हम हाई स्कूल-इंटर में पढ़ते हुए बिलवाई (नजदीकी छोटा स्टेसन) से जौनपुर बिना टिकट चलते थे, मैं शुरू में टिकट लेता था (अद्धा 50 पैसे में) लेकिन सब बिना टिकट चलते थे तो मैंने भी लेना बंद कर दिया। इलाहाबाद आने पर अक्सर बस से ही जाता था कभी कभी एजे से प्रयाग से जौनपुर।फर्स्ट यीयर में एक बार प्रयाग से एजे का जौनपुर का टिकट खरीदा लेकिन छूट गय़ी तो फैजाबाद की एएफ पकड़ लिया । दोनों जगह से अगली सुबह पैसेंजर से बिलवाई लगभग उतना ही पड़ता है। प्रतापगढ़ में मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गयी। सबको पकड़ पकड़ दो सौ, सिफारिश करने पर 3 सौ का जुर्माना लग रहा था। मैंने बड़ी मासूमियत से टिकट दिखाया, वे बोले गलत टिकट बिना टिकट होता है, मैं अनजान बनता बताया कि एजे के टाइम पर एजे ही समझकर बैठ गया। उन्होंने मेरी मासूमियत पर यकीन कर लिया और छोड़ दिया। मेरे घर से करीब 12 किमी दूर फैजाबाद (अब अंबेडकरनगर) जिले के एक लड़के ने अपने घर खबर देनेको कहा। मैं बस से प्रतापगढ़ से शाहगंज गया और अगली सुबह साइकिल से उसके घर जाकर खबर दी। उसके बाद बिना टिकट चलना बंद कर दिया।
शाहगंज हमारे गांव से सबसे नजदीकी बड़ा (जंक्सन) स्टेसन है। उससे नजदीक बिलवाई है जहां लोकल-पैसेंजर गाड़ियां ही रुकती हैं। मेरा बिना टिकट (बिलवाई से जौनपुर) वाला समय 1967-72 था। कक्षा 10 में एक बार एक टीटी टकराए। पूछे टिकट? जेब टटोलकर मैंने कहा नहीं है। पूछे क्यों, मैंने बहुत मासूमियत से कहा कि खरीदना भूल गया। पूछे किस क्लास में पढ़ता हूं? दसवीं बताने पर, छोटा समझ अविश्वास से देखते हुए टेस्ट करने के लिए अंग्रेजी और गणित के कुछ सवाल पूछा। सही सही जवाब देने पर खुश होकर बोले कि इतना अच्छा लड़का हूं, टिकट लेकर चलना चाहिए। मैंने उन्हे परामर्श का धन्यवाद देकर आश्वस्त किया कि आगे से टिकट लेकर चलूंगा।
यह 1968-69 की बात है, घटना की जो भी स्मृतियां हैं, बहुत खुशमिजाज इंसान लगे थे। एक तो प्राइमरी में 2 कक्षाओं की कूद-फांद के चलते अपनी क्लास (10वीं) के हिसाब से कम उम्र (13-14 साल) का था और दुबले-पतले लड़के अपनी उम्र से भी कम लगते हैं। जब मैंने कहा कि टिकट खरीदना भूल गया तो मुस्कराकर क्लास पूछ लिया। शुरू में उन्हें लगा कि मैं बढ़ाकर क्लास बता रहा हूं तब उन्होंने अंग्रेजी और गणित के कई सवाल पूछ दिए। सबका सही उत्तर सुनकर खुश हुए और सलाह दिए कि टिकट खरीदना न भूला करूं।
जी एजे बिना स्टेसन के जगह जगह रुकते चलती थी। जंघई में बहुत देर तक रुकती थी, हम लोगलउतरकर बाजार में चाय-पानी के लिए चले जाते थे।
मेरे एक सहपाठी मित्र के पिता स्टेसन मास्टर थे। उस समय रेलवे के किसी पन्ने पर नाम और उम्र के साथ अस्थाई पास बन जाता था। उस समय थर्ड क्लास भी होता था लेकिन स्टेसनमास्टर के परिजनों का पास शोफे सी सीट वाले फर्स्ट क्लास का होता था। एक बार (1970) उसके पास से कलकत्ता गया 3 दिन रहा। मेरे गांव के एक स्कूलमें बाबू वहां रहते थे, उनका पता खोज कर मुलाकात कर ली, लेकिन मैं उनके साथ रुका नहीं। घूम-घाम, खा-पीकर कर सियालदेह स्टेसन आकर फर्स्ट क्लास रिटायरिंगरूम में सो जाता था। 3 दिन बाद वापस जौनपुर आ गया।
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