प्रोफ़ेसर राम शरण शर्मा से निजी निजता न होते हुए भी उनके निधन से निजी क्षति का आभास हो रहा है. शर्मा जी से सेमिनारों के अलावा दो परिस्थिति-जन्य मुलाकातें हुई हैं. पहली बार १९७७ या ७८ में सूना था. गोदावरी मेस में किसी इतिहास के विषय पर गोष्ठी थी. शर्मा जी बता रहे थे कि किस तरह समाज में surplus के उद्पादन के साथ राज्य निर्माण की नीव पडी. याद नहीं कौन था, किसी भोजपुरी-भाषी FT ने पूछा, यह surplus क्या होता है? शर्माजी ने कुर्ता उठाया और तोंद पर हाथ फरकर कहा यह surplus है.
पहली मुलाक़ात संयोग से पटना में हुई. दिल्ली विश्वविद्यालय से एक-दो साल में अवकाश ग्रहण करने वाले थे. मैं बिहार पहली बार गया था रेल में कई बार उधर से गुजरा था, उदिशा/बंगाल/असं के रास्ते. मैं अरवल जनसंहार पर एक fact-finding के लिए गया था. स्टेसन से Times of India का रिक्शा लिया उर्मिलेश और रंजीत भूषण से मिलने. पता चला कि ये लोग दूसरे दफ्तर में बैठते हैं . बाहर निकलकर रिक्शा लेने की सच ही रहा था कि चका-चक सफ़ेद कुर्ता-धोती में एक भरी-भरकम काया नजदीकी पार्क में टहलती दिखी. एक पढ़े-लिखे दिखने वाले राहगीर से पूछा "ये क्या मशहूर इतिहासकार आर एस शर्मा हैं, उन्होंने बताया, "नहीं दिल्ली के बहुत बड़े प्रोफ़ेसर हैं”.
मैं हिम्मत जुटा कर पास गया और नमस्कार किया बहुत ही गद-गद भाव से मिले और मैं आह्लादित हो गया. बोले घर पर कोइ नहीं है इसलिए आओ दूकान पर चाय पीते हैं. इतने बड़े विद्वान और इतने सहज और सरल !!
अगली मुलाक़ात दिल्ली में भी संयोग से ही हो गयी थी. मेरी हिन्दू कालेज की नौकरी ख़त्म हुए या यों कहिये कि नौकरी से निकाले गए २-४ दिन हुए थे. दिल्ली विश्वविद्यालय में ९९.९% नौकरियाँ अकादामिकेतर योग्यताओं पर दी जाती हैं. ०.१% संयोगों की दुर्घटना से . प्रोफेसरों के बेटे-बेटियों/कुत्ते-बिल्लियों को MA करते ही मिल जाती है. १९८० के दशक में डॉ अशोक राज और मैंने एक किताब की योजना बनायी थी "दि गाडफादर्स एंड द बास्टर्ड सन्स", काम शीर्षक से आगे नहीं बढ़ा क्योंकि कलम रोजी-रोटी का बंधुआ था. मुझे निकाल कर बिहार ही नहीं देश के एक बहुत बड़े आदमी के अति-प्रतिभाशाली बेटे को वह नौकरी दिलाने के लिए वाम-मध्य-दक्षिण सभी पंथों के प्रोफेसरों में ग्लास्त्नोस्त हो गया था. इसमें थोड़ी-बहुत भूमिका हमलोगों के मित्र और तत्कालीन मंत्री स्वर्गीय दादा दिग्विजय सिंह की भी थी. वैसे यह काम बिना उनके भी हो गया होता. खैर इसकी चर्चा का यह उपयुक्त मंच नहीं है.
प्रोफेसरों की कमीनेपन और जहालतों के बारे में सोचता हुआ, अवसाद की मनः-स्थिति में माल रोड बस लेने जा रहा था. तभी देखा प्रोफ़ेसर शर्मा university गेस्ट हाउस की तरफ जा रहे थे. मैंने सोचा साढ़े ४ साल पुरानी चंद मिनटों की मुलाक़ात तो इन्हें याद नहीं होगी और प्रोफेसरों के प्रति आम-आक्रोश के चलते नज़र-अंदाज़ करके निकल जाना चाहता था. मुझे बहुत आश्चर्य हुआ जब उन्होंने दूर से नाम लेकर पुकारा. गेस्ट हाउस ले गये और २-३ घंटे तमाम बातों पर बातें करते रहे और उसी समय प्रकाशित अपनी पुस्तिका, "इवोल्युसन आफ स्टेट इन ऐन्सिएन्त इंडिया" की हस्ताक्षरयुक्त प्रति भेंट किया. जिसे मैंने उसी दिन पढ़ लिया. काफी राहत और प्रेरणा मिली उस मुलाक़ात से. बड़प्पन यह कि मुझ जैसे तलाश-ए-माश में मशगूल अदना से इंसान को छोड़ने गेस्ट हाउस के गेट तक आये.
प्रोफ़ेसर शर्मा का निधन पूरी दुनिया के लिए शोक का विषय है. फेसबुक पर मिली खबर से विह्वल हो गया. सर्व-कालिक इस विद्वान को मेरी हार्दिक शुभ कामनाएं. अपनी विद्वतापूर्ण कृतियों की बदौलत प्रोफ़ेसर शर्मा अमर रहेनेंगे. शत-शत नमन और लाल-सलाम.
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