2002 में गुजरात नसंहार के बाद गोधरा के एक कान्वेंट स्कूल में, अलग-अलग फ्लैंक्स में बैठे लड़की-लडको की एक क्लास के स्टुडेंट्स से लंबा संवाद कर रहा था. हिंदू लड़कों से पूंछा क्या वे अपने मुस्लिम सहपाठियों से वैसी ही मित्रर्ता की बातें करते हैं जैसे हिंदू सहपाठियों के साथ? जवाब था, 'हम क्यों करें'? यही सवाल मुस्लिम स्टुडेंट्स से पूंछा, उनका भी वही जवाब था, "वे नहीं करते तो हम क्यों करें"? यही सवाल मैंने फिर लड़के,लड़कियों से पूंछा. हम क्यों करें? अरे भाई एक दूसरे से बात नहीं करोगे और दिमाग में फितूर लिए घूमोगे कि हिंदू ऐसे होते हैं, मुसलमान ऐसे होते हैं; लड़के ऐसे होते हैं लड़कियां ऐसी होती हैं. खुल कर बात करोगे तभी तो पता चलेगा कि शरीर के जीववैज्ञानिक फर्क और प्रजजन में भिन्न भूमिकाओं या जन्म की जीववैज्ञानिक दुर्घना के संयोग से भिन्न आस्थाओं से बावजूद सभी एक ही तरह के चिंतनशील इंसान हैं. असमानता के सारे पैरोकार, भिन्नताओं को श्रेष्टता-हीनता की असमानता के रूप में पारिभाषित करते हैं और गोल-मटोल तर्क (circular logic) से उसी परिभाषा से असमानताओं को सिद्ध करते हैं. इन सबका प्र-प्र-प्र... पितामह, अरस्तू कहता है जो विवेकहीन है वह दास है, विवेकहीनता का निर्धारण कैसे होगा? वे दास हैं इस सच्चाई से. यही बात वह महिलाओं के बारे में भी कहता है. हमें समझना पेडेगा कि भिन्नता असमानता नहीं है. समानता एक गुणात्मक अवधारणा है, मात्रात्मक नहीं.
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