ज़िंदगी की जीवंतता के लिए उत्सव भी जरूरी होते हैं, उत्सव के लिए अवसर चाहिए, उत्सव के अवसर कमते जा रहे हैं, ऐसे में जन्मदिन उत्सव मनाने; मिलने-जुलने का अवसर देता है। हमारे लड़कपन या जवानी में, सामुदायिकता-केंद्रित हमारे गांवों में सामुदायिक/परिवारिक उत्सव तो मनाए जाते थे लेकिन व्यक्तिगत उत्सव माने का चलन नहीं था। लंबे समय तक मुझे तो रोमन कैलंडर का अपना जन्मदिन ही नहीं मालुम था। मां और गांव की स्ियां बड़की बाढ़ के पहले का बताती थीं। बाद में शक संवत (आषाढ़, कष्णपक्ष दसमी, संवत 2012) में जन्मकुंडली मिल गयी, जिसे बाबा की लिखावट के नमूने के तौर पर मैंने सभांलकर रखा है। सोचा थाआषाढ़ का मतलब जून-जुलाई में कभी होना चाहिए। 9 साल की उम्र में,1964 में, प्राइमरी पास किया। बाबू साहब ( हमारे हेडमास्टर, बासुदेव सिंह) ने मेरे भविष्य पर विचार किया और पाया कि न्यूनतम आयु सीमा के नियम के तहत1969 में हाईस्कूल की परीक्षा देने के लिए 1 मार्च को कम-से-कम 15 साल का होना चाहिए तो 1954 की फरवरी की जो भी तारीख मन में आया लिख दिया। अब फरवरी में तो आषाढ़ हो नहीं सकता था। चूंकि जन्मदिन के उत्सव का चलन नहीं था इसलिए पता करने की सोचा ही नहीं। जएएनयू में एमफिल के किसी कोर्स वर्क के एक टर्मपेपर के शोध के लिए 1950-60 के दशकों के कुछ हिंदीअखबार देखने थे। उन दिनों हिंदी अखबारों में रोमन कैलेंडर की तारीख के साथ शक/विक्रम कैलेंडर की भी तारीख होती थी तो जन्म कुंडली के हिसाब से 26 जून 1955 पाया गया और तब से दोस्तों के साथ जन्मदिन मना लेता हूं।
Tuesday, August 27, 2024
Tuesday, August 20, 2024
बेतरतीब 183 (नाम)
मेरे लिए किसी का नाम पहचान की एक संज्ञा है, उसके अर्थ का कोई महत्व नहीं होना चाहिए। मेरा पूरा नाम ईश नारायण मिश्र है, पहले पूछने पर पूरा नाम ही बताता था। उस समय हमारे यहां ईश जैसे छोटे नामों का चलन नहीं था। 12 साल की उम्र में कक्षा 9 में पढ़ने शहर (जौनपुर) गया और टीडी (तिलक धारी) सिंह इंटर कॉलेज में में दाखिला लिया। टीडी डिग्री कॉलेज से मेरे सबसे छोटे फूफा, सीताराम पांडेय के सबसे छोटे भाई, संत प्रसाद पांडेय (संतू फूफा) बी. एस्सी कर रहे थे, वे मुझे ईश बुलाते थे, तो मुझे नाम का नारायण अनावश्यक लगा और मैंने व्यवहार में उसे हटा दिया. दस्तावेजों में पूरा नाम ही रहा. English शैक्षणिक लेखों और सरकारी दस्तावेजों में Ish N. Mishra लिखने लगा। अंग्रजी के अखबारी लेख और हिंदी के लेख ईश मिश्र नाम से ही लिखता रहा। उसके बहुत बाद में पढ़ा कि वर्गविहीन समाज में राज्य अनावश्यक होकर बिखर जाएगा। दूसरी अनावश्यक चीज मुझे अपनी चुर्की (चुटिया) लगी उससे भी मुक्ति पा लिया। जनेऊ की अनावश्यकता महसूस करने में एक और साल लग गया। अब कहता हूं कि मैंने तो 13 साल की ही उम्र में जनेऊ से छुटकारा लेकर बाभन से इंसान बनना शुरू कर दिया। इसी लिए Ish Mishra नाम से मेरा पुराना फेसबुक अकाउंट जब अलभ्य हो गया तो नया अकाउंट Ish N. Mishra नाम से खोल लिया।
बहुत ही सीमित देश-दुनिया वाले दूर-दराज के एक गांव के 12-13 साल के लड़के की वैचारिकी और चेतना इतनी विकसित नहीं होती कि वह इसका अंतर्निहित वैचारिक महत्व को समझता। जहां तक मुझे याद है एक दिन बाल कटवाने गया तो चोटी अनावश्यक लगी तो कटवा दिया, वही जनेऊ के साथ भी हुआ और उसके बाद नाम क नारायण के साथ।
शिक्षा और ज्ञान 356 (लेटरल एंट्री)
सरकार के बिहारी सहयोगियों के असहयोग से देश संघ के बहुत से प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों की सेवा से वंचित रह गया। सरकारी आदेश से संघ लोक सेवा आयोग ने नौकरशाही के उच्च पदों पर सीधी भर्ती (लेटरल एंट्री) का विज्ञापन वापस ले लिया। बाल स्वयंसेवक चरण से ही नौकरशाही (सिविल सर्विसेज) में घुसकर राष्ट्रसेवा करने की तमन्ना रखने वाले तरुण स्वयंसेवक अच्छी-से-अच्छी कोचिंग के बावजूद मंडलीय साजिश के चलते संंघ लोक सेवा की परीक्षा में थोडा पीछे रह जाने के चलते अपनी सेवाओं से निजी क्षेत्र को चमकाते रहे। जब देश में राष्ट्रवादी सरकार आयी तो उसने राष्ट्रसेवा में बाल से प्रौढ़ हो चुके स्वयंसेवकों के वांछनीय योगदान की अहमियत समझ, सीधी भर्ती का प्रावधान अपनाया।इससे जो स्वयंसेवक सीधी परीक्षा से राष्ट्रसेवा से वंचित रह गए थे, उन्हें सीधी भर्ती से राष्ट्रसेवा का अवसर प्रदान किया। दूसरे शब्दों में राष्ठ्र को उनकी सेवा से उपकृत होने का अवसर प्रदान किया। बुरा हो सरकार के इन कृतघ्न सहयोगियों का जिन्होंने राष्ट्र को कई प्रतिबद्ध, प्रतिभाशाली स्वयंसेवकों की सेवा से वंचित कर दिया। कहा जाता है कि पहले नेपाल में राजा के प्रति वफादारी प्रदर्शन के कंपटीसन का एक उत्सव होता था, सफल प्रतियोगियों को राजा मनमांगी पदवी/उपाधि देता था।
FB Intro
An atheist, feminist and Marxist by conviction with optimistic passion for revolutionary reconstruction of the world free from all kinds of jingoism.
Born in a remote, educationally and politically backward; economically and culturally pre-modern; and socially patriarchal, Varnaashramist feudal pocket of Azamgarh district in the eastern UP in India, was the second of the nine children of my parents, both of whom are no more. I began the the journey of life on zig-zag paths of tension between acquired and the rational moralities due to the innate wont of questioning anything and everything and aiming for the impossible from the early childhood, may be learnt from my mother who never questioned anything and derived happiness in suffering for others. The first causality of my this wont was my antina (Chutia) JANEOO (the sacred thread) -- the symbol of my Brahman caste -- at 13 and within 2 years I overcame the fear of the BHOOT (ghost) with the help of Gods(As a child I used to think that BHAGVAN is just another God like Hanuman; Ram; Shiva..) followed by my overcoming of the fear of the God itself. The process of questioning anything and everything always has the risk of turning into an atheist and by the age of 17, I became an authentic atheist, free from the fears of the BHOOT and the BHAGWAN. At 18 with declaring the financial independence from my farmer father (cash was otherwise also rarity in those days' subsistence rural economy), I learnt to enjoy the pleasure of zero balance life while doing seemingly impossible. In the early 1970s, when the revolution semed round the corner, alongwith millions of young men and women across the globe, dreamt of buliding a beautiful world free from exploitation; starvation; and domination-subjugation -- a world of human emancipation and continuing with that dream, contributing my bit towards it.Rousseau showed us in the 18th century that revolution is not only desirable but possible also. I restate that.Monday, August 19, 2024
शिक्षा और ज्ञान 355 (उच्च शिक्षा)
भ्रष्टाचार मुक्त मोदी युग में देशद्रोही मीडिया वाले सुविधा-शुल्क को दलाली कहकर अलग चाल-चरित्र वाली पार्टी के नेताओं का चरित्र हनन कर रहे हैं। यूनिवर्सिटी की नियुक्तियों में प्रोफेसरों की मठाधीशी (गॉडफादरी) हमेशा ही चलती रही है, अच्छेल चाल-चलन-चरित्र वाले कुछ राजनैतिक फेसिलिटेटर कुछ सुविधा-शुल्क भी वसूल ले रहे हैं तो इसमें क्या बुराई है? इतना जरूर है कि धर्मपिताओं (गॉडफादरों) के धर्मपुत्र-पुत्रियों में कुछ पढ़ने-लिखने वाले भी होते थे लेकिन जब लाखों में नौकरी खरीदने वाले पढ़ाने में भी मेहनत क्यों करेंगे? मेरे जैसे नास्तिकों की समस्या यह थी कि ज गडवै नहीं है तो गॉडफदरवा कहां से होगा? मुझसे सहानुभूति जताने वाले लोग जब कहते कि मेरे साथ बहुत नाइंसाफी हुई, नौकरी बहुत देर से मिली। मैं कहता था कि पहली बात यह कि एक अन्यायपूर्ण समाज में निजी अन्याय की शिकायत क्यों? निजी न्याय सुनिश्चित करने के लिए, समाज को न्यायपूर्ण बनाना होगा, निजी आजादी के लिए समाज को आजाद करना पड़ेगा। दूसरी बात यह कि सवाल उल्टा है, देर से ही सही मिल कैसे गयी? कुछ दिनों पहले अग्रज प्रो. रमेश दीक्षित से पेसन रुकी होने की बात हो रही थी, रमेश भाई ने विनोद भाव से कहा कि उन्हें तो अभी तक विश्वास नहीं हो रहा है, कि मुझे नौकरी मिल गयी थी और रिटायरमेंट तक चल गयी। पहले प्रोफेरों की कृपापात्रता के पीछे 'दयाभाव' होता था, ग्लोबलाइजेसन के कॉरपोरेटी युग में कृपापात्रता खरीदनी पड़ती है।श
Friday, August 16, 2024
नारी विमर्श 26 (मर्दवाद)
कविता भी शेयर कीजिए। मर्दवाद (पुरुषवाद) जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं, विचारधारा है, विचारधारा उत्पीड़क और पीड़ित दोनों को प्रभावित करती है। कई लोग कहते हैं स्त्रियों पर स्त्रियां ही अत्याचार करती हैं, वे ऐसा विचारधारा के वशीभूत करती हैं। विचारधारा सांस्कृतिक वर्चस्व निर्मित करती है जो वैचारिक ही नहीं, भौतिक बल का भी काम करती है। विचारधारा (मिथ्या चेतना) हमारे रोजमर्रा के क्रिया-कलापों; विमर्श, रीति-रिवाजों और कर्मकांडों से निर्मित होती है। बेटी को बेटा कहकर शाबाशी देना भी मर्दवाद की विचारधारा को पुष्ट करता है। सिर्फ पुरुष ही नहीं स्त्रियां भी बेटियों को बेटा कहकर साबाशी देती हैं और बेटियां भी उसे शाबाशी के रप में ही लेती हैं। मेरी बेटियों को कोई बेटा कह देता है तो वे अपना विरोध दर्ज करती हैं। आर्थिक रूप से स्वतंत्र स्त्री भी तथाकथित स्वेच्छा से सामाजिक अधीनता की भूमिका अदा करती हैं। यह 'स्वेच्छा, स्वेच्छा से नहीं सांस्कृतिक वर्चस्व के बल के दबाव में निर्मित कृतिम स्वेच्छा है। लेकिन स्त्री प्रज्ञा और दावेदारी का रथ, धीरे-धीरे ही सही, काफी आगे बढ़ चुका है, वह दिन दूर नहीं जब स्वेच्छा का मतलब अधीनता नहीं, समानता होगा। मेरी बेटी की स्त्रीवाद पर एक फिल्म का शीर्षक है, "F for Equality".
Thursday, August 15, 2024
जय भीम लाल सलाम
तुकबंदी में एक कमेंट
बिना किए कुछ नहीं होता
बिना लड़े कुछ नहीं मिलता
बिना कुछ किए इंसान ज हो जाता है
बिना लड़े गुलामी ढोता है
हक के एक एक इंच के लिए लड़ना पड़ता है
लड़ने के लिए पढ़ना पड़ता है
जाति के विनाश के लिए क्रांति की जरूत है
क्रांति के लिए जाति के विनाश की
दोनों के लिए सामाजिक चेतना के जनवादीकरण की
जिसके रास्ते के गतिरोधक हैं
जातिवाद और जवाबी जातिवाद
दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं
नया सिक्का ढालने की जरूरत है
जिसके एक तरफ हो सामाजिक न्याय और दसरी तरफ आर्थिक न्याय
जिका संकल्प हो जय भीम लाल सलाम
इंकिलाब जिंदाबाद।
100 साल के राम दरश मिश्र
जब मैं, जो मिल गयी, हिंदू कॉलेज (दिल्ली विश्वविद्यालय) की उस नौकरी का , इंटरविव देकर रात 10 बजे मॉल रोड पर घर जाने के लिए बस का इंतजार कर रहा था तो स्वस्फूर्रत रूप से, स्वगत राम दरश मिश्र जी की ये पंक्तियां गुनगुनाने लगा।
'जहां आप पहुंचे छलांगें लगाकर, वहां हम भी पहुंचे मगर धीरे धीरे, ..........'
पिछली और इस शताब्दी के महान साहित्यकार, राम दरश मिश्र जी को 100वीं जयंती पर बधाई एवं स्वस्थ सक्रिय दीर्घायु की शुभकामनाएं।
"बनाया है मैंने ये घर धीरे-धीरे,
खुले मेरे ख़्वाबों के पर धीरे-धीरे।
किसी को गिराया न ख़ुद को उछाला,
कटा ज़िंदगी का सफ़्रर धीरे-धीरे।
जहाँ आप पहुँचे छ्लांगे लगाकर,
वहाँ मैं भी आया मगर धीरे-धीरे।
पहाड़ों की कोई चुनौती नहीं थी,
उठाता गया यूँ ही सर धीरे-धीरे।
न हँस कर न रोकर किसी में उडे़ला,
पिया खुद ही अपना ज़हर धीरे-धीरे।
गिरा मैं कहीं तो अकेले में रोया,
गया दर्द से घाव भर धीरे-धीरे।
ज़मीं खेत की साथ लेकर चला था,
उगा उसमें कोई शहर धीरे-धीरे।
मिला क्या न मुझको ए दुनिया तुम्हारी,
मोहब्बत मिली, मगर धीरे-धीरे।"
कई साल पहले उनके रंगकर्मी, ज्येष्ठ पुत्र हेमंत का हृदयाघात से निधन हो गया था तथा अभी कुछ महीने पहले ही उनकी पत्नी सरस्वती जी के निधन जीवन से जीवन में कुछ रिक्तता आ गयी है। उनका सबसे छोटा, लेखक-अभिनेता, बेटा विवेक उनके जीवन और कृत्य पर एक नाटक तैयार कर रहा है। पिछले वर्ष अपने 99वें जन्मदिन समारोह में बैठकर बोलने के लोगों के आग्रह को टालकर खड़े होकर कड़कती आवाज लगभग एक घंटा अपनी सर्जन यात्रा बोले।
100 वीं वर्षगांठ मुबारक हो, सर। सलाम।
Wednesday, August 14, 2024
शिक्षा और ज्ञान 354 (हिदेनबर्ग)
सारा-का-सारा मृदंग मीडिया अडानी की होरा-फेरी में सेबी की मुखिया की मिलीभगत के हिंदेनबर्ग के खुलासों से ऐसी बौखलाई हुई है जैसे इन खुलासों से उनके मृदंगी अस्तित्व पर खतरा आ गया हो! भाजपा के सारे प्रवक्ता लट्ठ लेकर हिंदेनबर्ग के पीछे ऐसे पड़े हैं जैसे उसने अडाणी को घपलों की नहीं उनके हिंदू-राष्ट्र के कॉरपोरेटी शगूफे की पोल खोल दी हो!! और सरकार के मंत्री-संत्री हिंदेनबर्ग पर को ऐसे कोश रहे हैं जैसे कि उसने देश पर किसी परलौकिक शक्ति का हमला करवा दिया हो!!!
शिक्षा और ज्ञान 353 (हिंदू-मुसलमान)
Prof Gopeshwar Singh की राजमोहन गांधी की किताब 'मुस्लिम मन का आइना' की समीक्षा की पोस्ट पर एक कमेंट:
भारत में सांप्रदायिकता औपनिवेशिक निर्मिति (construction) है। 1857 में में दिखी हिंदुस्ततानी एकजुटता के दुःल्वप्न से त्रस्त औपनिवेशिक शासकों ने बांटो-राज करो की नीति के तहत धर्म के अंतर्विरोध की बुनियाद पर दोनों ही समुदायों से सहयोगी की तलाश शुरू कर दिया। 1905 में बंगाल का बंटवारा देश के बंटवारे का रिहर्सल था, तब तक उपनिवेश-विरोधी विचारधारा के रूप मे उभरते भारती राष्ट्रवाद को हिंदू-मुसलमान यानि हिंदुस्तानकी आवामी एकजुटता ने रिहर्सल को बाधित कर दिया। भारतीय राष्ट्रवाद ठोस रूप लेता रहा लेकिन उसके बाद के 40 सालों में औपनिवेशिक शासक अपने विश्वस्त सहयोगियों -- मुस्लिम लीग-जमाते इस्लामी और हिंदू महासभा-आरएसएस की मदद से सांप्रदायिक नफरत फैलाकर आवामी एकजुटता में दरार डालने में सफल रहे, रिहर्सल तो नहीं हो सका लेकिन अभूतपूर्व रक्तपात तथा अनैतिहासिक विस्थापन के साथ औपनिवेशिक शासक मंचन में सफल रहे। विभाजन के घाव नासूर बन न जाने कितनी पीढ़ियों तक रिसते रहेंगे, विभाजन के खून के धब्बे न जाने कितनी बरसातों में धुलेंगे? दुलेंगे तो सही, हमारे जीवन मे न सही हमारी नतनियों या पर नतनियों के जीवन में ही सही। इतना तो तय है कि यदि देश न बंटता तो इस भूखंड के किसी भी खंड में सांप्रदायिक (धार्मिक कट्टरपंथी) ताकतों को पनाह महीं मिलती। इसीलिए ब्राह्मणवाद अखंड भारत के शगूफे कितने भी छेड़े, अखंड भारत की कल्पना को हकीकत नहीं बनने देगा। हिंदुत्व ब्राह्मणवाद की ही राजनैतिक अभिव्यक्ति है।
Monday, August 12, 2024
मार्क्सवाद 302 (उमर)
आज 'भगत सिंह अंबेडकर स्टूटेंट्स ऑर्गनाइजेसन (बासो)' के संस्थापक सदस्य, उदीयमान, जनवादी इतिहासकार, डॉ. उमर खालिद का जन्मदिन है। उमर संविधान के प्रति अपनी अडिग निष्ठा तथा सांप्रदायिकता विरोधी प्रतिबद्धताओं तथा संविधान की धर्मनिरपेक्ष भावना की धज्जियां उड़ाने वाले सांप्रदायिक नागरिकता कानूनों (सीएए) के विरोध के चलते पिछले लगभग 4 सालों से फर्जी आरोपों में जेल में है। उम्मीद है उमर भगत सिंह और एंतोनियों ग्राम्सी की क्रांतिकारी विरासत को आगे बढ़ाते हुए जेल में
क्रांतिकारी बौद्धिकता को आगे बढ़ा रहा होगा। कॉ. उमर को जन्मदिन की बधाई और क्रांतिकारी बौद्धिकता की नई ऊंचाइयां गढ़ने-चढ़ने की शुभकामनाएं। इंकिलाब जिंदाबाद।Saturday, August 10, 2024
सुनो विनेश फोगाट
सुनो विनेश फोगाट
उनसे कह दो कि तुम इस शाबाशी से इंकार करती हो
उसूलों के लिए बेटा बनकर नहीं बेटी बनकर लड़ती हो
बेटियों को बेटा की शाबाशी मर्दवादी सोच है
सोना-चांदी की लड़ाई तो हर कोई लड़ सकता है
तुम अन्याय के खिलाफ उसूलों की लड़ाई लड़ती हो
सलाम तुम्हारे जज्बे को
न तुम्हारी जीत नई है न उनकी हार नई है
लड़ती रहो, नई ऊंचाइयां गढ़ती-चढ़ती रहो
तुम्हारे जज्बे को सलाम करता हूं
Friday, August 9, 2024
हार-जीत
हारे हुए खिलाड़ी की मां ने कहा
जो जीता है, वह भी मेरा बेटा है
Wednesday, August 7, 2024
Echoes of Emergency (Publishrd in Countercurrent on 25.06.2020)
Echoes of Emergency
Ish Mishra
The CPI (ML -
Liberation) office in Varanasi was raided at midnight without the search
warrant, a couple of days ago. The process of the arrest under the draconian
law UAPA of human rights activists and intellectuals beginning with the arrest
of 90% handicapped, Delhi University Professor GN Saibaba is going on
unabated since the last few of years. Taking the advantage of pandemic
Government is arresting the anti-CAA movement activists under fabricated
charges. The pregnant Jamia scholar and anti-CAA activist Saroofa Zargar has
been released on bail by Delhi High Court. Several activist students of JNU,
Jamia and Delhi University are being warranted under the draconian UAPA
resembling MISA of emergency fame. The activists Natasha Narwal and Devangna
Kalita of Pinjda Tod, a Delhi based women’s rights organization, have
been arrested under UAPA. Just like the present state of undeclared emergency,
the charges were subsequently fabricated after the arrest, during the declared
emergency also, four and half a decade ago. The renowned writer and Professor
of Hindi, Dr Raghuvansh (late) almost 100% handicapped was charged with
disrupting the power supply of the city. Exactly 45 years ago (25 June 1975),
the then Prime Minister of the country, Mrs Indira Gandhi, with the absolute
majority in the Parliament, began the repression of political opponents after
declaring the emergency at the mid night. History does not repeat itself, only
echoes. The present echoes of the emergency promulgated 45 years ago are quite
frightening.
Indira Gandhi was
quite perturbed by the popular discontent emanating from the anti-corruption students’
movement. In the meanwhile the Sanjay Gandhi coterie has emerged as an
extra-constitutional, parallel power center. With Allahabad High Court decision
nullifying her parliamentary election from Rae Bareli in 1971, in desperation
with absolute majority in Parliament she imposed emergency on 25 June 1975
suspending the constitutional rights. Sanjay Gandhi is said to have played the
role of catalyst. With the strict censorship most of the editors and media
became subservient, the very few defiant ones, like Kuldip Nair were
incarcerated. 42nd Amendment passed by the parliament greatly
enhanced the powers of the PM. Thousands
of people were put behind the bars under the colonial law DIR (Defense of India
Rule) and the newly introduced, draconian law MISA (Maintenance of Internal
Security Act) through 42nd Amendment. Today the rights of the
workers enjoined by labor laws are being hampered by ordinances. The
intellectuals, students and human rights activists raising the voices of dissent are being incarcerated
under the draconian, repelled MISA like UAPA. Without formal censorship the
media, particularly the electronic media has been subservient to the government
and the ruling party. The non-conforming journalists are being harassed in
various ways.
The
centralization of political power began with the beginning of the first term of
Modi government in 2014. In fact the process can be considered to have begun
with the campaign of the 2014 parliamentary elections by sidelining the veteran
BJP leaders and assumption of the central role by Modi. The process of the
centralization and concentration of political power by Indira Gandhi, had a
humble beginning in 1967 that climaxed by 1974. The then Congress President DK
Barua went to the extent of the declaration, “Indira is India and India is
Indira”. On the same pattern, recently the BJP spokesperson Sambit Patra
declared on TV that criticism of the PM is attack on the nation. Like Modi’s
electoral plank of development., Indira Gandhi set her agenda around the slogan
of the eradication of poverty, “Garibi Hatao”. The courageous progressive steps
of the abolition of privy purses of the erstwhile royal families and the
nationalization of banks added to her charismatic image. In the storm of her
popularity the veteran powerful leaders of the undivided Congress, known as the
members of the syndicate, the Congress (O) after the split in 1969 were
uprooted and blown away. The absolute parliamentary majority made her
authoritarian. The war with Pakistan and subsequent creation of Bangladesh
added new feathers to her. The Congress MPs and MLAs were like her minions and
zealots. By 1974 her Charisma began to wilt and student’s movement gave a blow
to it. After the Allahabad High Court decision, she imposed emergency. The Supreme
Court judges were superseded. The conscientious judges resigned. Today the
judiciary seems to have become subservient to executive on its own.
The BJP led NDA under the leadership
of Narendra Modi, sidelining all the senior, prominent party leaders, came to
power with substantial parliamentary majority in the 2014 general elections in
the aftermath of communal riots in Muzaffarnagar and Shamli districts of UP in
2013. In 2019 elections held after Pulwama terrorist attack on the CRPF convoy
and Balkot “surgical strike”, Modi came to the power with the
unprecedented absolute majority as supreme. The last six years of BJP rule
under Modi has been fatal for democracy and democratic institutions.
Modi
began its first tenure by making the constitutional institutions like planning
commission etc. as subservient to the government. It filled the institutions like Indian Council of Historical
Reserch (ICHR), IIFT, NCERT etc with conformist people with doubtful
credentials. Its attack on educational institutions is ongoing. JNU is its main
target as it is the first fortress of resistance. The echoes of emergency being
heard today in the state of undeclared emergency after 45 years of the declared
one are quite frightening.
25.06.2020