प्राकृतिक सौंदर्य की गोद में सृजन और सुंदर हो जाता है। वैविध्यपूर्ण इस दुनिया में सौंदर्य कि विविधता है। मैदानों के अपने सौंदर्य हैं, हां सपाट भूगोल में कभी कभी कुछ लोगों की संवेदना भी सपाट हो जाती है और रचनाशीलता भी। काश मैदानी लोग प्राकृतिक रिक्तता को रचनाशीलता से भरते!! लेकिन रचनाशीलता की जगह वह निर्वात वे छल-फरेब और विद्वेष भरते हैं। 1973-74 में जबनिर्वात शब्द से पहली बार परिचय हुआ तो लिखा गया था 'सच है निर्वात नहीं रहता पहले तुम थे अब अवसाद' आज समाज के बारे में लिखूंगा तो लिखाएगा, 'सच है निर्वात नहीं रहता, पहले सौहार्द था, अब विद्वेष; पहले राष्ट्र निर्माण की बात होती थी, अब विखंडन की; पहले हवा में तिरता था, हम हिंदुस्तानी, अब हम हिंदू-मुसलमान'।
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