१९८५-८६ की बात होगी. मैं अपनी वनस्थली में स्कूल में पढ़ती अपनी बहन के साथ घर जा रहा था, हमारे आस-पास एक हिन्दू परिवार था और कुछ बुरके वाली महिलायें थीं. तभी शिला-पूजन वगैरह के उन्मादी अभियान चलाये जा रहे थे. जैसा कि अक्सर होता है, 'वन-वर्सेज आल' बहस में उलझ गया. हिन्दू परिवार हमसे दूरी बना लिया और गोल टोपी वालों के चेहरों पर परेशानी झलक रही थी. मैं बाथरूम गया तो हिन्दू परिवार के पुरुष ने बहन से नाम पूंछा और उसने बता दिया फिर यह कि यह कि मैं उसका कौन हूँ? जब उसने भाई बताया तो उन लोगों ने पूंछा फिर दाढ़ी क्यों रखते हैं? (दाढ़ी तब काली थी और सर पर बाल भी, हा हा)मेरी बहन ने यह बात उनके उतरने पर बताई और एक क्लास की मेरी ऊर्जा बच गयी. घर जाकर एक कहाने लिख मारी, विभास दा की दाढ़ी, जो कालान्तर में कहीं खो गयी. विभास दा एक पेंटर हैं पेंटिंग के साथ वे एक्सपेरिमेंट करते रहते थे और दाढ़ी के साथ भी.एक बार अरबी शैली की दाढ़ी में ट्रेन में यात्रा कर रहे थे. तभी कहीं कोई "राष्ट्र-भक्ति" की कोई उत्पात करके कुछ देश भक्त आ रहे थे और उनकी निगाह विभास दा पर पड गयी, मुल्ला होने के चक्कर में काफी लात-जूते खा चुकने के बाद उन पर एक सीनियर देश-भक्त की नज़र पद हाई जो उन्हें जानते थे और चिल्ला पड़े, 'अरे क्या कर रहे हो ये तो विभाष जी है बड़े कलाकार. देश भक्तों ने विभास दा के बटुक प्रदेश पर एक लात दिया और गाली देते हुए "साला कतुओं की तरह दाढ़ी क्यों रखता है?" और विभास दा ने उसी दिन स्टेसन से घर के रास्ते में शेविब्ग कित खरीदा और दाढ़ी को अलविदा कह दिया.
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