Saturday, June 16, 2012

शिक्षा

अरस्तू के हवाले से शिक्षक बता रहा था कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है हम छितरे बैठे सुन रहे थे पारस्परिक अविश्वास के साथ औरों को छोटा दिखारकर खुद बड़े बनाने के प्रयास के साथ. बाहर निकलकर बिछुड़ते हैं फिर मिलने के वायदे के साथ बढ़ती हूँ आगे नई मंजिलों के इरादे के साथ याद आता है आर्केमेडीज पर दिखती है मरीचिका ज्वार के साथ भाटे से पीछे खिसकने की विभीषिका बंद राजद्वार, "यह आम रास्ता नहीं है" पता नहीं इन राजपथों के चिकने धरातल आने-जाने वाले इक्के-दुक्के यात्रियों के गवाह भी छोड़ेंगे?. इससे बेहतर हैं ऊबड़ खाबड पगडंडियाँ जिनकी गीली मिट्टी कुम्हार बन कविता लिख देती है. वहीं होती हूँ वहीं से गुजर कर हिचकी आती किन-किन ख्यालों के साथ शायद किसी ने कहीं याद किया हो दर्ज किया हो तारीख के किसी पन्ने पर. धुल जम गयी है लेकिन अब मेरी तू-लेट की तख्ती पर दुनिया की जनसंख्या अब सिर्फ एक है शेष, अर्जुन के लक्ष्य के व्यर्थ भागों की तरह दृश्य-सीमा से बाहर. लेक्चर बोझिल लगता है दर्जे में नीद आती है रूसो को शास्त्र से मतलब नहीं था मैं अरस्तू नहीं समझ सकती.(शिक्षा)

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