सांप्रदायिक चेतना की व्यापकता और विपक्ष की दृष्टिहीनता देखते हुए फिलहाल तो फासीवादी शासन साश्वत लगता है। वैसे देश की इस दुर्दशा की जिम्मेदारी प्रमुखतः हमारे ( वामपंथ के) अकर्मों की है। यूरोप में नवजागण और प्रबोधन (एनलाइटेनमेंट) क्रांतियों ने जन्मगत सामाजिक विभाजन समाप्त कर दिया था इसीलिए मार्क्स-एंगेल्स ने 1848 में कम्युनिस्ट घोषणापत्र में लिखा कि पूंजीवाद नें अंतर्विरोध को सरल करके समाज को पूंजीपति (बुर्जुआ) और सर्वहारा के विपरीत खेमों में बांट दिया। हमारे यहां नवजागरण और प्रबोधन क्रांतियों के समतुल्य क्रांतियों के अभाव में सामाजिक संरचना जटिल बनी रही जिसके लिए मार्क्स-एंगेल्स ने विशिष्ट उत्पादन पद्धति-एसियाटिक उत्पादन पद्धति की अवधारणा प्रतिपादित किया। इस सामाजिक क्रांति की जिम्मेदारी भी हमारी ही थी, लेकिन हमने सोचा कि जाति का विनाश क्रांति का स्वस्फूर्त उपपरिणाम होगा और जातिवाद (ब्राह्मणवाद) के प्रतिवाद में जवाबी जातिवाद (नवब्राह्मणवाद) पैदा हुआ और दोनों एक दूसरे के पूरक के रूप में सांप्रदायिक फासीवाद के ईंधन-पानी हैं तथा सामाजिक चेतना के जनवादीकरण (वर्गचेतना के प्रसार) के रास्ते के बड़े गतिरोधक। आप से सहमत हूं कि सांप्रदायिक राजनीति के आज के हालात की जड़ें राजीव गांधी के शासनकाल से फैलना शुरू हुईं तथा कांग्रेस भाजपा के साथ प्रतिस्पर्धी सांप्रदायिक खेल में उलझ गयी। दुश्मन के हथिार से उसीके मैदान में लड़ाई में हार निश्चित है। साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी की वफादारी में भी दोनों एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी है, जिस पर बाद में।
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