कविता पर प्रो. Pankaj Mohan की एक सारगर्भित पोस्ट पर एक हल्का फुल्का कमेंट:
मैं भी उसी कोटि का कवि हूं जिसे छंद-लय और शब्दसैष्ठव तथा काव्य विन्यास का पता नहीं है। वैसे छपास की इच्छा तो है लेकिन छपास की वैसी आत्ममुग्धता नहीं है, न ही किसी प्रतिष्ठित प्रकाशन से छपवाने की जुगाड़।
एक बार एक अजीज लेखक-शायर दोस्त (अब दिवंगत) ने फेसबुक पर तुकबंदी में मेरे एक कमेंट पर पूछा कि वह कविता थी कि वक्तव्य मैंने कहा था कि मैं तो वक्तव्य देता हूं कभी गद्य में तता कभी पद्य में। लगभग हजार तुक-अतुकबंदियां हो गयी हैं, एक संकलन के छपास की इच्छा तो मेरी भी है, लेकिन उनमें से 100-150 चुनने की जहमत नहीं उठा पाया। एक कवि मित्र ने 7-8 साल पहले कुछ 'कविताएं' छांटा था जिन्हें एक फोल्डर में कागजों के बियाबान में किताबों की ही तरह कुछ कबर्ड्स में ठूंस दिया है। बुक सेल्फ बनवाने का जुगाड़ होने के बाद उन फोल्डरों को भी सहेजने की कोशिस करूंगा। कैंपस की कोठी की अपनी झोपड़ी की लाइब्रेरी में बहुत जगह थी, रिटायरमेंट के बाद पूरी पेंसन बहाली का इंतजार करते हुए बुक सेल्फ के लिए कुछ पैसे जुटाता हूं, फिर कोई काम आ जाता है और जुटने के पहले ही वे खर्च हो जाते हैं। एक प्रोफेसर की बुकसेल्फ शीर्षक से कहानी लिखना शुरू किया लेकिन फिलहाल वह भी बीच में ही अटकी पड़ी है, देखिए वह बुक-सेल्फ की जुगाड़ के पहले पूरी होती है कि नहीं?
दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन के परसंताफी सुख ही प्यास कितनी अधिक है कि 5 साल से अधिक समय से मेरी नृशंस, अमानवीय प्रताड़ना तथा निर्मम मानसिक उत्पीड़न करने पर भी नहीं बुझ रही है। यह तो मैं जानता हूं कि इस नतमस्तक समाज मे सिर उठाकर जीना मंहगा शौक है लेकिन नौकरी मिलने तक; नौकरी के दौरान तथा रिटायरमेंट के बाद अब तक इस शौक की काफी कीमत चुका चुका हूं, जान से चुकाने मन नहीं हो रहा है। लेकिन लगता है अन्याय के प्रतिरोध और न्याय पाने का वही रास्ता बचा है और इज्रायल द्वाराफिलिस्तीनी जनसंहार के प्रतिरोध में जान देने वाले अमेरिकी सैनिक आरोन बोस्नेन की मौत की ही तरह मेरी मौत का भी दुनिया पर कोई असर नहीं पड़ेगा। मेरे पास आमरण अनसन के अलावा कोई रास्ता नहीं बचा है, जिसमें जान जाने का खतरा ही नहीं है, जान जाना सुनिश्चित है। मैं दिल का मरीज हूं तथा नियमित दवा खाना अनिवार्य है और उससे पहले कुछ भोजन। यह महज संयोग भी हो सकता है कि रिटायर होने के लगभग 2 महीने पहले दिल का दौरा भी उसी दिन पड़ा था जिस दिन पता चला कि प्रशासन मेरी पेंसन के साथ गड़बड़ करने वाला है। लेकिन अन्याय सहते हुए जीने से बेहतर न्याय के लिए लड़ते हुए मरना बेहतर है, वैसे फिलहाल इस कदम पर अभी नहीं सोच रहा हूं।
क्षमा कीजिए टेक्स्ट के बीच में फुटनोट से टेक्स्ट गौड़ हो गया, जो अच्छे लेखन का दोष है। यदि थोड़ा अधिक जिंदा रहा तो बुकसेल्फ का जुगाड़ नहीं हो पाया तब भी मित्र द्वारा छांटी हुई कविताओं में से और कुछ नए सिरे से छांटकर, 10-20 हजार खर्चकर 80-100 कविताओं का संकलन छपवाकर कवि होने का आत्मसंतोष हासिल करके रहूंगा। हा हा।
Friday, April 26, 2024
बेतरतीब 176 (बुकसेल्फ)
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