Monday, August 1, 2011

abhay

अभय की आत्म-हत्या
अभय सिन्हा मेरा मित्र था, उतना घनिष्ठ नहीं जितना सुमन; संध्या; अजय; खुर्शीद; अमिताभ; आभा आदि का. अभय के नेतृत्व में इन लोंगों द्वारा कथ्य की तैयारी का मैं एक असाहित्यिक, दूरस्थ-उत्सुक दर्शक मात्र था. एम्.ए. के विद्यार्थियों द्वारा पत्रिका निकालना, वह भी साहित्यिक, असाधारण लगता था. लेकिन हम मित्र थे और दोनों एक दूसरे को संवेदनशीलता की अति से बचने की हिदायत देते थे. दोनों में पारस्परिक सम्मान और प्यार-सरोकार था.शनिवार को अपराह्न मुझे मुझे दिनेश(ओरियंटल इंश्योरेंस) से मुझे अपुष्ट खबर मिली जिसे मैंने सुमन-संध्या के माध्यम से पुष्ट किया. तब से ही उद्वेलित और अवसादग्रस्त हूँ लेकिन मेरे अन्दर कोई अपराध-बोध नहीं है. बल्कि मैं तो अभय सिन्हा को मरणोपरांत ह्त्या का अपराधी घोषित करता हूँ. किसी को किसी की भी जान लेने का अधिकार नहीं है, अपनी भी. आप एक तरफ भाषण देते हैं कि अपने व्यक्ति और व्यक्तित्व पर निजी एकाधिकार एक बुर्ज़ुआ भ्रान्ति है जिसे उदारवाद अंतिम सत्य के रूप में स्थापित करता है और दूसरी तरफ अपने जीवन का अंत करते हुए यह नहीं सोचते कि उनके व्यक्ति और व्यक्तित्व के निर्माण में बहुतों का योगदान है. किसी भी सर्जनशील व्यक्ति की सृजनता उसके पास समाज की धरोहर है जिसे निजी संपत्ति समझ अंत करना एक सामाजिक अपराध है.
1.08.2011
सुमन मई तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ . कल का कमेन्ट २ दिन की लगभग विक्षिप्तावस्था; आत्म-मंथन और शायद प्रकारांतर से अपराध-बोध की परिणति थी. कल मेरी स्वाति (आभा की बेटी) से लम्बी बातें हुईं. वह भी बहुत परेशान है. वह कई सालों से अभय से मिलना चाहती थी. मुझसे भी उसका संपर्क नहीं था. फेसबुक पर उसने रेकुएस्ट भेजा था. मैंने कई बार अपना नंबर दिया लेकिन वह पुनीत के माँ-बाप से अलग किसी दोस्त के साथ रहती है और स्टूडियो चलाती है. कल अभय के बारे में संदेस दिया तब उसका फोन आया. मैं नहीं जानता था वह अभय से मिलने को इतनी विह्वल होगी. तुम उसकी वाल पर अभय की तस्वीर पोस्ट कर सको तो अच्छा रहेगा. बिलकुल अकेली है, अभय की तरह. लम्बे समय मयूरविहार में आस-पास की सोसाइटियों में रहने के कारण और खासकर, आभा-पुनीत के प्रोडक्सन हाउस के लिए कुछ स्क्रिप्ट लेखन के दौरान आना-जाना होता था लेकिन घर के औपचारिक अनौपचारिक माहौल के चलते, शायद, स्वाति से मेरी मित्रता नहीं हो पाई. आभा पुनीत की असामयिक मृत्यु के बाद तो बिलकुल संपर्क नहीं रहा, फरहत से कभी-कभी खबरें मिलती थीं की दादा-दादी से उसका झगडा चल रहा है.
कल का कमेन्ट, टोपो; गोरख और अभय के ऊपर संचित गुस्से का परिणाम था. लंबा कमेन्ट लिखना चाह रहा था लेकिन कलम जवाब दे दिया. आज भी सुबह की क्लास का लेक्चर तैयार करना है लेकिन चूंकि पिछले ३ सालों से मैं अभय के साथ टेलीफोन-संपर्क में रहा हूँ, इसलिए इसे पूरा ही करूंगा. किसी ने पूछा भी है की क्या मई भी अभय को जानता हूँ? जी हाँ जानता हूँ लेकिन अच्छी तरह नहीं. शायद कोइ भी किसीको (स्वयं समेत) भी अच्छी तरह नहीं जानता. आभा जी से अभय से शादी के पहले और बाद में भी मेरा दुआ-सलाम का सम्बन्ध भर था. अभय के जनेवि छोड़ने के बाद यदा-कदा संयोग से भेंट हो जाती थी. ये लोग शायद मयूर-विहार में रहने लगे.
१९८५-८६ की बात होगी. मैं पुष्प-विहार में एक फ़्लैट किराए पर लिया था (रहता प्रायः जनेवि में ही था). पुनीत टंडन से मेरी जान-पहचान लखनऊ में आशुतोष मिश्र के माध्यम से हुआ था. पुनीत एक दिन सुबह मेरे फ़्लैट पर आये और शाम को आभा आयीं. पुनीत आभा को आभाजी और आभादी के संबोधनों से अदल-बदल कर संबोधित कर रहे थे. चाय -वाय के बाद दोनों लोग चले गए.
अभय से मुलाकातें बहुत कम होने लगीं. कई साल बाद कई साल पहले संयोग से शंकर मार्केट में टकरा गए. पिछवाड़े चाय के ढाबे पर हम घंटों चाय-सिगरेट पीते रहे और देह-दुनिया-बिहार-दोस्ती आदि पर घंटों बतियाते रहे. उस समय अभय गुडगाँव में रह रहे थे. एकाकीपन की पीड़ा तो थी, लेकिन 'कुछ" करने का जज्बा उससे ज्यादा था. हम विदा हुए मिलते रहने के वायदे के साथ और फिर बहुत दिनों तक नहीं मिले.
बीच-बीच में कुछ सार्वजनिक कार्यक्रमों में परिस्थिति-जन्य एकाध मुलाकातें और हुईं थीं.
३ साल पहले अभय का अनापेक्षित फोन आया. मेरे घर आना चाहता था, उसी शाम अपने कटवारिया के मकान-मालिक, वीर सिंह और उनकी बेटी के साथ घर आ गए. बहुत अच्छा लगा. वीर सिंह की बेटी एड्मिसन की जानकारियाँ लेने आयी थी. मैं हॉस्टल वार्डेन था. बगीचे में तीनो ने एक बोतल वोदका खाली किया और साथ में घर का शाकाहारी भोजन किया. प्रायः लते रहने के वायदे के साथ विदा लिया. उसके बाद से फोन पर यदा-कदा बातें होती रहती थी. इस मुलाक़ात में थोड़ी मायूस हुआ. जीने का जज्बा था लेलिन "कुछ करने" का sankshipनहीं. एकाकीपन से टूटन झलक रही थी. एक साल बाद फिर किसी कारण अभय विश्वविद्यालय आये तो फिर एक बैठक हुई. इस बार अभय कला-साहित्य की व्यर्थता पर जोर दे रहे थे. छिपाने के बावजूद एकाकीपन की पीड़ा झलक रही थी. यह अंतिम मुलाक़ात थी उसके बाद हम फोन पर मिलाने की बातें करते रहे, लेकिन मिले नहीं.
उसके बाद शनिवार को खबर मिली की अभय ने इस दुनिया को बदलने की बजाय खारिज कर दिया.

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