यूपीएससी के परीक्षाफल में सफल भारत सरकार प्रशासन के सभी भावी अधिकारियों को बधाई तथा संविधान के प्रति निष्ठा की सपथ निभाने की शुभकामनाएं।
Tuesday, September 28, 2021
शिक्षा और ज्ञान 332 (ईमानदारी)
Tuesday, September 21, 2021
ईश्वर विमर्श 102 (महंत की मौत)
आज सुबह ही आनंद गिरि की तस्वीरें सोशल मीडिया पर दिखाई दीं...क्या ही ठाट हैं बन्दे के..यह वह लोग हैं जो आम जनता को माया मोह,काम क्रोध से दूर रहने के उपदेश देते हैं ,और ख़ुद इंद्र का वैभव लजाये ऐसा जीवन जीते हैं...
Friday, September 17, 2021
बचपन 17 (मझुई)
मेरा भी गांव मझुई के किनारे है। मैं बड़की बाढ़ (1955) में 1-2 महीने का था, मां-दादी बताती थीं कि बहुत ऊंचाई पर होने के नाते हमारे घर में तो पानी नहीं घुसा था लेकिन बाकियों के साथ हमारे घर वाले भी बाग में चले गए थे। बचपन में एक बार बाढ़ के पानी में डूबते डूबते बचा था। 1971 की बाढ़ में तिघरा नामक गांव के पास टौंस और मझुई मिलकर बह रही थीं, सड़क पर नाव चल रही थी। पहले जून में भी नहाने-तैरने भर का बहता पानी रहता था, अब तो अक्टूबर-नवंबर तक मझुई सूख जाती है।
दक्षिण अफ्रीका की मुक्ति के लिए (1985)
34 साल पहले का एक लेख
Wednesday, September 15, 2021
बेतरतीब 112 (1971)
घटना स्थल -- टीडीयस इंटर कॉलेज, जौनपुर (उप्र)
वर्ष -- 1971
16.09.2017
बेतरतीब 111 (प्राइमरी)
अंकगणित संबंधी एक पोस्ट पर कमेंट:
4 साल बाद यह पोस्ट दुबारा उतरा गई (यह शब्द बहुत दिन बाद ध्यान में आया बचपन में नदी या तालाब में डूबती चीज ऊपर आ जाती तो उसे उतराना कहते थे)। स्कूल में गणित में किसी के फेल होने की बात पर ताज्जुब होता था कि गणित जैसे 'सीधे-सादे' विषय में कोई कैसे फेल हो सकता है? हमारे बचपन में हमारा गांव शैक्षणिक रूप से इतना पिछड़ा था कि सभी सवर्ण पुरुष भी साक्षर नहीं थे। हम जब (1959) स्कूल जाना शुरू किए तो ज्यादातर सवर्ण लड़के स्कूल जाने लगे थे और कुछ (बहुत कम) लड़कियां भी। स्कूल जाने वाले दलित और पिछड़ी जातियों के लड़कों की संख्या नगण्य थी, लड़कियों की बात ही छोड़िए। मेरा मुंडन पांचवी साल में हुआ था। इसलिए उसके [ 5 साल का होने (26 जून 1960) के] पहले यानि 1959-60 सत्र में मैं कुछ दिन बड़े भाई के साथ कभी कभी स्कूल जाता तो था लेकिन लड़के लड़की कह कर चिढ़ाते थे, इसलिए अक्सर बीच में ही वापस चला जाता था। औपचारिक रूप से 1960-61 सत्र में स्कूल की गदहिया गोल (प्री प्राइमरी) में भर्ती हुआ। उस समय वहां प्राइमरी में दो ही विषय पढ़ाए जाते थे -- भाषा और गणित (अंक गणित)। 3 क्लास रूम थे और 3 शिक्षक। कनिष्ठतम शिक्षक गदहिया गोल और कक्षा एक, उसके बाद वाले कक्षा 2 और 3 तथा हेडमास्टर कक्षा 4 और 5 को पढ़ाते थे। माफ कीजिएगा गिनती ज्ञान पर बात करना चाहता था लेकिन लंबी भूमिका हो गयी। दोपहर बाद गदहिया गोल और कक्षा 1 के विद्यार्थी बाहर गर्मी जाड़े के हिसाब से क्रमशः पेड़ के नीचे या धूप में गिनती और पहाड़ा याद करते थे। एक लड़का सामने खड़ा होकर बोलता था बाकी दुहराते थे। 10 के बाद दहाई -इकाई में रटाया जाता। 10 एक ग्यारह एक दहाई एक काई (इकाई) ---- दस नौ उन्नीस एक दहाई नौ काई .......... नब्बे नौ निन्यानबे नौ दहाई नौ काई। इसलिए कभी कन्फूजन नहीं हुआ। शुरू में उनासी और नवासी में होता था लेकिन जल्दी खत्म हो गया। 20 तक पहाड़ा याद करने में मुझे समझ आ गया कि 10 तक का पहाड़ा याद हो जाए और किसी भी संख्या में 1 से 9 का जोड़ आ जाए तो किसी भी संख्या का पहाड़ा जाना जा सकता है। जैसे 43 का पहाड़ा जानना हो तो 40 (4 के दस गुने) के पहाड़े में 1 से 9 का पहाड़ा जोड़ते जाइए। 43 सत्ते (40 सत्ते 280 में 3 सत्ते 21 जोड़ दीजिए) 301 होगा। 5 साल के बच्चे में गिनती के ज्ञान से हमारे शिक्षक (पंडित जी) ने क्या देखा कि बीच सत्र में गदहिया गोल से कक्षा 1 में प्रोमोट कर दिया। कक्षा 2 और 3 में बाबू साहब ने पढ़ाया। उस समय एक मुंशी जी हेड मास्टर थे जो कक्षा 4 और 5 को पढ़ाते थे। ब्राह्मण शिक्षक पंडित जी कहलाते थे, ठाकुर (राजपूत) बाबू साहब, भूमिहार राय साहब तथा अन्य जातियों के मुंशी जी और मुसलमान शिक्षक मौलवी साहब। हम जब (1963 में) कक्षा 4 में पहुंचे तो मुंशीजी रिटायर हो गए तथा कक्षा 4 और 5 में भी बाबू साहब ने ही पढ़ाया। एक ही कमरे में कक्षा 5 की टाट जहां खत्म होती थी कक्षा 4 की वहीं से शुरू होती थी तथा मैं कक्षा 4 की टाट पर सबसे आगे बैठता था। साल में एक-दो बार डिप्टी साहब (एसडीआई) स्कूल में मुआयना करने आते थे। डिप्टी साहब का मुआयने पर आना स्कूल और गांव के लिए खास परिघटना होती थी। मुआयने में डिप्टी साहब ने कक्षा 5 वालों से गणित (अंकगणित) का कोई सवाल पूछा सब (7-8 लड़के) एक एक कर खड़े होते गए और मेरा नंबर आ गया। मैंने तुरंत सही जवाब बता दिया। डिप्टी साहब ने खुश होकर साबाशी दी तो बाबू साहब ने उत्साहित होकर बताया कि मैं कक्षा 4 का विद्यार्थी था। डिप्टी साहब बोले 'इसे कक्षा 5 मे कीजिए'। अगले दिन मैं कक्षा 5 की किताबें (भाषा और गणित) और कॉपियां (2 गोपाल छाप नोटबुक) लेकर आया और कक्षा 5 की टाट पर बैठा। कक्षा 5 वाले कुपित नजरों से देख ही रहे थे कि बाबू साहब आ गए और चकित भाव से मुझसे वहां बैठने का कारण पूछा और मैंने तपाक से कह दिया, 'अब मैं कक्षा 5 में पढ़ूंगा'। उन्होंने तंज करते हुए (अवधी में) कहा कि लग्गूपुर (7-8 किमी दूर नजदीकी मिडिल स्कूल) पढ़ै जाब्य तो सलारपुर के बहवा में बहि जाब्य (पढ़ने जाओगे तो सलारपुर [रास्ते का एक गांव] के बाहे में बह जाओगे) (खेतों से बरसात के पानी के निकासी के नाले को बाहा कहा जाता था)। मैंने कहा, 'अब चाहे बहि जाई या बुड़ि जाई, डिप्टी साहब कहि देहेन त अब हम पांचै में पढ़ब' और इस तरह मैं कक्षा 4 से 5 में प्रोमोट हो गया। अंकगणित पर टिप्पणी के बहाने इतना आत्मकथात्मक विवरण हो गया तो थोड़ा और सही। पांचवी की परीक्षा ब्लॉक स्तरीय बोर्ड की परीक्षा होती थी। परीक्षा के कुछ दिन पहले माता माई (चेचक) की चपेट में आ गया। सब लोग परीक्षा देने से मना करने लगे लेकिन मैं परीक्षा देने की जिद पर अड़ा रहा। रात में अइया (दादीजी) ने जल छुआया (माता माई की विदाई का कर्मकांड)। सुबह 7 बजे घर से 4-5 किमी दूर परीक्षाकेंद्र पहुंचने के लिए सूर्योदय से पहले बड़े भाई के साथ निकल पड़ा। दोपहर तक लिखित परीक्षाएं देने बाद परीक्षकों को मेरे चेचक की जानकारी हो गयी और शिल्प आदि की परीक्षाओं के लिए अलग बैठा दिया गया। परीक्षाफल अच्छा रहा लेकिन चेचक के कई दाने पक कर फोड़े बन गए, कुछ के निशान अभी भी हैं। 1964 में 9 साल से कम उम्र में प्राइमरी पास कर लिया। उस समय हाईस्कूल (कक्षा 10) बोर्ड की परीक्षा की न्यूनतम आयु 15 साल थी। टीसी बनाते समय 1969 की 1 मार्च को 15 साल का करने के लिए 1954 की फरवरी की जो भी तारीख (03) बाबू साहब के दिमाग में आई उसे मेरी जन्मतिथि दर्ज कर दिया। मेरे पिताजी फैल गए कि लोग 2-3 साल कम आयु लिखाते हैं और वे मेरी ज्यादा लिख रहे हैं। परीक्षा की बात समझाने पर वे मान गए। इस तरह जून 2020 की बजाय एक साल 4 महीने पहले मैं फरवरी 2019 में रिटायर हो गया। लेकिन कोई बात नहीं, बस पढ़ाने का सुख थोड़ा ओर कम हो गया।
Thursday, September 9, 2021
नारी निमर्श 21
सांस्कृतिक वर्चस्व अदृश्य बाध्यकारी ताकत है जो अधीनस्थ से स्वेच्छथा पूर्वक अधीनता स्वीकार करवाती है, शोषक शोषित का शोषण शोषित की सहमति से करता है, शासक शासित पर उसकी सहमति से शासन करता है। सांस्कृतिक वर्चस्व के चलते मर्दवादी समाज में स्त्रियां ''स्वेच्छा'' से अधीनस्थता स्वीकार करती हैं। मर्दवादी सांस्कृतिक वर्चस्व या मर्दवादी वैचारिक मिथ्या चेतना को रीति-रिवाजों, तीज-त्योहारों, नित्यप्रति के क्रिया कलापों तथा विमर्श से निर्मित, पुनर्निर्मितल तथा पोषित किया जाता है। मर्दवाद (Gender) जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं बल्कि विचारधारा (मिथ्या चेतना) है जिसके मूल्यों को पलने-बढ़ने में समाजीकरण के जरिए हम स्वाभाविक प्रवृत्ति समझकर अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लेते हैं जिससे मुक्ति के लिए साहसिक सामाजिक और आत्मसंघर्ष की नजरूरत होती है। विचारधारा शोषक या उत्पीड़क को ही नहीं शोषित या पीड़ित को भी प्रभावित करती है। किसी लड़की को पुरुष ही नहीं, स्त्रियां भी बेटा कहकर साबाशी देती हैं और लड़कियचां भी इसे साबाशी मानकर खुश हो जाती हैं। मर्दवाद चूंकि विचारधारा है इससे लड़ाई भी मूलतः वैचारिक है। हमें अपने रोजमर्रा के जीवन तथी विमर्शों में हर कृत्य और हर शब्द में इसे नकारना होगा। इसे (लैंगिक भेदभाव की विचारधारा) नकारने या लैंगिक समानता की स्थापना की वैचारिक लड़ाई ही विचारधारा के रूप में स्त्रीवाद का मूल है। जरूरत सामाजिक उत्सवों को विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों से मुक्त कर स्वरूप बदलने की है, उन्हें नया जनतांत्रिक अर्थ देने की है।
शिक्षा और ज्ञान 331 (शिक्षक बनने की प्राथमिकता)
शिक्षक बनना बिरले लोगों की ही प्रथम प्राथमिकता होती थी/है। बीएससी करते हुए, मैंने जब प्रतिस्पर्धी परीक्षाएं न देने का फैसला किया तो सभी प्रोफेसन्स पर विचार करने के बाद मुझे लगा अध्यापन ही मेरे लिए उपयुक्त है। उसके बाद नौकरी की मेरी दूसरी प्रथमिकता कोई रही ही नहीं। बीएससी में पिताजी से पैसा लेना बंद करने के बाद गणित का ट्यूसन पढ़ाकर रोजी कमाना शुरू किया और महसूस किया कि गणित जानने वाला किसी शहर में भूखों नहीं मर सकता। 1980 से जेएनयू में राजनीति में शोध करते हुए डीपीएस में गणित पढ़ाता था। 1985 में डीपीएस छोड़ने के बाद गणित से रोजी न कमाने का निर्णय किया। विवि में नौकरी मिलने तक कलम की मजदूरी से घर चलाता रहा।
फुटनोट 260 (नरसिंह राव)
एक कांग्रेसी मित्र ने लिखा कि भारत के समाजवादी अर्थतंत्र को पूंजीवाद में बदलने वाले नरसिंह राव ने 1996 में कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़कर कांग्रेस की पराजय का पथ प्रशस्त किया। उस पर --
Monday, September 6, 2021
लल्ला पुराण 306 (ग्रुप में भर्ती)
कल एक इविवि के ग्रुप में भर्ती पर आभार ज्ञापन:
Sunday, September 5, 2021
शिक्षा और ज्ञान 330 (शिक्षक दिवस)
मुझे जीवन में कुछ बहुत ही अच्छे शिक्षक मिले, प्राइमरी में एक रामबरन मुंशी जी थे, जो वरिष्ठतम शिक्षक और प्रधानाध्यापक होने के नाते कक्षा 4 और 5 को पढ़ाते थे। मैं जब कक्षा 4 में पहुंचा तो वे रिटायर हो गए थे। पतुरिया जाति के थे इसलिए लोग पीठ पीछे उनके प्रति अवमाननापूर्ण लहजे में बात करते थे। उनका आचरण और छात्रों के प्रति उनका स्नेह बहुत मोहक था। मुझे जब भी मिलते गणित या भाषा का कोई सवाल पूछ कर पीठ ठोंकते। जब भी घर जाता उनसे अक्सर मुलाकात हो जाती। अंतिम मुलाकात सन् 2,000 में हुई, साइकिल चलाकर चौराहेबाजी करने आते थे। 1963 में रिटायर हुए, 2,000 में कम-से-कम 97 साल के रहे होंगे। मिडिल स्कूल, हाई स्कूल, इंटर में एक-दो ऐसे शिक्षक अवश्य मिले जिनसे प्रभावित हुआ। 2012 में मिडिल स्कूल (1964-67) के अपने एक शिक्षक से घर से 40 किमी दूर मिलने गया तो वे बहुत गद गद हुए। इवि में कुछ शिक्षक ऐसे मिले जिनकी स्मृतियां अक्षुण हैं। प्रो. बनवारीलाल शर्मा से जब भी इलाहाबाद जाता अवश्य मिलता। जेएनयू के कुछ शिक्षकों के प्रभाव में तो जीवनपद्धति ही बदल गयी और कुछ के पढ़ाने के तरीके ने मेरे पढ़ाने की पद्धति को प्रभावित किया। शिक्षक दिवस पर अपने सभी शिक्षकों और छात्रों को बधाई।
शिक्षा और ज्ञान 329 (गणित)
टीचर बनना बिरले लोगों की ही प्रथम प्राथमिकता होती थी/है। बीएससी करते हुए, मैंने जब प्रतिस्पर्धी परीक्षाएं न देने का फैसला किया तो सभी प्रोफेसन्स पर विचार करने के बाद मुझे लगा अध्यापन ही मेरे लिए उपयुक्त है। उसके बाद मैंने दूसरी प्रथमिकता कोई रही ही नहीं। बीएससी में पिताजी से पैसा लेना बंद करने के बाद गणित का ट्यूसन पढ़ाकर रोजी कमाना शुरू किया और महसूस किया कि गणित जानने वाला किसी शहर में भूखों नहीं मर सकता। 1980 से जेएनयू में राजनीति में शोध करते हुए डीपीएस में गणित पढ़ाता था। 1985 में डीपीएस छोड़ने के बाद गणित से रोजी न कमाने का निर्णय किया। विवि में नौकरी मिलने तक कलम की मजदूरी से घर चलाता रहा।