इस विरले संयोग को रेखांकित करने की ही यह पोस्ट है कि 1980 में खोई किताब 1990 में लगभग मुफ्त में मिल जाए और उस समय की किताबों पर अंग्रेजी उर्दू में सम्मिलित नाम लिखने की आदत याद आ गयी। उर्दू और बांगला लिपियां उनकी कलात्मक (कैलीग्राफिक) संरचना के सौंदर्य की वजह से सीखा था। बाकी तो पढ़ने के लिए मांगकर किताब चोरों की नामजद्द और गुनाम फेहरिस्त लंबी है। यूजीसी की फेलोशिप के दौरान अच्छी कंटिंजेंसी मिलती थी और जी खोलतर किताबें खरीदता था ज्यादातर लौटाने के लिए मांगकर चुराने वालों की भेंट चढ़ गई। गीता बुक सेंटर के 'दादा' जानते थे की कंटेंजेंसी का पैसा मिलते ही उधार चुक जाएगा इसलिए दाम की परवाह किए बिना किताब उठा लेता था। एक दिन Nietzsche की Thus Spoke Zarathustra और Rousseau की आत्मकथा The Confessions लेकर आया। उसी दिन दो किताब चोर अलग अलग 2-3 दिन में पढ़कर लौटाने का वायदा करके मांगकर ले गए। Thus Spoke Zarathustra चुराने वाले का नाम अभी तक याद है, बताने का फायदा नहीं है, कई साल बाद कहीं मिला और पूछा कि मैं उसे पहचान रहा था कि नहीं, मैंने कहा कि अपनी किताबें चुराने वाले कमीनों को मैं भूलता नहीं, वैसे यह ऐसे ही बोल गया था, सही नहीं है। एक बार एक विश्वविद्यालय में एक सेमिनार में गया था और जेएनयू के मित्र रहे वहां के विभागाध्यक्ष (अब दिवंगत) ने एक रात्रत्रिभोज अपने आवास में रखा था, मैंने उसकी बुक सेल्फ देखकर कहा था, 'अबे मेरी इन किताबों में से कुछ तो लौटा दो' उसने बड़ी सहजता से यह कहकर लाजवाब कर दिया था कि वे उसकी बुक सेल्फ में कितनी सुंदर लग रहीं थी उनकी एवज में उसने एक बहुत अच्छी किताब The Story of Philosophy by Will Durrant का उपहार दिया। वह भी कालांतर में इसी विधा से मैंने खो दिया। खैर अब भी बहुत ऐसी किताबें पढ़े जाने के इंतजार में हैं, इसलिए किताबचोरों से कोई शिकायत नहीं है।
1980 में एक सज्जन (वैसे किताब चोरों को दुर्जन कहना चाहिए) मुझसे Frantz Fanon की Wretched of the Earth पढ़ने के लिए ले गए और लौटाए नहीं बोले खो गई, मैं दूसरी प्रति ले आया लेकिन उस संस्करण का कवर पेज उतना आकर्षक नहीं था। 1990 में विरले संयोग से दरियागंज संडे मार्केट में 5 रुपए में वही प्रति मिल गयी, मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था। मैंने विक्रेता ज्यादा पैसे ऑफर किया लेकिन उसने लिया नहीं। सही सही वही प्रति की पहचान यों हुई कि उन दिनों मैं किताब खरीदता तो उस पर अंग्रेजी और उर्दू में मिलाकर नाम लिखता था अंग्रेजी के आई को उर्दू के अलिफ के रूप में इस्तेमाल कर उसके दाहिने अंग्रेजी का एस एच और बाएं उर्दू का इए शीन लिख देता था। दांए पढ़ने पर अंग्रेजी में ईश और बांए पढ़ने पर उर्दू में।
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