सभी सार्वजनिक प्रतिष्ठान आमजन के हैं, न कर्मचारियों के बाप के हैं न उन्हें औने-पौने दामों में अपने आका धनपशुओं को बेचने वाले सरकार में बैठे राजनेताओं के बाप की। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को सरकारें अकर्मण्यता एवं भ्रष्टाचार से नाकाम साबित कर कर उन्हें मुनाफीखोरी के लिए औने-पौने दामों में अपने पोषक धनपशुओं को बेचने के लिए जनमतमत तैयार करने के प्रचार के लिए भक्तों की ड्यूटी लगा देती हैं। यह समझने के लिए राजनैतिक अर्थशास्त्र जानने की जरूरत नहीं है। सहजबोध (common sense) की बात है कि व्यापारी का मकसद येन-केन प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाना होता है जो जनकल्याण और सेवा से नहीं लूट-खसोट और चोरी-बेइमानी से किया जा सकता है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी का एक जनपक्षीय प्रगतिशील कदम था। मौजूदा सरकार के अंधभक्त उनके बारे में दुष्प्रचार और निजी बैंकों के महिमामंडन से उन्हें दुबारा धनपशुओं के हवाले करने की भूमिका तैयार कर रहे हैं।
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