1974 के स्वस्फूर्त छात्र आंदोलन में नेतृत्व का निर्वात सा था, जिसे जयप्रकाश नारायण ने भरा। जेपी 1950 के दशक से भूदान, सर्वोदय, दलविहीन जनतंत्र के अपरिभाषित अमूर्त शगूफों के राजनैतिक विभ्रम के दौरों से गुजरते हुए 1970 के दशक के शुरुआती दिनों तक राजनैतिक अप्रासंगिकता से ग्रस्त हो चुके थे। 1934-42 का दौर संयुक्त वाम का दौर था और इस दौर में वामपंथी तत्वाधान में किसान-मजदूर-छात्र संगठन बने और राष्ट्रीय आंदोलन में प्रभावी भूमिका निभाया। कम्युनिस्ट पार्टी अवैध घोषित थी कानपुर-मेरठ मुकदमों में ज्यादातर कम्युनिस्ट नेता जेल में थे, बाकी के लिए 1934 में गठित कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी (सीएसपी) की सदस्यता उपलब्ध थी। नंबूदरीपाद संस्थापक सहसचिव थे, आचार्य नरेंद्रदेव अध्यक्ष और जेपी सचिव थे। आचार्य जी और जेपी मार्क्सवाद से प्रभावित थे तथा अशोक मेहता, लोहिया आदि मीर्क्सवाद विरोधी थे। सीएसपी के संस्थापना दस्तावेज की प्रस्तावना में लिखा है कि कांग्रेस सोसलिस्ट पार्टी का गठन मार्क्सवाद की विचारधारा से प्रभावित कांग्रसजनों ने किया। सीएसपी के सबसे उम्रदराज नेता 35 साल के आचार्य नरेंद्रदेव थे। 1972 में जेएनयू सिटी सेंटर (35 फिरोजशाह रोड) पर जेपी की एक मीटिंग में 40-50 लोग थे। जेपी ने तथाकथित संपूर्ण क्रांति में आरएसएस को विशेष प्रश्रय देकर सामाजिक स्वीकार्यता प्रदान की। लोहिया-दीनदयाल समझौते के तहत 1967 में समाजवादियों ने जनसंघ के साथ मिलकर संविद सरकारें बनाई और 1977 में जनता पार्टी ने आरएसएस की संसदीय विंग के प्रसार का पथ प्रशस्त किया।
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