मर्दवाद (पुरुषवाद) एक सांस्कृतिक विचारधारा है जिसके जरिए सांस्कृतिक वर्चस्व निर्मित होता है। सिमन द बुआ ने लिखा है कि स्त्री पैदा नहीं होती, बनाई जाती है। मर्दवाद कोई जीववैज्ञानिक प्रवृत्ति नहीं है, न ही गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की तरह कोई साश्वत विचार। मर्दवाद विचार नहीं विचारधारा है जिसे हम रोजमर्रा के क्रिया-कलापों तथा विमर्श के जरिए निर्मित-पुनर्निर्मित एवं पोषित करते हैं। विचारधारा मिथ्या चेतना होती है जो उत्पीड़क (perpetrator) को ही नहीं, पीड़ित (victim) को भी समान रूप से प्रभावित करती है। जैसे हम किसी लड़की को शाबाशी देने के लिए 'वाह बेटा' कह देते हैं और वह भी इसे शाबाशी समझकर कर खुश हो जाती है। किसी लड़के को बेटी कहकर शाबाशी दें तो सब हंस देंगे। मेरी बेटियों को कोई बेटा कह देता है तो वे बुरा मान जाती हैं। आर्थिक परिवर्तनों के साथ राजनैतिक और कानूनी परिवर्तन तुरंत हो जाते हैं क्योंकि आर्थिक परिवर्तनों को बरकरार रखने के लिए वे जरूरी होते हैं। लेकिन सांस्कृतिक परिवर्तन तुरंत साथ-साथ नहीं होते क्योंकि सांस्कृतिक मूल्यों को हम पलने-बढ़ने (समाजीकरण) के दौरान अंतिम सत्य की तरह आत्मसात कर लेते हैं, जिन्हें छोड़ने (unlearn करने) के लिए हमें निरंतर प्रयास करना पड़ता है। मैं अपनी पहली ही क्लास में दो बातें हर साल दोहराता था। 1. Key to any knowledge is questioning; questioning anything and every thing, beginning with our own mindset, as knowledge does not come from what you are taught but by questioning that. फिर थोड़ा हास्यभाव से जोड़ता था, But the process of unceasing questioning involves the risk of turning into atheist. 2. Unlearning is as important, if not more, part of education as learning. During our socialization we acquire so many values independent of our conscious will, We must question them (acquired values); unlearn them, if need be and replace them with rational ones. तो आत्मसात किए सांस्कृतिक मूल्यों को छोड़ना या अनलर्न करना एक निरंतर सजग प्रक्रिया है। ग्राम्सी इसे सांस्कृतिक वर्चस्व के रूप में परिभाषित करते हैं।
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