, फाबियनवाद 1880 के दशक में उभरा जिसकी संक्षिप्त चर्चा सामाजिक जनतंत्रवाद की समीक्षा के साथ की जाएगी। इसमें और शासकवर्ग की अन्य पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रहा जैसे कि आज लेबर पार्टी और टोरी पार्टी
में या जैसे भारत की संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों और शासक वर्ग की संसदीय
पार्टियों में कोई गुणात्मक फर्क नहीं रह गया है । संसदीय या संशोधनवादी समाजवादियों के भविष्य के बारिस समाजिक जनतंत्रवादी और हिंदुस्तान की सोसलिस्ट पार्टियां हैं, जिनकी और उनके साथ इनकी भी थोड़ी और चर्चा अगले लेखों में होगी।
·
जैकोबिनवाद:
समानता का षड्यंत्र
दूसरी धारा, फ्रांसीसी क्रांति से निकली बब्वॉयफ की साम्यवादी
विरासत के दावेदारों की थी जो पहली क्रांति के जैकोबिन की तर्ज पर गुप्त षड्यंत्र के
जरिए सत्ता पर कब्जाकर सत्ता और आर्थिक व्यवस्था का समाजीकरण करना चाहते थे। 1793
में जैकोबिनों के सत्ता से हटने और डायरेक्टरी शासन द्वारा उनके प्रमुख नेताओं की
हत्या के बाद, बचे-खुचे अनुयायियों ने मार्गदर्शन के लिए बब्वॉयफ का रुख किया।
भूमगत जैकोबिनों ने बब्वॉयफ के संगठन समानता
का षड्यंत्र के साथ
गठबंधन कर तख्तापलट की योजना बनाई किंतु एक गद्दार की मुखबिरी से विद्रोह के पहले
ही सभी प्रमुख नेताओं को गिरफ्तार कर उन पर व्यापक रक्तपात की योजना के आरोप में
मुकदमा चलाया गया और बव्वॉयफ समेत कई प्रमुख नेताओं को मृत्युदंड दिया गया। इस
धारा के प्रमुख प्रतिनिधि ब्लांकी थे, जिनके बारे में पहले बताया जा चुका है।
उन्हें 1848 के सर्वहारा विद्रोह के पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया था और 1871 में
पेरिस के मजदूरों के विद्रोह के पहले ही, बोनापार्ट के शासन के पतन के बाद बनी
सरकार ने धोखे से गिरफ्तार कर लिया था। जिसके बारे में आगे बात की जाएगी। 1848 की क्रांति के पहले और बाद में ब्लांकी के नेतृत्व वाली
समाजवाद की इस धारा की योजना क्रांतिकारी नेताओं के एक समूह द्वारा सत्ता पर कब्जा
करके एक क्रांतिकारी सरकार की स्थापना के बाद यथासंभव जल्दी-से जल्दी 1793 में
रद्द के गए जैकोबिन संविधान के अनुसार संसद का चुनाव कराना था। लेकिन वे चुनाव के
पहले सभी संपत्तियों का अधिग्रहण कर पुनर्वितरित तथा संपत्ति के सामूहिक स्वामित्व
तथा उपभोग की प्रणाली लागू करना चाहते थे। प्रकृति की संपदा पर सबके समान अधिकार
के सिद्धांत के आधार पर पूंजीपतियों की संपत्ति का अधिग्रहण कर उन पर सामूहिक
स्वामित्व की स्थापना उनके कार्यक्रम की बुनियाद थी। देश को नई प्रशासनिक
क्षेत्रों में बांटकर अधिग्रहित संपत्ति का प्रबंधन, आम मजदूर के समान वेतन पर
निर्वाचित अधिकारी करेंगे। यह योजना 1871 के अल्पजीवी पेरिस कम्यून में लागू की
गयी थी। 1864 में गठित पहले अंतरराष्ट्रीय मजदूर संगठन कामगरों
का अंतर्राष्टीय संगठन (पहला
इंटरनेसनल) के गठन में ब्लांकी के अनुयायी भी शामिल थे। ब्लांकी समता के अधिकार को
प्रगति का आधार मानते थे। वे इतिहास की व्याख्या समता और विशेषाधिकारों के बीच,
यानि गरीबी और अमीरी के बीच संघर्ष के इतिहास के रूप में करते हैं, जिसे मार्क्स
और एंगेल्स ने वर्ग-संघर्षों का इतिहास कहा। वे विशेषाधिकार की तुलना में समता की
नैतिक, बौद्धिक श्रेष्ठता के आधार पर समाजवाद की विजय को अवश्यंभावी बताते हैं।
ब्लांकी, निजी संपत्ति और ‘स्वतंत्र’ श्रम शक्ति की माल के रूप
में उपलब्धता के सिद्धांतों पर आधारित, जड़ जमाते पूंजीवादी उत्पादन के सामाजिक
संबंधों और समाजवाद की वैज्ञानिक समझ के अभाव के बावजूद, एक उत्साही क्रांतिकारी
थे। उदारवादियों की मनुष्य की स्वार्थी और आत्मकेंद्रित अवधारणा के विपरीत वे उसकी
अंतरात्मा की पुकार और उसके नैतिक पक्ष पर जोर देते हैं। वे वैज्ञानिक शिक्षा और
विज्ञान के विषयों की शिक्षा को साम्यवाद प्राप्ति का अचूक हथियार मानते थे। ‘यदि
फ्रांस के 3 करोड़ 80 लाख नर-नारी एक-बैग वैज्ञानिक बन जाएं तो एक महीने में
साम्यवाद की स्थापना की जा सकती है। ब्लांकी अगर आज होते तो यह देखकर सर पकड़ लेते
कि संकीर्णतावादी राष्ट्रोंमाद की अगली कतारों में विज्ञान के विषय पढ़े लोगों की
बहुतायत है। अगस्त ब्लांकी के लिए साम्यवाद राष्टीय नहीं अंतर राष्ट्रीय मसला है।
1850 में उन्होने इंगलैंड के चार्टिस्टों से कम्युनिस्ट लीग के साथ मिल कर
आंदोलनों की योजना बनाया था। 1861 में उनकी गिरफ्तारी के विरुद्ध विरोध प्रदर्शनों
में मार्क्स ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया। 1789 की क्रांति और बब्वॉयफ के ‘समानों का
घोषणापत्र’ से प्रेरित समाजवाद की इस
साम्यवादी धारा की चर्चा समाप्त करते हैं, इसका जिक्र दुबारा पहला इंटरनेसनल
और पेरिस
कम्यून की चर्चा के
साथ फिर होगा क्योंकि दोनों में ही ब्लांकी के समर्थकों की उल्लेखनीय भूमिका थी।
कम्यून के पतन के बाद ब्लांकी के समर्थक भी क्रांति के जैकोबिनवादी तरीकों की
प्रासंगिकता पर सवाल उठाने लगे थे।
·
अराजकतावाद
महात्मा गांधी प्रबुद्ध (एंलाइटेंड) अराजकता के पक्षधर थे
किंतु सामाजिक प्रबुद्धता के अभाव में व्यवस्थित अराजकता पर आधारित, ग्राम को मूल
राजनैतिक इकाई पर केंद्रित, विकेंद्रित सामुद्रिक वृत्त का राजनैतिक सिद्धांत
दिया। गांधी का व्यवस्थित अराजकतावाद रूसो और 19वीं शताब्दी के अराजकतावादी दर्शन
और आंदोलन की छाप छोड़ता है। उदारवाद राज्य को आवश्यक बुराई मानता है तथा
अराजकतावाद इसे अनावश्यक बुराई मानता है। यह स्वैच्छिक संस्थाओं पर आधारित आत्म-शासित समुदायों की
पक्षधरता का राजनैतिक दर्शन है। राज्यवाद या राज्य की केंद्रीकृत शासन व्यवस्था का विरोध इस दर्शन का
केंद्रीय विंदु है किंतु यह जीवन के हर क्षेत्र में और मनुष्यों के बीच हर संबंध
में सत्ता या श्रेणीबद्धता का विरोधी है। 1789 की फ्रांसीसी क्रांति के विभिन्न
धड़े एक दूसरे पर अराजक होने का आरोप लगाते रहे थे। यद्यपि इस अवधारणा का प्रयोग
19वीं शताब्दी के शुरुआती सालों के क्रांतिकारियों, खासकर विलियम गॉडविन और
विल्हेम वाल्टिंग के विचारों में देखा जा सकता है, यद्यपि उन्होने ने न खुद को
अराजक कहा न अपने विचोरों को अराजकतावाद। पियरे-जोसेफ प्रूदों पहले स्वघोषित अराजक
विचारक थे यद्यपि इसकी जड़ें रूसो की समतामूलक स्वतंत्रता तक जाती हैं। रूसो और
प्रूदों में एक और समानता यह है कि दोनों ही औपचारिक शिक्षा से वंचित
स्व-शिक्षित/प्रशिक्षित दार्शनिक थे। रूसो और यूटोपियन समाजवादियों की ही तरह
प्रूदों का भी जीवन और विचार अपनी विसंगतियों तथा तरविरोधों के बावजूद काफी रोचक
है लेकिन यहां विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है। साधारण गरीब परिवार में पले
प्रूदों ग्रामीण समाज की पारंपरिकता को आदर्श मानते थे तथा नारियों के बारे में भी
उनके विचार रूसो की ही तरह प्रतिगामी थे। 1940 में उन्होने संपत्ति
क्या है? उन्होने समाज
में स्वस्फूर्त व्यवस्था का सिद्धांत प्रतिपादित किया। इस सवाल का जो उत्तर
उन्होंने दिया कि सम्पत्ति चोरी है, वह रूसो के असमानता पर विमर्श में पहले ही मौजूद है। संपत्ति के चलते असमानता को सब
बुराइयों की जड़ बताने के बाद रूसो कहते हैं कि कानून ने डकैती को कानूनी अधिकार
में तब्दील कर दिया। वे व्यवहारिक रूसोवाद
से ऊपर न उठ सके, यद्यपि रूसो को वे जेनेवन नौटंकीबाज कहते थे। प्रूदों वैसे किसी
भी लेखक के बारे में प्रशंसा का कोई शब्द नहीं बोलते थे। मार्क्स की सर्वहारा
केंद्रित सोच का मजाक बनाते हुए उन्होने गरीबी
का दर्शन लिखा। इसका
सार यह था कि लोगों को उपयोगी मूल्य चाहिए लेकिन बाजार व्यवस्था उन्हें विनिमय
मूल्य प्रदान करता है। वे छोटे-छोटे उत्पादकों और उपभोक्ताओं के बीच वस्तु के
निर्माण में लगे श्रम के आधार पर विनिमय के हिमायती थे। मार्क्स ने उसके जवाब में
कालजयी पुस्तक, दर्शन की गरीबी लिखा जो मार्क्सवाद के विकास में मील का पत्थर है। प्रूदों एवं अन्य प्रमुख अराजक चिंतकों, खास कर बकूनिन और
क्रोपोत्किन के विचारों के बारे में बाकी चर्चा अगले लेख में, प्रथम इंटरनेसनल
के विमर्शों और गतिविधियों की
चर्चा के साथ की जाएगी।
इंटरनेसनल की स्थापना में कम्युनिस्टों (क्रमशः मार्क्स और ब्लांकी के
समर्थक) के अलावा अराजकतावादियों की भूमिका अहम थी। इस धारा के विचारकों और नेताओं
में फ्रांस के प्रूदो और रूस के बकूनिन तथा क्रोपोत्किन प्रमुख थे. दूसरी
कम्युनिस्ट, मार्क्स और एंगेल्स जिसके प्रमुख विचारक और नेता थे। अराजकतावादी
दर्शन का मूल, प्रूदों के एक उद्धरण से समझा जा सकता है, ‘मेरे ऊपर शासन के लिए
हाथ रखने वाला अत्याचारी और लुटेरा है, उसे मैं अपना दुश्मन घोषित करता हूं’।
मार्क्सवाद की ही तरह अराजकतावाद भी राज्यविहीन समाज की स्थापना का पक्षधर है
लेकिन अराजकतावाद राज्य को समाप्त करने का हिमायती था साम्यवाद उन हालात का जिन पर
राज्य टिका है, वह अपने आप बिखर जाएगा। उसी तरह जैसे मार्क्सवाद धर्म को नहीं
समाप्त करना चाहता बल्कि उन हालात का जो धर्म की जरूरत पैदा करते हैं, धर्म अपने
आप अप्रासंगिक हो जाएगा। मार्क्स और एंगेल्स तथा अराजकतावादियों में तमाम मुद्दों
पर दार्शनिक और राजनैतिक मतभेद थे लेकिन ऐतिहासिक जरूरतों और शोषण-दमन से मुक्त
समतामूलक समाज के साझे मकसद के चलते दोनों साथ आए और कामगरों
का अंतर्राष्ट्रीय संगठन की स्थापना
से साबित किया कि मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीयता महज सैद्धांतिक नहीं व्यावहारिक भी
है। अराजकतावाद की चर्चा इसके 3 प्रमुख क्रांतिकारी चिंतकों – प्रूदों, बकूनिन और
क्रोपोत्कीन के विचारों तथा कामों की चर्चा के बगैर अधूरी रह जाएगी, जो अगले लेख
में की जाएगी।
·
मार्क्सवाद:
वर्ग-संघर्ष की राजनीति
मार्क्स एक क्रांतिकारी बुद्धिजीवी थे जो
पूंजीवादी विकास के शोषण-दमनकारी व्यवस्था को बदलना चाहते थे जिसके लिए पूंजीवाद
के गतिविज्ञान के नियमों की वैज्ञानिक समझ जरूरी थी। इसकेलिए उन्होंने ऐतिहासिक
भौतिकवादी उपादान का अन्वेषण किया। यहां ऐतिहासिक या द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर
विस्तृत चर्चा की गुंजाइश नहीं है। लेकिन चूंकि रूसी क्रांति के बाद मार्क्सवाद और
वर्ग संघर्ष क्रांतिकारी सोच के पर्याय बन गए इसलिए कुछ प्रमुख अवधारणाओं और
निष्कर्षों पर चर्चा जरूरी है। मार्क्स का अनुमान था कि क्रांति विकसित पूंजीवादी
देशों से शुरू होगी जहां पूंजीवाद विकास चरम पर होगा तथा पूंजीवादी अंतर्विरोध
परिपक्वता के चरण में। क्रांतिकारी परिवर्तन में दो कारक होते हैं, आंतरिक और
वाह्य। पूंजीवादी अंतरविरोधों की परिपक्वता यानि पूंजीवाद का संकट आंतरिक कारक है
तथा सत्ता पर काबिज़ होने को वर्गचेतना से लैस सर्वहारा का संगठन, वाह्य। दर्शन
की दरिद्रता (पॉवर्टी ऑफ
फिलॉस्फी) में मार्क्स लिखते हैं, “आर्थिक हालात ने देश लोगों को मजदूर बना दिया।
पूंजी के आग़ाज ने इस जनसूह के लिए एक सी स्थियां तथा साझे की हित को जन्म दिया।
इस तरह यह जनसमूह पहले से ही पूंजी के विरुद्ध अपने आप में एक वर्ग है, लेकिन अपने
लिए नहीं। संघर्ष के
दौरान, जिसके कुछ ही चरणों की चर्चा की है, यह समूह संगठित होकर अपने लिए वर्ग बन
जाता है. जिन हितों की यह रक्षा करता है वे वर्ग हित हैं। लेकिन वर्ग के विरुद्ध
संघर्ष राजनैतिक संघर्ष है”।
ऐतिहासिक भौतिकवाद इतिहास
को समझने का वह वैचारिक दृष्टिकोण है जो “सभी प्रमुख ऐतिहासिक परिघटनाओं का कारण
और निर्देशक शक्तियों की उत्पत्ति समाज के आर्थिक विकास में; उत्पादन पद्धति में
परिवर्तनों और विनिमय और परिणाम स्वरूप विभिन्न वर्गों में समाज का विभाजन और वर्ग
संघर्ष में निरूपित करता है” (फ्रेडरिक एंगेल्स,समाजवाद: वायवी और वैज्ञानिक). ऐतिहासिक
भौतिकवाद दर्शन नहीं बल्कि तथ्यपरक विज्ञान है, या यों कहें कि तथ्यपरक प्रमेयों
का समुच्च है. जर्मन विचारधारा में मार्क्स स्पष्ट करते हैं कि यह प्रणाली न तो किसी
दार्शनिक विचारधारा पर आधारित है न ही किसी स्थापित हठधर्मिता पर बल्कि परिस्थियों
की जांच के आधार पर प्रमाणित सटीक विवरण पर आधारित है। दूसरे शब्दों में, यह
उन परिकल्पनाओं पर आधारित है जिन्हें तथ्य-तर्कों के आधार पर प्रमाणित किया जा
सके। मार्क्स, राजनैतिक अर्थशास्त्र की समीक्षा में एक योगदान की बहुचर्चित
प्रस्तावना में लिखते हैं कि उत्पादन का सामाजिक रिश्ता, समाज की आर्थिक संरचना की
बुनियाद है “जिस पर कानूनी और राजनैतिक अधिरचनाएं खड़ी होती हैं और जिसके मुताबिक
सामाजिक चेतना का एक निश्चित स्वरूप का निर्माण होता है”। दूसरी तरफ उत्पादन के
सामाजिक संबंध “समाज की भौतिक उत्पादन शक्तियों के विकास के खास चरण पर निर्भर
होता है जो कानूनी, राजनैतिक और बौद्धिक प्रक्रियाओं का निर्धारण करता है”। जैसे
जैसे उत्पादन शक्तियों का विकास होता है, वे उत्पादन संबंधों के विकास में मौजूदा
उत्पादन संबंधों से टकराती हैं. “तब सामाजिक क्रांति का एक युग शुरू होता है”। यह
द्वंद्व समाज को विभाजित करता है और, जैसे जैसे यह द्वंद्व लोगों की चेतना में
बैठने लगता है, लोग संघर्ष से इस द्वंद्व का “उत्पादक शक्तियों के पक्ष में समाधान
करते हैं”। इस निर्णायक के बीज पुराने समाज में ही अंकुरित हो चुके रहते हैं।
पूंजीवीदी उत्पादन प्रणाली का निर्माण सामंती उत्पादन संबंधों के खंडहर पर हुआ।
मार्क्स के अनुसार, यह अंतिम वर्ग समाज होगा और समाज में प्रागैतिहासिक समानता
स्थापित होगी.
दो
पेज के दस्तावेज, थेसेस ऑन फॉयरबाक में
मार्क्स कहते हैं कि सत्य वही जो तथ्यात्मक रूप से प्रमाणित हो। “मनुष्य की चेतना
भौतिक परिस्थियों का परिणाम है और बदली चेतना बदली परिस्थितियों की”। लेकिन
परिस्थितियां खुद-ब-खुद नहीं बदलतीं, उसके लिए “सचेत मानव प्रयास करना पड़ता है”। इस
तरह यथार्थ भौतिक परिस्थियों और चेतना का द्वंद्वात्मक युग्म है। ऐतिहासिक
भौतिकवाद पर चर्चा यहीं समाप्त करते हुए, दो शब्द द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर।
मार्क्स
अपने समय की दो स्थापित धाराओं को चुनौती देते हैं और उनको जोड़कर एक नया सिद्धांत
देते हैं। हेगेल का मानना था कि यथार्थ पूर्णतः या काफी हद तक विचारों से निर्मित
है और दृष्टिगोचर जगत विचारों के अदृश्य जगत की छाया मात्र है। मार्क्स
द्वंद्वात्मक उपादान के लिए हेगेल का आभार व्यक्त कर इसे आदर्शवाद कह कर खारिज
करते हैं। उन्होंने कहा कि हेगल ने वास्तविकता को सर के बल खड़ा किया है उसे सर के
बल खड़ा करना है. ऐतिहासिक रूप से वस्तु विचार के बिना रह सकती है लेकिन विचार वस्तुओं
से ही निकलते हैं, आलमान से नहीं। न्यूटन के गुरुतवाकर्षण के सिद्धांत से सेबों का
गिरना शुरू नहीं हुआ बल्कि सेबों का गिरना देख कर उनके दिमाग में उसका कारण जानने
का विचार आया। सेबों के गिरते देखकर ‘क्या’ सवाल का उत्तर दिया जा सकता है,
‘क्यों’ का नहीं। वैज्ञानिक युग का
भौतिकवाद विचारों को सिरे से खारिज करके कहता है भौतिकता ही सब कुछ है, जिसे
मार्क्स मशीनी भौतिकवाद कह कर खारिज करते हैं। संपूर्ण यथार्थ वस्तु और विचार से
मिलकर बनता है। द्वद्वात्मक भौतिकवाद के नियम हैं: 1. यथार्थ वस्तु और विचार का
द्वंद्वात्मक युग्म है. 2. निरंतर क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन समयांतर में
गुणात्मक क्रांतिकारी परिवर्तन का पथ प्रशस्त करता है. 3. जिसका भी अस्तित्व है
उसका अंत निश्चित है जो पूंजावाद के बारे में भी लागू होता है।
मार्क्स-एंगेल्स
कम्यनिस्ट घोषणा पत्र के शुरू में ही लिखते हैं कि समाज का इतिहास वर्ग संघर्षों
का इतिहास है और कम्युनिस्ट पार्टियों का इतिहास 200 साल से कम। कहने का मतलब यह
कि वर्ग समाज में शोषण-उत्पीड़न और अन्याय के विरुद्ध सभी आंदोलन वर्ग संघर्ष के
ही हिस्से हैं. जैसाकि ऊपर कहा जा चुका है कि मार्क्स का आकलन था कि क्रांति
विकसित पूंजीवादी देश में होगा जहां प्रचुरता का बंटवारा मुद्दा होगा। लेकिन
मार्क्स ज्योतिषी नहीं थे। मार्क्स के विकास के चरण के सिद्धांत से इतर मार्क्सवाद
की विचारधारा की पहली क्रांति रूस में हुई जहां पूंजीवाद लगभग अविकसित था और
सामंती उत्पादन संबंध सजीव थे। औद्योगीकरण के अभाव में किसानों और कारीगरों की
संख्या अधिक थी और औद्योगिक सर्वहारा की बहुत कम। किसानों की लामबंदी के लिए ‘जो
जमीन को जोते बोए वह जमीन का मालिक होए’ का नारा दिया गया। यहां क्रांति के
विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, जिसकी चर्चा अगले लेखों में की जाएगी। ईयच
कार की बॉल्सेविक क्रांति और जॉन रीड की जिन दस दिनों ने दुनिया हिला दी
कालजयी कृतियां इसका सटीक लेखा-जोखा प्रदान करती हैं। इस शताब्दी की शुरआत में
लिखी गई ज़ीज़ेक की पुस्तक ऐट द गेट ऑफ रिवल्यूसन में अप्रैल-सितंबर 1917
के दौरान लेनिन द्वारा लिखे पत्रों और पंफलेट्स का संकलन भी काफी सूचनाप्रद है।
प्रथम इंटरनेसनल के बाद से मार्क्स और मार्क्सवाद समाजवादी
विमर्श के केंद्र में रहे हैं, इसलिए मार्क्सवाद पर अलग से एक चर्चा वांछनीय है,
जो आगे के लेखों में की जाएगी। इस लेख का समापन प्रथम इंटरनेसनल के गठन से
करना प्रासंगिक होगा।
·
कामगरों का अंतर्राष्ट्रीय संगठन: प्रथम इंटरनेसनल
1863 में पोलैंड में मजदूर विद्रोह के साथ
एक जुटता दिखाने के लिए फ्रांस और इंगलैंड के मजदूर संगठनों और ट्रेडयूनियनों ने
लंदन के सेंट मार्टिन हॉल में, 18 सितंबर 1864 को एक सार्जनिक सभा का आयोजन किया।
सभा ने सर्वसम्मति से मजदूरों के अंतर्राष्ट्रीय संगठन – कामगरों का
अंतर्राष्ट्रीय संगठन के गठन का फैसला किया, जिसका पहला अधिवेशन 1866 में
जेनेवा में हुआ। इस सभा के आयोजन में मार्क्स की कोई भूमिका नहीं थी और वे 32
सदस्यों की कार्यकारी समिति में चुने गए और जैसा कि हम अगले लेख में देखेंगे कि वे
जल्द ही इसके अग्रणी नेता गए। संगठन के निर्माण में एक तरफ ब्लांकी और प्रूदों के
अनुयायी थे तो दूसरी तरफ मार्क्सवादी तथा हाशिए पर खिसक चुके ओवनवादी। 1872 में,
कई प्रमुख सैद्धांतिक मुद्दों पर मार्क्स और बकूनिन के मतभेदों से दरार पड़ गयी
तथा 1876 में इंटरनेसनल बिखर गया। इंटरनेसनल के विमर्शों, विवादों
तथा मतभेदों एवं कार्यों 1871 में पेरिस
कम्यून के उदय और दमन के बाद राहत कार्यों में इसकी भूमिका और विघटन के कारणों की
चर्चा अगले लेख में की जाएगी।
ईश मिश्र
17 बी, विश्वविद्यालय मार्ग
दिल्ली 110007
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