मेरा भी परिचय विनोद दुआ से एक रंगकर्मी के रूप में ही हुआ था। मैं 1976 में आपातकाल में भूमिगत रहने (रोजी-रोटी की जुगाड़ के साथ) की संभावनाओं की तलाश में इलाहाबाद से दिल्ली आ गया और इलाहाबाद विवि के सीनियर डीपी त्रिपाठी को खोजते हुए जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे लेकिन उनके मित्र घनश्याम मिश्र के जरिए इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी और रहने की जुगाड़ हो गयी तथा गणित के ट्यूसन से रोजी-रोटी का। 1977 में आपातकाल के बाद जेएनयू में दाखिला लिया और अक्सर लंच के बाद मंडी हाउस में अड्डाबाजी करने जेएनयू बस से सप्रू हाउस आ जाता था। भूमिका अनायास लंबी हो गयी। एक बार रवींद्र भवन के लॉन में कुछ युवा रंगकर्मियों से मुलाकात हुई जो एमके रैना के ग्रुप प्रयोग से विद्रोह कर अलग ग्रुप बना लिए थे। उनमें विनोद दुआ भी थे। बाकी जो नाम याद हैं वे हैं वीरू (वीरेंद्र सक्सेना), सुधीर और सुधांशु (दिवंगत) मिश्रा जिनकी बहन सुनीता मिश्रा जेएनयू में थी, नीना गुप्ता (शायद) और तनुजा चतुर्वेदी। बादल सरकार के प्रसिद्ध नाटक पगला घोड़ा का रिहर्सल कर रहे थे, मुझे भी ग्रुप में शामिल कर लिया। उसके बाद विनोद के कई नाटक देखे। बाद में विनोद टीवी पत्रकार हो गए तो मुलाकातें बहुत कम हो गयीं। प्रेस क्लब 2-4 मुलाकातें हुईं लेकिन टीवी पर उनके कार्यक्रमों में भी रंगमंचीय रचनाशीलता की झलक मिलती थी। वे मुझे एक विद्रोही रंगकर्मी और निडर पत्रकार के रूप में हमेशा याद रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि।
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