Saturday, August 13, 2011

सामाजिक न्याय और भ्रष्टाचार

आरक्षण, सामाजिक न्याय और भ्रष्टाचार
मैं आरक्षण का प्रबल समर्थक हूँ और सामान्य मान्यता के विपरीत इसे सकारात्मक पक्षपात या कारवाई की बजाय सदियों की प्रवंचना और अन्याय की आंशिक भरपाई मानता हूँ.जन्म की दुर्घटना की पहचान को छिपाए बिना मनुवाद के विरुद्ध बुलंद नारे लगाता हूँ और तरस खाता हूँ अपने इतिहास पर जो इतने समय यह अमानवीय व्यवस्था बर्दाश्त करता रहा विद्रोहों की कहानियां दबाते हुए. लेकिन तमाम और लोग भी मनुवाद का आशय या ऐतिहासिक सन्दर्भ समझे बिना मनुवाद-मुर्दावाद चिल्लाते हैं न ही समझने की कोशिश करते हैं उसी तरह जिस तरह: तमाम पत्रकार किसी तिकडमबाज नेता को कौटिल्य के अर्थशास्त्र की इन्टरनेट से भी जानकारी के बिना भी कौटिल्य या चाणक्य लिख देते हैं; अटलबिहारी जैसे नेता कौटिल्य के राज-धर्मं/आपद्धर्म का क-ख पढ़े बिना इन शब्दों की दुहाई देने लगते हैं जिनको लागू करते तो बाजपेयी जी को अपने तमाम सिपहसालारों को मौत या अपमान और प्रतानाना के साथ मौत की सजा देनी पड़ती; उन विद्वानों की तरह जो ऋग्वेद(या अनुवाद) के पन्ने पलटे बिना उसे दुनिया के सभी ज्ञान-विज्ञान का श्रोत मानते हैं; या आप,जयंतीभाई मनानी जैसे लोग
जो विवेकानंद जैसे इतिहास-पुरुष या स्वामी की मान्यताओं/विचारों को पढ़े/समझे बिना उन्हें अपना आदर्श मान लेते हैं. विवेकानंद धार्मिक राष्ट्रवाद के समर्थक थे और धर्म को भारत की ऐतिहासिक और धार्मिक महानता की धुरी मानते थे. हिन्दू धर्म को वे सभी धर्मों का श्रोत मानते थे. वतुतः वर्णाश्रम धर्म ही हिन्दू धर्म है, स्वामी ने इसका कहीं खंडन नहीं किया है. विवेकानंद की प्रोफाइल पिक्चर के साथ मनुवाद विरोधी नारे लगाना बेईमानी है उसी तरह जिस तरह पितृसत्तात्मक,वर्णाश्रम व्यवस्था के आदर्श, राम को अच्छाइयों का प्रतीक मानते हुए दलित या नारी अधिकारों की हिमायत करना.
आरक्षण एक क्रांतकारी अवधारणा नहीं है बल्कि सुधारात्मक है, सारी अंतर्निन्हित विकृतियों के साठ. तब भी मैं आरक्षण का प्रबल समर्थक हूँ यह जानते हुए कि इसका मकसद अन्यायपूर्ण व्यवस्था को बदलना न होकर इसकी सत्ता में समानुपातिक भागीदारी है. मंडल आयोग के जो भी अन्य परिणाम हैं उनमें दो उल्लेखनीय हैं जिनकी कोइ चर्चा नहीं करता: १. १९८९- ९० के मंडल-विरोधी उन्माद के दौरान बहुत से शिक्षित, सवर्ण मध्य-वर्ग का एक बड़ा तपका अपनी जातीय अस्मिता पर तथाकथित हमले से आहत, प्रतिभा की दुहाई देने लगे, जो लोगों को ही नहीं कहते थे कि वे जात-पांत से ऊपर उठ चुके है बल्कि खुद भी असा मानने लगे थे. छात्रों को राजनीति से कोसों दूर रहने का उपदेश देने वाले आचार्य गण द्रोणाचार्य बन अर्जुनों को गांडीव उठाने को ललकारने लगे, दलीय भेदभाव भूलकर. २. चूंकि आरक्षण का मकसद लूट के निजाम को बदलना नहीं किन्तु हिस्सेदारी है, इसलिए मंडलोपरांत, भ्रष्टाचार का अंतर-जातीय जनातान्त्रिक्करण हो गया और सिर्फ नारायणदत्त तिवारी ही नहीं जनता की जमीने बेच सकते हैं या जगन्नाथ मिश्र गांधी मैदान बल्कि लालू भी करोणों का चारा हजम कर सकते हैं और मायावती किसानों के गाँव के गाँव अपने चहेते बिल्डर्स और बनियों को औने-पौने दामों में बेच सकती हैं. सहाबुद्दीन जैसे दुर्दांत लालू के स्पह्सालारों के खिलाफ आवाज़ उठाना सामाजिक न्याय के खिलाफ साजिश करार दे दी जाती है और मायावती के हत्यारे-बात्कारी विधायकों के कुकृत्यों की बात किया जाय तो दलित शासन के खिलाफ मनुवादी षड़यंत्र हो जाएगा जब कि अत्याचार के शिकार दलित और खासकर दलित लडकियां हैं.मैं इसलिए भ्रष्टाचार के जन्तान्तात्रिक्करण को सकारात्मक परिवर्तन मानता हूँ कि इससे जातीय अस्मिता की चेतना परे वर्ग चेतना की तरफ बढ़ेगी. लालू कब तक अहिरै गुना कमोरी का दावा के सकेंगे?
जैसा कि मैंने कहा कि आरक्षण सुधारवादी है क्रांतिकारी नहीं और परिवर्तन के द्वंदात्मक नियमों के तहत सतत, क्रमिक मात्रात्मक परिवर्तन के माध्यम हैं जो कभी-न-कभी गुणात्मक क्रानिकारी परिवर्तनों में तब्दील होंगे. लेकिन अपने आप नहीं सजग-सचेत प्रयासों से. अंबेडकर के बाद हिन्दुस्तान में दलित आन्दोलन नहीं हुए उनके नाम पर अवसरवादी डाल्ट राजनीती होती रही वही बात ओबीसी पपर भी लागू होती है. जरा जनसेवकों की अकूत संपत्ति का राज पूछिए? इसी लिए जरूरी है कि लूट और भ्रष्टाचार का और भी जनातान्त्रिक्करण हो जिससे शक्तियों का ध्रुवीकरण तेज होगा.
इसके लिए अनारक्षण की जरूरत है. आदर्श रूप में तो आरक्षण के उपयोग से जो लोग वंचित की श्रेणी से ऊपर उठ गए हों वे स्वतः आरक्षण से इनकार कर दें. इसकी सम्भावना कम है. जिस देश के संपन्न और दबंग टपके अपने को आदिवासी या पिछड़ा साबित करने के लिए चक्का जाम कर दें वहां स्वतः विशेषाधिकार त्यागने की बात सोची भेई नहीं जा सकती. ऐसे में एक नीति बनानी चाहिए कि आईएएस या प्रोफेस्सर की दूसरी/तीसरी/.... पीढी आरक्षण के अयोग्य हो जायेगी जिससे अभी तक वंचित तापकों को भी मौक़ा मिले व्यवस्था के सुख का. ..........................
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१९८९-९० भारत के इतिहास में निर्णायक काल हो सकता था. पहली बार किसान जातियों और ग्रामीण पृष्ठभूमि के लोगों के हाथों में सत्ता आयी, यदि उनके अन्दर अंतर्दृष्टि होती और अपने आपराधिक स्वार्थ को छोड़ पाते तो इतिहास में उनका कद लंबा होता और इतिहास की धारा बदल जाती. लेकिन वे निकले अभागे मूर्ख जो अपने वहशी स्वार्थ में देश लूटने में अपने पूर्ववर्तिओन को पीछे छोड़ देंगे और इतिहास में उनकी जगह रद्दी कागजों की टोकरी में होगी. और तब जनता शुरू करेगी सामजिक न्याय की मुहीम जिसका मकसद अन्याय-पूर्ण व्यस्था में हिस्सेदारी न हो कर अन्याय को मिटाना होगा.





2 comments:

  1. भारत में जाति प्रथा का नाश हो!
    by Vikram Maurya on Sunday, November 13, 2011 at 9:22pm
    साथियों,
    जैसाकि आप जानते हैं, कि भारत में ब्राह्मणवादी, मनुवादी जातीय ढाँचा आज भी मजबूती के साथ अपनी उपस्थिति का अहसास करा रहा है। आज भारत में जाति का सवाल बहुत बड़ा सवाल है जो इस सवाल को छोटा सवाल मानता है ऐसे साथियों व संगठनों को भारतीय समाज की समस्याओं का अहसास नहीं है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है। निचली जातियां जो शोषित, उत्पीडि़त हैं और ‘आर्थिक और सामाजिक विपन्नता का भी’ जीवन जी रही हैं, इस समस्या का अहसास वह जातियां बहुत ही तीखे तौर पर करती हैं और वह वास्तव में जाति व्यवस्था से मुक्ति चाहती हैं।

    इस सवाल पर दलित आंदोलनों का इतिहास गवाह है कि ज्योतिबा फुले से लेकर रामास्वामी पेरियार, डॉ. भीम राव अम्बेडकर ने कितने संघर्ष किए है, क्योंकि इन नेताओं ने जाति की समस्या को स्वयं झेला था।

    साथियों, आज क्रांतिकारी और प्रगतिशील आंदोलन के एक हिस्से को इस समस्या का बिलकुल भी एहसास नहीं है। हम दावे के साथ कह सकते हैं कि उन साथियों को अहसास न होने का एक मुख्य कारण यह भी है कि उन्होंने कदम-कदम पर इस समस्या को नहीं झेला है। जो झेल रहे है, वे आज भी लड़ रहे हैं। हमारा यह मानना है कि भारत मे जाति का सवाल वर्ग-संघर्ष का ही हिस्सा है। वर्ग और जाति संपूर्ण समाज-व्यवस्था में आपस में नाभिनालबद्ध हैं।

    जाति प्रथा हमारे देश में अन्य देशों के मुकाबले एक विशिष्ट परिघटना है। यहां का क्रांतिकारी आंदोलन इसका एहसास करने में इसलिए भी असफल रहा है, क्योंकि वह समझदारी के धरातल पर हमेशा दूसरे देशों पर ही निर्भर रहा है। अपनी स्वतंत्र समझ के आधार पर भारत की परिस्थितियों का सही विश्लेषण कर कभी भी इसमें दखल नहीं दे पाया। इसलिए आजादी के 70 साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद, आज भी भारतीय समाज में वर्ग और जाति दोनों की उपस्थिति मौजूद है। यह अवधारणा कि आर्थिक समस्या हल हो जाने पर जाति की समस्या खुद ही हल हो जायेगी, क्या प्रदर्शित करती है?

    आप यह भी जानते हैं कि पिछले दिनों हरियाणा राज्य में दलित उत्पीड़न की कई घटनाएं प्रकाश में आईं-- चाहे दुलिना हो, गोहाना हो, या मिर्चपुर। इसी तरह आए दिन भारत के अन्य राज्यों मे भी ऐसी घटनाएं दिन प्रतिदिन दोहरायी जा रही हैं। साथ ही उत्पीड़ित-दलित जातियां प्रशासन और दबंगों के गठजोड़ के चलते सामाजिक न्याय से भी वंचित हैं।

    इस सवाल पर आज एक सशक्त आंदोलन खड़ा करने वाली कोई ताकत भी दिखाई नहीं पड़ रही है।

    साथियों, हम वर्ग व जाति को भारतीय समाज से समूल मिटा देने के पक्ष में है। इनकी मौजूदगी में आम अवाम के किसी भी हिस्से को न्याय मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिखती है।

    इसलिए हम सभी उत्पीडि़त-शोषित-दलित जातियों व प्रगतिशील, क्रांतिकारी जनवादी साथियों से आह्वान करते हैं— आइये इस सवाल पर नींव का पत्थर बनें।
    कार्यक्रमः-
    1) दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध व न्याय की कार्यवाही हेतु कटिबद्ध!
    2) प्रगतिशील जनवादी शक्तियों के साथ तालमेल!
    3) अपने अधिकारों को पाने के लिए दलितों में जागरुकता के लिए अभियान व उनकी गोलबंदी!
    4) दलितों के लिए आरक्षण का (निजी और सार्वजनिक दोनों क्षेत्रों में) समर्थन!
    5) क्रांतिकारी भूमि सुधार का समर्थन!
    6) जातीय व्यवस्था के खिलाफ गोलबंदी के लिए गोष्ठियाँ, सेमिनारों का समय-समय पर आयोजन!
    7) जाति के विरुद्ध संघर्षों का वर्गीय संघर्षों के साथ सामंजस्य कायम करना!
    8) अन्य संगठनों के साथ संयुक्त मोर्चा कायम करना!
    9) जाति के सवाल पर देशी-विदेशी फण्डिंग का निषेध!
    10) जाति के सवाल पर संसदवादी, चुनाववादी राजनीति का विरोध!
    11) वर्ग और जाति के खातमे की पक्षधरता!
    जाति विरोधी संगठन
    संपर्क-
    दिलीप गिरी- 9971370617
    विष्णु- 9953006499

    https://www.facebook.com/vikrm200?sk=notes

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