Sunday, June 3, 2012

बचपन 1

मेरा बचपन सांस्कृतिक रूप से पूर्व-आधुनिक वर्णाश्रमी सामंती परिवेश में बीता है. मेरे नाम से स्पष्ट है कि मैं रेखा के किस तरफ रहा होऊंगा. जब से होश सम्भाला दादा की उम्र के लोगों की पैलगी की आदत लग गयी थी. जन्म के जीववैज्ञानिक संयोग से नहीं, परिवेश और समाजिककरण से "नैसर्गिक श्रेष्ठता" की भावना अपने आप दिल में बैठ जाती है, मैं भी अपवाद नहीं था. १०-११ साल की उम्र में किसी साधारण सी किंतु निर्णयकारी घटना ने मुझे इस श्रेष्ठता का आधार खोजने को विवश किया (जो मिला नहीं) तब मुझे विस्मय होने लगा दलितों के सहर्ष शोषण और अत्याचार् सहने पर. कामगार हमेशा संख्या में ज्यादा होते हैं. भौतिक श्रम करने से ताकत भी ज्यादा होती है तो क्यों अत्याचार बे-प्रतिकार सहते हैं? ११-१२ साल के बच्चे को विचारधारा के प्रभाव के बारे में मालुम न था. वर्चस्वशाली वर्ग के विचार शासक विचार भी होते हैं. आज दलित चेतना का जो दरिया झूम के उट्ठा है तिनकों से न ताया जाएगा. मान्यवरों, वही बात नारी-चेतना के बारे में भी है. मैं अपने छात्र-जीवन से अध्यापक जीवन के दौरान दोनों ही क्षेत्रों में जो बदलाव देखता हूँ तो दलित और फिमेल स्टुडेंट्स को कहता हूँ तुम लोग भाग्यशाली हो कि १-२ पीढ़ी बाद पैदा हुए.तुम जिन अधिकारों और अवसरों एवं आज़ादी का आनंद ले रहे हो वे लंबे संघर्षों के परिणाम हैं.

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