असाधारण क़ानून और जनतंत्र : भारत का नव-मैकार्थीवाद
ईश मिश्र
नक्सलवाद-विरोधी
अभियान के तहत बीज-महोत्सव में शिरकत करने एकत्रित, आदिवासियों की सभा पर अंधाधुंध
गोलीबारी करके १२ से १६ साल के ४ बच्चों समेत १९ आदिवासियों की छत्तीसगढ़ पुलिस और
सी.आर.पी.एफ. द्वारा नियोजित ह्त्या, जलियाँवाला बाग की एक और पुनरावृत्ति है. हिंदू
में छपी एक खबर के अनुसार ४ किशोरियों का ह्त्या के पहले यौन-उत्पीडन भी हुआ था. यह
तमाम भूमण्डलीय कारपोरेटों के साथ केन्द्र एवं राज्य सरकारों के अनुबंधों(MOU) का सम्मान करने के लिए आदिवासियों
को बेदखल करने की दीर्घकालीन कार्यनीति की एक और कड़ी है. “मुठभेड़” के बाद तुरंत बाद
गृह मंत्री, चिदंबरम ने मारे गये
आदिवासियों को, सी.आर.पी.एफ. के निदेशक के सुर-में-सुर मिलाते हुए, अविलम्ब उन्हें
उसी तरह माओवादी घोषित कर दिया. जैसे आनातंक-वाद
विरोधी तथाकथित मुठभेड़ों में आडवानी जी मृतकों
के नाम-पता के साथ उनके पाकिस्तानी होने की घोषणा कर देते थे. अब जब छत्तीसगढ़ के कांग्रेसी
भी इसे फर्जी मुठभेड़ बताने लगे, तब भी चिदंबरम साहब निश्चितता से कहते हैं कि जो मारे
गए सब माओवादी थे अगर कोई निर्दोष मारा गया तो उसका उन्हें खेद है. अमेरिकी स्वचालित
ड्रोन विमानों से पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमान्त इलाकों में आतंकवादियों की ह्त्या
की जाती है और मारे गए निर्दोषों के लिए ओबामा साहब खेद व्यक्त कर देते हैं.
गौरतलब है कि इन गाँव को २००५ में पुलिस और सलवाजुडूम ने तहस-नहस कर दिया था,
गावों के लोग आतंक से अगल-बगल के इलाकों में भाग गए थे. २००९ में लोग फिर वापस आये
और तिनका-तिनका जोड कर फिर से गाँव बसाया. लेकिन अब लोग भी लड़ने को तैयार हैं, अब भागेंगे
नहीं. गौरतलब है कि तमाम जनतांत्रिक संगठनों द्वारा इन अनुबंधों को सार्वजनिक करने
की मांग को सरकारें अनसुनी करती रही हैं. बहुत से गाँवों के तमाम गाँव वाले पड़ोसी
राज्यों, उड़ीसा और आँध्रप्रदेश में शरण लिए हुए हैं. यह माओवाद-विरोधी अभयान के नाम
पर, नरसंहारों और तरह तरह के जोर-ज़ुल्म से आदिवासियों को आतंकित करके, भूमण्डलीय कार्पोरेटी
पूंजी द्वारा उनकी प्राकृतिक संपदाओं के दोहन और शोषण के लिए के जनता के विरुद्ध अघोषित
युद्ध है. इसके लिए विशिष्ट परिस्थियों के नाम पर, सरकारें गैरकानूनी गतिविधि निरोधक
क़ानून(यू.ए.पी.ए.) जैसे असाधारण काले क़ानून बनाती हैं.
मानवाधिकार
कार्यकर्ता एवं पत्रकार सीमा आज़ाद एवं विश्व विजय को, इलाहाबाद की एक अदालत ने गैरकानूनी
गतिविधि रोक थाम अधिनियम(यू.ए.पी.ए.) की विभिन्न धाराओं के तहत माओवादी होने और लोगों को नक्सल बनने को प्रेरित
करने के आरोप में आजीवन कारावास दे दिया.
ये दोनों, पति-पत्नी, एक मानाधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरटीज का(पी.यू.सी.एल.)
के सक्रिय कार्यकर्त्ता हैं और तमाम किस्म के माफिआओं और उनके राजनतिक आकाओं
की सांठ-गाँठ का भंडाफोड़ करते थे. सीमा पी.यू.सी.एल की उत्तर प्रदेश इकाई की
संगठन-मंत्री हैं और दस्तक पत्रिका की संपादक. सीमा दस्तक में
अपने लेखों के जरिये इलाहाबाद और कोशाम्बी
जिलों के सैंड-माफिया और लैंड-माफिया के साथ राजनेताओं के घनिष्ट संबंधों को
तथ्यों और तर्कों से उजागर करती थी. कारपोरेट घरानों के लिए
जमीन अधिग्रहण के विरुद्ध किसानों के आन्दोलनों के बारे में लिखती थी. फरवरी २०१०
में दिल्ली पुस्तक मेले से किताबें खरीद कर वापस इलाहाबाद आ रहीं थी कि स्टेसन पर
ही पुलिस ने इन्हें गिरफ्तार कर लिया. कहा गया कि उनके पास से आपत्तिजनक साहित्य
पाया गया है जिससे इनका माओवादी होना साबित होता है. डा. विनायक सेन का मामला तो
सर्वविदित है जिन्हें माओवादी समर्थक होने के आरोप में २ साल बंद रखा गया और व्यापक
अभियान के बाद उच्चतम न्यायालय से उन्हें जेल से बाहर निकल सके. व्यवस्था और उसकी
लूट का विरोध करने वाले कितने ही राजनैतिक कार्यकर्ता और आंदोलनकारी देश की
विभिन्न जेलों में अमानवीय यातना सहते हुए जी रहे हैं. टाटा के लिए भूमि-अधिकरण के
विरुद्ध विस्थापन बिरोधी जनमंच के नेतृत्व में चल रहे आंदोलन के सभी
कार्यकर्ताओं और नेताओं पर दर्जनों फर्जी मुकदमें हैं और जैसे ही कोई गाँव से बाहर
निकलता है, गिरफ्तार कर लिया जाता है. १६ आंदोलनकारी मारे जा चुके हैं. विस्थापन
बिरोधी जनमंच की महिला प्रकोष्ठ की पूर्व अध्यक्ष सिनी सेनोय को माओवादी कहकर
गिरफ़्तार कर लिया. यही हाल सारे विस्थापन-विरोधी, खनन-विरोधी, भूमि आन्दोलनों के
नेताओं और कार्यकर्ताओं पर भी लागू होती है. पास्को-प्रतिरोध संघर्ष समिति के
अध्यक्ष, अभय साहू जैसे ही प्रतोरोध क्षेत्र छोड़ कर किसी सम्मेलन में भाग लेने
बाहर गए किसी पुराने फर्जी मामले में गिरफ्तार कर लिए गए. नारायणपटना के
शान्ति-पूर्ण भूमि आंदोलन के कार्यकर्ताओं का माओवादी बताकर दमन किया जा रहा है. नारायण
पात्रा को स्कूल शिक्षिका सोनी सोरी के साथ माओवादी होने के आरोप में अमानवीय
अत्याचार लगातार ख़बरों में रहा है और उसके जनानागों में कंकड-पत्थर डालने जैसे
घृणित दुष्कर्म को अंजाम देने वाले पुलिस अधिकारी को ममता बनर्जी से जादवपुर
विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने एक सभा में उनके एक साल के बहुप्रचारित सुशासन पर
कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ दिया तो वे गुस्से में उसे और तमाम छात्रों-शिक्षकों पर
माओवादी होने का शक जाहिर करते हुए गुस्से में सभा से निकल गयीं. सुनते हैं
गुप्तचर विभाग को इनकी निगरानी का निर्देश दिया है. गणतंत्र दिवस पर सम्मानित किया
जाता है. ममता बनर्जी से जादवपुर विश्वविद्यालय की एक छात्रा ने एक सभा में उनके
एक साल के बहुप्रचारित सुशासन पर कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ दिया तो वे गुस्से में
उसे और तमाम छात्रों-शिक्षकों पर माओवादी होने का शक जाहिर करते हुए गुस्से में
सभा से निकल गयीं. सुनते हैं गुप्तचर विभाग को इनकी निगरानी का निर्देश दिया है. यह तो अति-संवेदंशीएल(एक्स्पेस्नल)
परिस्थितियों के लिए बनाए गए असाधारण (एक्स्ट्रा-आर्डिनरी) कानूनों के तहत
राजनैतिक विरोधियों और लोकतांत्रिक तकातों के दमन के अनंत समुच्चय के चंद
उप-समुच्चय हैं. विरोध को कुचलने की सरकारों की इस तरह की प्रवृत्ति को
नव-मैकार्थीवाद कहा जा सकता है.
मार्क्स और एंगेल्स
ने १८४८ में कम्युनिस्ट घोषणा पात्र के प्राक्कथन में पोलेमिकल अंदाज़ में लिखा कि
कम्युनिज्म का भूत यूरोप का पीछा कर रहा था. उसके १०० साल बाद वह भूत अमेरिका में
साक्षात अवतरित हो गया. शीत-युद्ध के इस शुरुआती दौर में कम्युनिज्म और सोविएत संघ
के प्रभाव का भय चरम पर था. रिपब्लिकन सेनेटर मैकार्थी ने सरकारी प्रतिष्ठानों,
विश्वविद्यालयों,शोध-संसथानों, फिल्म-उद्योग; संस्क्रतिकर्मेमियों; स्कूल
शिक्षकों, छात्रों की एक लंबी सूची तैयार किया (हालीवुड ब्लैक-लिस्ट) जिन पर
कमुनिस्ट/कम्युनिस्ट समर्थक यानि सोवियत जासूस होने और देश द्रोह एवं गद्दारी के
आरोप लगाए. इस “अतिसंवेदनशील” थिति से
निपटने के लिए अमेरिकी प्रशासन ने कई “असाधारण क़ानून” बनाए. कम्युनिस्ट गतिविधियों
की जांच के लिए कांग्रेस ने गैर अमेरिकी गतिविधियों की हाउस कमेटी(House Committee on Un-American Activities); सेनेट की आंतरिक सुरक्षा कमेटी(Senate Internal Security Committee ) और जांच पर सेनेट की स्थायी कमेटी( Senate Permanent Sub Committee on Investigations) का
गठन किया. १९४९ से ११९५४ के दौरान इन कमेतियों ने १७९ जांच किया. कालान्तर में
मैकार्थीवाद बिना किसी साक्ष्य के देश-द्रोह या सोवियत जासूस का आरोप लगाने और
असाधारण कानूनों के तहत विरोधियों के उत्पीडन का पर्याय बन गया.आज के हिन्दुस्तान के हालात
१९५० के दशक के अमेरिका में मैकार्थीवाद(मैकार्थिजम) की याद दिलाता है. यह दौर
अमेरिका के इतिहास में लाल आतंक का दूसरा दौर नाम से जाना जाता था.
आज हिन्दुस्तान के
शासक वर्गों को नक्सलवाद का भूत सता रहा है. दर-असल नक्सलवाद का हौव्वा खडा करके
इनका मकसद लूट-भ्रष्टाचार और शोषण के मुख्य मुद्दों से ध्यान हटाना और
साम्राज्यवाद और आम जनकता के मुख्य अंतर्वोरोध की धार को कुंद करना है. मैकार्थिज्म के तहत किसी को भी कम्युनिस्ट
समर्थक होने के संदेह में तरह तरह की यातनाएं दी जाती थीं. आइन्स्टाइन जैसे
विज्ञानिकों पर एफ.बी.आई. निगरानी रखती थी. ............... ने सूचना की अधिकार के
तहत प्राप्त सामग्रियों को संपादित करके आइन्स्टाइन फ़ाइल शीर्षक से एक
पुस्तक प्रकाशित किया है. एफ.बी.आई के निदेशक एडगर होवर ने २३ साल तक आइन्स्टाइन
की खुफियागीरी किया, उन्हें सोवियत जासूस साबित करने और नागरिकता ख़म करने के
प्रयास में उनके फोन टेप करने और चिट्ठियाँ पढ़ने का काम एफ.बी.आई करती रही थी.जिस
तरह १९५० के दशक में अमेरिका में, सेनेटर मैकारथी की समाज के विभिन्न
तप्कों/व्यवसायों में कम्युनिस्टों की मौजूदगी की मनगढंत सूची के आधार पर “लाल आतंक” का हौव्वा खड़ा करके, तमाम काले
कानून बनाए जिनके तहत किसी भी कलाकार, वुद्धिजीवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता का
मैकार्थिज्म के तहत “लाल शिकार” किया जा सकता था, उसी तरह की प्रवृत्ति आज किसी भी
विरोध को दबाने के लिए, आदिवासी इलाकों में कारपोरेट को खुली लूट की छूट के कंटकों
को हटाने के उद्देश्य से विस्थापन विरोधी आन्दोलनों को कुचलने के लिए माओवाद का
हौव्वा खड़ा करके भारत की सरकारें संविधानेतर क़ानून बबनाकर लोगों के मानवाधिकारों
का हनन करती रही हैं. १९५३ में, अंतर्राष्ट्रीय स्टार पर आइन्स्टीन और अन्य
समकालीन बुद्धिजीवियों और मनावाहिकार कार्यकर्ताओं के अथक प्रयास के बावजूद, मैनहट्टन परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक
पति-पत्नी, जुलिअस और ईथैल रोजेनबर्ग, कम्युनिस्ट समर्थक यानी सोविएत जासूस के
आरोप में सिंग-सिंग चेयर पर बैठने से नहीं बच सके. जिस पर भी संदेह हुआ उसे ‘हाउस
ऑफ अन-अमेरिकन कमेटी’ के सामने पेश हो कर ‘गुनाह’ कबूल करना पड़ता या फिर ‘विशेष
अदालत’ में मुकदमा. सलवा जुडूम की तर्ज पर तमाम निजी जांच एजेंसियां और सुरक्षा इकाइयां
सरकारी प्रश्रय पर फूलीं-फलीं.
भारत के माननीय
प्रधान मंत्री, मनमोहन सिंह, माननीय गृह मंत्री श्री पी. चिदंबरम को हर बात में देश
के लिए नक्सलवाद देश की सभी समस्याओं की जद है और देश के लिए खतरा. माननीय गृह
मंत्री प. चिदंबरम एवं अन्य नेता चाहे परमाणु खतरे पर बोल रहे हों या भू-माफिया की
किसानों की जमीन से बेदखली पर; आकंठ व्याप्त भ्रष्टाचार पर या देश की बाजार को
बड़े-विदशी कापोरेट घरानों को गिरवी रख कर
लाखों लोगों को बेरोजगार करके उपभोक्ता को उनके रहमों करम पर छोड़ने का मामला हो
उन्हें एकाएक सभी का मूल नक्सलवाद/माओवाद नज़र आता है. इससे निपटने और आदिवासियों
तक “विकास” पहुंचाने” के लिए सुरक्षाबलों
की संख्या और सुविधाओं के लिए करोड़ों के बजट का ऐलान करते हैं. नक्सलवाद/माओवाद के
भूत का असर इन पर उस समय ज्यादा होता है जब ये अमरीका की तीर्थयात्रा से लौटे होते
हैं. नक्सलबाड़ी की विरासत के अन्य दावेदारों की उपस्थिति से अनभिग्य ये नक्सलवाद
और माओवाद का एक दूसरे के पर्याय के रूप में इस्तेमाल करते हैं. इनके ही नहीं,
नहीं देश के तमाम मंत्रियो-मुख्यमंत्रियों; सीपीयम समेत तमाम झंडों की पार्टियों
के लंबरदारों; नौकरशाहों-सुरक्षा अधिकारियों; “मुख्य-धारा” के पत्रकारों और
वुद्धिजीवियों, सभी पर रह-रह कर नक्सलवाद का भूत सवार होता रहता है.
इस लेख का उद्देश्य
मैकार्थीवाद का विश्लेषण या उसके तहत अमेरिकी तंत्र की बर्बर क्रूरताओं का वर्णन
करना नहीं है, न ही भारत की कम्युनिस्ट पार्टी की वैचारिक समझ या राजनैतिक
कार्रवाइयों की गुणवत्ता का मूल्यांकन है. वैसे हाल की आहान की कार्रवाइयों में
माओवादियों की मांगो का केन्द्रीय बिंदु निर्दोषों और नारायणपटना जैसे जनतांत्रिक
भूमि आंदोलानों के कार्यकर्ताओं की रिहाई है. अभी मध्यस्तों के माध्यम से
केन्द्रीय जैराम रमेश ने भी सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि छत्तीसगढ़, झारखंड,
उड़ीसा एवं माओवाद प्रभावित राज्यों की जेलों में सालों-सालों से अमानवीय यातना झेल
रहे आदिवासी निर्दोष हैं और उनपर फर्जी मुकदमें थोपे गए हैं. इसका मकसद यह दिखाना
है कि कथनी-करनी के साश्वत अंतर्विरोध के दोगले चरित्र का हिमायती संसदीय जनतंत्र
तभी तक जनतांत्रिक रहता है, जब तक कोइ ख़तरा न हो, राजनैतिक विरोध को हद पार करने
से रोकने के लिए, संविधानेतर, अजनतांत्रिक, असाधारण कानूनों का सहारा लता है.
विनायक सेन को
माओवादी समर्थक होने के आरोप में दो साल से अधिक जेल में रहने के बाद
अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर निरंतर अभियान के चलते जमानत मिल सकी. आदिवासी शिक्षिका
सोनी सोरी को माओवादी होने के आरोप में बंद करके हर युग की क्रूरतम बर्बरताओं को
धता बताते हुए उसके जननांगों में कंकड पत्थर ठूंसने की हद तक प्रताडित किया गया.और
दुनिया के सबसे बड़े जनतंत्र में इस ‘बहादुरी’ को अंजाम देने वाले ‘जांबाज’ पुलिस
अधिकारी को गणतंत्र-दिवस पर पदकों से सम्मानित किया गया. पत्रकार लिंगा कोदोपी भी
माओवादी होने के आरोप में जेल बंद यातनाएं झेल रहा है. विनायक सेन तो खुली हवा में
घूम रहे हैं लेकिन कितने और निर्दोष “गैर कानूनी” कानूनों के तहत जेल के सिकंजों
में बंद हैं. यह सब संविधान सम्मत असाधारण कानूनों के तहत किया जाता है.
विनायकसेन की ही तरह
न जाने कितने लोग अवैध गतिविधि रोकथाम अधिनियम(यु.इ.पी.इ.); छत्तीसगढ़ जन
सुरक्षा अधिनियम जैसे संविधानेतर, असाधारण कानूनों के तहत सालों साल से कितने
लोग हिन्दुस्तान की कितनी जेलों में बंद हैं?चर्चित फिल्म इन द नेम ऑफ फादर की
विषय-वास्तु, इंग्लैण्ड में गिल्ड फोर और
बिर्मिन्गम सिक्स जैसे चर्चित मुकदमों में निषेधात्मक बंदी
अधिनियम,(पी.दी.इ.) १९७४ के तहत संदेह के आधार पर बंद लोगों को अदालत ने १७
साल (१९७४-९१) जेल में रखने के बाद निर्दोष पाया गया. अमेरिका में, 9/11 के बाद PATRIOT जैसे असाधारण कानूनों के
तहत गिरफ्तारिया और उत्पीडन की कहानियां किम्वदंतिया बन चुकी हैं. “विशिष्ट
परिस्थियां” और उनसे निपटने के लिए, संविधान सम्मत “असाधारण“ क़ानून जनतांत्रिक
शासन के अभिन्न अंग बन चुके हैं. इस तरह के असाधारण कानोंओं के तहत भारत में
असंख्य लोग विभिन्न जेलों में अमानवीय स्थियों में रह रहे हैं. भारत के लोकतंत्रिक
शासन के ये अलोकतांत्रिक, असाधारण क़ानून न
र्सिर्फ़ कानूनी प्रावधानों को धता बताते हैं बल्कि लोकतंत्र और न्याय के
सिद्धांतों की भी धज्जियां उड़ाते हैं. इन लोकतांत्रिक क़ानूनॉन को संविधान की
मान्यता प्राप्त है और इन्हें अपरिहार्य अपवाद माना गया है.
भारत में असाधारण
कानूनों का इतिहास सविधान लागू करने के साल से ही शुरू हो जाता है. १९५० में
तेलंगाना किसान आंदोलन से निपटने के लिये तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने संसद
में निषेधात्मक बंदी अधिनियम (प्रिवेंटिव दितेंसन एक्ट पी.डी.ए.), १९५०
पारित कराया.१९५८ में नगा विद्रोह से निपटने के लिए फ़ौज को बिना किसी जवाबदेही के
असीमित अधिकार देने वाला सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम(आर्म्ड फोर्सेस
स्पेसल पावर ऐक्ट –ए.एफ.एस.पी.ए.),१९५८ आज भी पूर्वोत्तर राज्यों और काश्मीर
में लागू है और हजारों लोग मौत के शिकार हो सके हैं और बलात्कार एवं एनी
अत्याचारों की कहानियां अनंत हैं. गृह मंत्रालय में काश्मीर में फर्जी मुठभेड़ों और
सुरक्षाबलों के एनी जघन्य अपराधों के कितने मामले मुकदमें की अनुमति के लिए लटके
पड़े हैं. इस काले क़ानून के खात्मे की इरोम
शर्मीला की भूख हड़ताल गिन्नी’ज बुक में जा चुकी है. अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कितनी
गुहार लगाई जा चुकी है, पुस्तकें लिखी जा चुकी हैं लेकिन शर्मीला का जनतांत्रिक
अनसन से इस "जनतान्त्रिक सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगा.
१९७५-७७ के आपातकाल
के बाद इस तरह के कानूनों पर लंबी बहस के बाद मीसा जैसा फासीवादी क़ानून हटा तो
लेकिन उससे भी खतरनाक कानून बने. टाडा,१९८५ के तहत मासूमों पर तमाम तमाम ज़ुल्म इतिहास का
हिस्सा बन गया है. टाडा की जगह उसके सारे अधिनायकवादी प्रावधानों को समाहित करके
पोटा २००२ बना जिसका इस्तेमाल राजग सरकारों ने अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के लिए किया. पोटा को हटाकर अब यु.ए.पी.ए. बिया सुनवाई
गिरफ्तारी का क़ानून बन गया है. इसमें टाडा और पोटा दोनों के ही सारे अधिनायकवादी
प्रावधानों को समाहित किया गया है. अमेरिका में जिस तरह असाधारण कानूनों के तहत
जनतांत्रिक सोच का दमन हो रहा था कुछ वैसा ही नव्मैकार्थीवाद आज भारत में देखने को
मिल रहा है. देश की सभी जनतांत्रिक ताकतों को इन अजनतांत्रिक असाधारण कानूनों के
विरुद्ध लामबंद होने की जरूरत है.
"देश की सभी जनतांत्रिक ताकतों को इन अजनतांत्रिक असाधारण कानूनों के विरुद्ध लामबंद होने की जरूरत है." आपका कथन तो ठीक है किन्तु ये ताक़तें बजाए लामबंद होने के उनही ताकतों के गुण गाँ मे लग जाती है। अखिलेश यादव के शपथ ग्रहण समारोह मे कामरेड्स-प्रकाश करात,सीता राम येचूरी,ए बी वर्धन,अतुल अंनजान सभी तो उपस्थित थे। प्रणब मुखर्जी को भी सी पी एम का समर्थन है। जनता को अपने साथ बांध नहीं पाते फिर कैसे दमन का मुक़ाबला हो?
ReplyDeleteक्या बात है!!
ReplyDeleteआपकी यह ख़ूबसूरत प्रविष्टि कल दिनांक 02-07-2012 को सोमवारीय चर्चामंच-928 पर लिंक की जा रही है। सादर सूचनार्थ
शुक्रिया
ReplyDeleteओशिस तो किया हुआ नहीं. किसी विद्यार्थी की मदद से करूँगा.
ReplyDelete