Friday, December 31, 2021

चिली का चुनाव: इतिहास की सुखद प्रतिध्वनि

 

चिली का चुनाव:  इतिहास की सुखद प्रतिध्वनि

ईश मिश्र

19 दिसंबर, 2021 को संपन्न लैटिन अमेरिकी देश चिली के चुनाव परिणाम में वामपंथी मोर्चे के उम्मीदवार गैब्रियल बोरिस की अपने धुर दक्षिणपंथी प्रतिद्वंदी जोस एंतोनियो कास्त पर स्पष्ट जीत ने, 1970 में वहां के निर्वाचित समाजवादी राष्ट्रपति अलेंदे के 11सितंबर 1973 के अंतिम भाषण की याद दिला दी। अलेंदे का बलिदान चिली में जनतंत्र के लिए था। बोरिस की जीत को चिली में जनतंत्र की जीत के रूप में देखा जा रहा है। बोरिस ने अपने चुनावी विजय के इजहार का संबोधन अलेंदे की याद से शुरू किया। इतिहास खुद को दुहराता नहीं प्रतिध्वनित होता है, 2021 की वाम गठबंधन के गैब्रियल बोरिस की जीत में 1970 में समाजवादी अलेंदे की जीत की सुखद प्रतिध्वनि सुनाई दे रही है। नव निर्वाचित राष्ट्रपति, 35 वर्षीय बोरिस ने कम्युनिस्ट पार्टी, क्रश्चियन वामपंथी समूह और क्षेत्रीय संगठनों के गढबंधन, नए वाम के नुमाइंदे की हैसियत से शिक्षा के समान सार्वभौमिक अधिकार और सुलभता की मांगों को लेकर  2011-13 छात्र आंदोलनों में सक्रियता से राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में स्थान बनाया। 1990 में सैनिक तानाशाही के खात्मे के बाद प्रायः मध्यमार्गी गठबंधन की सरकारें रहीं। बोरिस मार्च में कार्यभार संभालेंगे। मौजूदा राष्ट्रपति सेबस्तियन पन्येरा ने टेलीविजन संदेश  में 3 महीने के संक्रमणकाल में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति से सहयोग का वायदा किया है। यह चुनाव वाम-दक्षिण के बीच ध्रुवीकृत था।  चुनाव के दौरान मतदाताओं के बीच व्यापक वाम मोर्चे के बोरिस को 1973 में अमेरिकी साजिश की सैनिक तख्तापलट में अपदस्थ समाजवादी राष्ट्रपति अलेंदे की तथा प्रतिक्रियावादी रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार, नाजी झुकाव के जर्मन अधिकारी के पुत्र, जोस एंतोनियो कास्त को तख्ता पलट के बाद सत्तारूढ़, अमेरिकी कठपुतली सैनिक तानाशाह पिनोचे के राजनैतिक परंपरा के वारिश के रूप में पहचान मिली।

 

      1970 में चिली के राष्ट्रपति के रूप में समाजवादी सल्वाडोर अलेंदे के चुनाव ने अमेरिकी नेतृत्व वाले साम्राज्यवादी खमें में हड़कंप मचा दी थी। उस समय तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने चिली में समाजवाद को नाकाम करने के लिए उसकी अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने की घोषणा कर दी थी। चिली की अर्थव्यवस्था बर्बाद करने की साजिश के तहत जनरल पिनोचे को मुहरा बनाकर 1973 में सैनिक तख्तापलट करवा दी। अलेंदे को अपदस्थ कर पिनोचे सैनिक तानाशाह बन गया तथा चिली को अगले 17 साल तक सैनिक तानाशाही के तहत साम्राज्यवादी, कॉरपोरेटी लूट का कहर झेलता रहा। पेंसन समेत सारे सार्वजनिक उपक्रम और सेवाओं का निजीकरण कर बाजार के हवाले कर दिया गया। यहां अलेंदे की सरकार के तख्तापलट; सैनिक तानाशाही और उसके तहत कॉरपोरेटी लूट के विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं है, वह अलग विमर्श का विषय है। चिली में जनतंत्र की रक्षा में अलेंदे ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।

 

 मजदूरों और युवाओं के नाम 11सितंबर 1973 के अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि वे इस्तीफा नहीं देंगे, बल्कि लोगों के प्रति अपनी निष्ठा के लिए जान दे देंगे। मजदूरों और युवाओं ने “लाखों चिलीवासियों की अंतरात्मा में जो विश्वास पैदा किया है, वह हमेशा के लिए नहीं खत्म किया जा सकता”। साम्राज्यवादी मंसूबों को नाकाम करने के लिए युवाओं का आह्वान करते हुए उन्होंने कहा था कि वह दिन जरूर आएगा जब आजादी पसंद लोग बेहतर समाज बनाएंगे। चिली, वहां की जनता और  मजदूरों का जिंदाबाद करते हुए, उन्होंने कहा था कि उनका बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। और उनकी शहादत अंततः रंग ले ही आई, भले ही 48 साल बाद। भविष्य बताएगा कि व्यापक वाममोर्चे के नेता नव निर्वाचित राष्ट्रपति बोरिस शिक्षा में जनपक्षीय सुधार, पर्यावरण की सुरक्षा, लैंगिक समानता समेत मानवाधिकारों एवं पर्यावरण की सुरक्षा, भीषण असमानता के उन्मूलन एवं समाज तथा अर्थव्यवस्था पर बाजार की जकड़ खत्म करने के चुनावी वायदे पूरा करने में कितने कामयाब होते हैं। फिलहाल लोग चुनाव परिणाम  को एक नई आजादी के उत्सव के रूप में मना रहे हैं। चुनाव प्रचार के गौरान पिनोचे की तानाशाही की विरासत में मिली कॉरपोरेटी लूट, उपभोक्ता सामग्री और सेवाओं के बढ़ते दाम गरीबी, बेरोजगारी, असमानता, शिक्षा, मानवाधिकार, लैंगिक समानता तथा पर्यावरण की सुरक्षा की चिली की प्रमुख समस्याओं के रूप में चिन्हित किया तथा उनसे निपटने के लिए समावेशी सरकार के गठन का वायदा किया है। चुनाव के बाद उन्होंने कहा है कि उनकी सरकार सबकी सरकार होगी।

शिक्षा के जनवादीकरण और असमानता के मद्दे पर 1911-13 के राष्ट्रव्यापी छात्र आंदोलन, चिली विश्वविद्यालय स्टूडेंट फेडरेसन के परचम के तले चला था। इसके दो प्रमुख नेताओं में कैनिला वलेजो कम्युनिस्ट पार्टी में गयीं और गैब्रियल बोरिस नये वाम समूह सामाजिक संगम (सोसल कन्वर्जेंस) में शरीक हुए। 2014 में बोरिस चिली की संसद के निचले सदन में निर्वाचित हुए। इन समूहों ने सामाजिक अधिकारों और बाजारीकरण से मुक्त आर्थिक सुधारों के जरिए अंततः समाजवाद की स्थापना के उद्देश्य से व्यापक मोर्चा (ब्रॉड फ्रंट) का गठन किया। मोर्चे ने कम्युनिस्ट पार्टी के साथ गठबंधन कर संघर्ष का और भी व्यापक मंच, प्रतिष्ठा की सहमति (अप्रूव डिग्निटी) का गठन किया। यह गठबंधन स्त्री, अधिकार,  लैंगिक स्वतंत्रता का अधिकार, मानवाधिकार समेत सामाजिक अधिकारों के मुद्दों पर निरंतर अभियान चलाता रहा। गठबंधन में आम सहमति बनी कि सामाजिक अधिकारों का बुनियादी सवाल बढ़ती असमानता का है। पिनोचे के आश्रय में शिकागो  ब्वायज नामक अमेरिकापरस्त अर्थशास्त्रियों का एक समूह था जिसका काम सभी आर्थिक प्रतिष्ठानों के निजीकरण की सैद्धांतिक भूमि तैयार करना था। पेंसन समेत सभी आर्थिक प्रतिष्ठानों का निजीकरण हो गया था और तबसे देशी और साम्राज्यवादी पूंजीपति जनता पर कहर ढाते रहे हैं। बोरिस के गठबंधन ने पेंसन में सुधार, बड़े धनिकों पर करों में बढ़ोत्तरी और तांबे के उत्खनन तथा निर्यात करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों से रॉयल्टी की वसूली में बढ़ोत्तरी का चुनावी वायदा किया है।

इतिहास की इस प्रतिध्वनि के इतिहास में चिली में लंबे समय से चल रहे मजदूरों और छात्रों के आंदोलनों की निरंतरता की प्रमुख भूमिका है। खुले अमेरिकी समर्थन तथा बर्बर दमन के बावजूद पिनोचे की तानाशाही कभी निर्विरोध नहीं रही। पिनोचे मानवता के विरुद्ध अपराध के आरोप में अपने अंतिम दिनों में नजरबंद था तथा सार्वजनिक कोष में गबन का उस पर मुकदमा चला जो लैटिन अमेरिका के इस छोटे से देश के लिए अभूतपूर्व था। 2006 में उसकी मौत के बाद लोगों के आक्रोश से बचाने के लिए उसका अंतिम संस्कार कड़ी फौजी सुरक्षा में हुआ। व्यापक विरोध प्रदर्शन की संभावनाओं के चलते उसकी लाश को चुपके से समुद्र के किनारे एक वीरान जगह दफनाया गया था। राष्ट्रपति भवन परिसर में सल्वाडोर अलेंदे की प्रतिमा के पास लोगों ने नाच-गाकर तानाशाह की मौत का जश्न मनाया था। उसकी मौत के 2 साल पहले से ही पूरे देश में विप्लवी मजदूर आंदोलनों ने उथलपुथल मचा रखा था। चिली के उत्तरी हिस्से के रेगिस्तान में स्थित  दुनिया की तांबे की सबसे बड़ी तांबे की खान के मजदूरों की 2006 की  लंबी हड़ताल ने भूमंडलीय पूंजी के पैरोकारों के खेमें में हड़कंप मचा दिया था। यहां के बहुराष्ट्रीय मालिकान करोड़ो डॉलर जमीन के किराए के रूप में लंदन भेजते हैं। चिली की 70% तांबे की खदाने अब भी राज्य नियंत्रित कंपनी कोडेल्को के अधिकार क्षेत्र में हैं, जो कि अलेंदे की विरासत है। अलेंदे ने हर चीज की सभी खदानों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था, लेकिन पिनोचे ने कानूनों में हेर-फेर के जरिए उन्हें लंबे समय की लीजों पर निजी हाथों में सौंप दिया था। नवउदारवादी नीतियों के तहत खदानों से इफरात मुनाफा कमाने वाली बहुत सी बहुराष्ट्रीय कंपनियां एक भी पैसे की रॉयल्टी राज्य को नहीं देतीं। बोरिस ने चुनाव में हालात बदलने और इन कंपनियों से मुनाफे के मुताबिक रॉयल्टी वसूलने का वायदा किया है। खदानों से बहुराष्ट्रीय कंपनियों की मुनाफाखोरी और टैक्सचोरी के विस्तार में जाने की यहां गुंजाइश नहीं है। 2006 में तांबे की खदानों के दोहन से बहुराष्ट्रीय कंपनियों का मुनाफा चिली के बजट के 75% के बराबर था। 2006 की हड़ताल में एसकोंडिडा की खान मजदूरों की यूनियनों ने सभी खदानों के राष्ट्रीयकरण की मांग की थी। 2007 में दक्षिण चिली के वन उद्योग के मजदूरों ने ठेकेदारों ऱसे मोलभाव में वही रणनीति अपनाई। तब से 2019 तक विभिन्न क्षेत्रों के मजदूरों की हड़तालों से शासकों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आकाओं की नींदे हराम होती रहीं।

 

स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय के छात्रों के आंदोलन भी 2006 से ही जोर पकड़ने लगे थे तथा उनके समर्थन में अभिभावक और शिक्षक भी थे। 2011-13 के  छात्र आंदोलन उस प्रक्रिया की तार्किक परिणति थे। ऊपर बताया जा चुका है कि नवनिर्वाचित राष्ठ्रपति गैब्रिएल बोरिस की इसी आंदोलन से राष्ट्रीय राजनैतिक परिदृश्य में पहचान बनी। 2018 सें नये संविधान की मांग लेकर लोग आंदोलित होने लगे तथा विभिन्न राजनैतिक दलों में इस पर जनमत संग्रह की सहमति बनी। अक्टूबर 2020 में हुए जनमत संग्रह में उल्लेखनीय बहुमत ने नए संविधान सभा के चुनाव के पक्ष में मतदान किया। 155 सदस्यीय संविधान सभा (संसद) में 17 सीटें चिन्हित मूलनिवासियों के लिए आरक्षित हैं। आम चुनाव से भरी जाने वाली बाकी 138 सीटों पर स्त्री-पुरुषों के प्रतिनिधित्व समान होंगे, जो एक अभूतपूर्व प्रावधान है। संविधान सभा की पहली बैठक 4 जुलाई 2021 को हुई जिसमें मौजूदा राष्ट्रपति सेबास्टियन पन्येरा ने कहा कि संविधान सभा को अगले 9 महीनों में चिली का नया संविधान तैयार कर लेना चाहिए, जिस अवधि को 3 महीने के लिए और बढ़ाया जा सकता है। मार्च, 2022 में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति, गैब्रियल बोरिस राष्ट्रपति का कार्यभार संभालेंगे और लगता है नया संविधान उन्ही के कार्यकाल में पारित होगा।

यदि चुनावी वायदों पर अमल किया तो नवनिर्वाचित राष्ट्रपति गैब्रिएल बोरिस की सरकार, नव उदारवादी आर्थिक प्रणाली को समाप्त कर नई जनपक्षीय आर्थिक प्रणाली अपनाएगी। वामपंथी गठबंधन की यह सरकार यदि अलेंदे की विरासत को वाकई आगे बढ़ाना चाहेगी तो प्रमुख आर्थिक प्रतिष्ठानों का राष्ट्रीयकरण इसके एजेंडे पर प्रमुखता सें होगा। चुनावी वायदा धनाढ्यों पर करों में बढ़ोत्तरी और असमानता उन्मूलन के उपायों को लागू करने का है। बाजारीकरण का विरोध; शिक्षा में सुधार और लैंगिक समानता एवं स्वतंत्रता के अधिकारों समेत मानवाधिकारों की रक्षा एवं पर्यावरण की सुरक्षा के उपाय भी सरकार के एजेंडे पर होना चाहिए। यदि ऐसा होता है तो यह चिली में वाकई जनतंत्र की जीत होगी तथा इसका असर पड़ोस के लैटिन अमेरिकी देशों – कोलंबिया; ग्वाटेमाला; बेनेजुएला; बोलीविया और ब्राजील के आगामी चुनावों पर होना अवश्यंभावी है। उम्मीद है चिली में इतिहास की यह प्रतिध्वनि पूरे लैटिन अमेरिका में गूंजेगी जो दुनिया में जनपक्षीय परिवर्तन की नई लहर की प्रेरणा बनेगी। 

 

27.12.2021                 

फुटनोट 263 (सौंदर्य)

 प्राकृतिक सौंदर्य की गोद में सृजन और सुंदर हो जाता है। वैविध्यपूर्ण इस दुनिया में सौंदर्य कि विविधता है। मैदानों के अपने सौंदर्य हैं, हां सपाट भूगोल में कभी कभी कुछ लोगों की संवेदना भी सपाट हो जाती है और रचनाशीलता भी। काश मैदानी लोग प्राकृतिक रिक्तता को रचनाशीलता से भरते!! लेकिन रचनाशीलता की जगह वह निर्वात वे छल-फरेब और विद्वेष भरते हैं। 1973-74 में जबनिर्वात शब्द से पहली बार परिचय हुआ तो लिखा गया था 'सच है निर्वात नहीं रहता पहले तुम थे अब अवसाद' आज समाज के बारे में लिखूंगा तो लिखाएगा, 'सच है निर्वात नहीं रहता, पहले सौहार्द था, अब विद्वेष; पहले राष्ट्र निर्माण की बात होती थी, अब विखंडन की; पहले हवा में तिरता था, हम हिंदुस्तानी, अब हम हिंदू-मुसलमान'।

Marxism 45 (Alienation)

 For Marx, alienation exists mainly because of the tyranny of money. He refers to Aristotle’s praxis and production, by saying that the exchange of human activity involved in the exchange of human product, is the actual generic activity of man. Man’s actual conscious and authentic existence, he states, is social activity and social satisfaction.

Moreover he sees human nature in true common life, and if that is not existent as such, men create their common human nature by creating their common life. Furthermore he argues similarly to Aristotle that authentic common life does not originate from thought but from the material base, needs and egoism. However in Marx’s view, life has to be humanly organized to allow a real form of common life, since under alienation human interaction is subordinated to a relationship between things. Hence consciousness alone is by far not enough.
Relating alienation to property, Marx concludes that alienation converts relationships between men, to relationships between property owners.
To satisfy needs, property has to be exchanged, making it an equivalent in terms of trade and capital. This is called the labour theory of value. Property becomes very impersonal. It is an exchange value, raising it to become real value.

The cause of alienation is to be found in capitalism based on private property of means of production and money. Capitalist organization of labour exploits the working class. It is actually thrown back at animal level while at the same time the capital class gains wealth.

31.12.2016

नोटबंदी

 नोटबंदी का मकसद बैंकों की नगदी संकट की समस्या हल करना था। वित्तीय पूंजीवाद का सिद्धांत है -- जनता का पैसा; बैंकों का नियंत्रण और पूंजीपति (धनपशु) का निवेश। पिछला संकट बैंक अधिकारी और धनपशुओं की मिलीभगत के फरेब से नगदी का संकट था जिससे धनपशुओं के लिए निवेश का संकट पैदा हो गया। अमेरिका में इस संकट से निपटने के लिए बराक ओबामा ने बाप की संपत्ति समझ राजकोश से करोड़ों रूपए डालकर बैंको को bail out किया। विदेशी कर्ज से दबे हमारे राजकोश में bail out करने की औकात नहीं थी तो आवश्यक कामों केलिए लोगों के घरों में रखे और बच्चों के गुल्लक में पड़े पैसों की लूट से bail out किया। नोटबंदी की कतारबंदी में कुछ बैंक कर्मियों समेत हजारों लोग काल के गाल में समा गए।

Monday, December 27, 2021

बेतरतीब 120 (बिना टिकट यात्रा)

 हम हाई स्कूल-इंटर में पढ़ते हुए बिलवाई (नजदीकी छोटा स्टेसन) से जौनपुर बिना टिकट चलते थे, मैं शुरू में टिकट लेता था (अद्धा 50 पैसे में) लेकिन सब बिना टिकट चलते थे तो मैंने भी लेना बंद कर दिया। इलाहाबाद आने पर अक्सर बस से ही जाता था कभी कभी एजे से प्रयाग से जौनपुर।फर्स्ट यीयर में एक बार प्रयाग से एजे का जौनपुर का टिकट खरीदा लेकिन छूट गय़ी तो फैजाबाद की एएफ पकड़ लिया । दोनों जगह से अगली सुबह पैसेंजर से बिलवाई लगभग उतना ही पड़ता है। प्रतापगढ़ में मजिस्ट्रेट चेकिंग हो गयी। सबको पकड़ पकड़ दो सौ, सिफारिश करने पर 3 सौ का जुर्माना लग रहा था। मैंने बड़ी मासूमियत से टिकट दिखाया, वे बोले गलत टिकट बिना टिकट होता है, मैं अनजान बनता बताया कि एजे के टाइम पर एजे ही समझकर बैठ गया। उन्होंने मेरी मासूमियत पर यकीन कर लिया और छोड़ दिया। मेरे घर से करीब 12 किमी दूर फैजाबाद (अब अंबेडकरनगर) जिले के एक लड़के ने अपने घर खबर देनेको कहा। मैं बस से प्रतापगढ़ से शाहगंज गया और अगली सुबह साइकिल से उसके घर जाकर खबर दी। उसके बाद बिना टिकट चलना बंद कर दिया।

शाहगंज हमारे गांव से सबसे नजदीकी बड़ा (जंक्सन) स्टेसन है। उससे नजदीक बिलवाई है जहां लोकल-पैसेंजर गाड़ियां ही रुकती हैं। मेरा बिना टिकट (बिलवाई से जौनपुर) वाला समय 1967-72 था। कक्षा 10 में एक बार एक टीटी टकराए। पूछे टिकट? जेब टटोलकर मैंने कहा नहीं है। पूछे क्यों, मैंने बहुत मासूमियत से कहा कि खरीदना भूल गया। पूछे किस क्लास में पढ़ता हूं? दसवीं बताने पर, छोटा समझ अविश्वास से देखते हुए टेस्ट करने के लिए अंग्रेजी और गणित के कुछ सवाल पूछा। सही सही जवाब देने पर खुश होकर बोले कि इतना अच्छा लड़का हूं, टिकट लेकर चलना चाहिए। मैंने उन्हे परामर्श का धन्यवाद देकर आश्वस्त किया कि आगे से टिकट लेकर चलूंगा।

यह 1968-69 की बात है, घटना की जो भी स्मृतियां हैं, बहुत खुशमिजाज इंसान लगे थे। एक तो प्राइमरी में 2 कक्षाओं की कूद-फांद के चलते अपनी क्लास (10वीं) के हिसाब से कम उम्र (13-14 साल) का था और दुबले-पतले लड़के अपनी उम्र से भी कम लगते हैं। जब मैंने कहा कि टिकट खरीदना भूल गया तो मुस्कराकर क्लास पूछ लिया। शुरू में उन्हें लगा कि मैं बढ़ाकर क्लास बता रहा हूं तब उन्होंने अंग्रेजी और गणित के कई सवाल पूछ दिए। सबका सही उत्तर सुनकर खुश हुए और सलाह दिए कि टिकट खरीदना न भूला करूं।

जी एजे बिना स्टेसन के जगह जगह रुकते चलती थी। जंघई में बहुत देर तक रुकती थी, हम लोगलउतरकर बाजार में चाय-पानी के लिए चले जाते थे।

मेरे एक सहपाठी मित्र के पिता स्टेसन मास्टर थे। उस समय रेलवे के किसी पन्ने पर नाम और उम्र के साथ अस्थाई पास बन जाता था। उस समय थर्ड क्लास भी होता था लेकिन स्टेसनमास्टर के परिजनों का पास शोफे सी सीट वाले फर्स्ट क्लास का होता था। एक बार (1970) उसके पास से कलकत्ता गया 3 दिन रहा। मेरे गांव के एक स्कूलमें बाबू वहां रहते थे, उनका पता खोज कर मुलाकात कर ली, लेकिन मैं उनके साथ रुका नहीं। घूम-घाम, खा-पीकर कर सियालदेह स्टेसन आकर फर्स्ट क्लास रिटायरिंगरूम में सो जाता था। 3 दिन बाद वापस जौनपुर आ गया। 

Sunday, December 26, 2021

निजीकरण

 सभी सार्वजनिक प्रतिष्ठान आमजन के हैं, न कर्मचारियों के बाप के हैं न उन्हें औने-पौने दामों में अपने आका धनपशुओं को बेचने वाले सरकार में बैठे राजनेताओं के बाप की। सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को सरकारें अकर्मण्यता एवं भ्रष्टाचार से नाकाम साबित कर कर उन्हें मुनाफीखोरी के लिए औने-पौने दामों में अपने पोषक धनपशुओं को बेचने के लिए जनमतमत तैयार करने के प्रचार के लिए भक्तों की ड्यूटी लगा देती हैं। यह समझने के लिए राजनैतिक अर्थशास्त्र जानने की जरूरत नहीं है। सहजबोध (common sense) की बात है कि व्यापारी का मकसद येन-केन प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा मुनाफा कमाना होता है जो जनकल्याण और सेवा से नहीं लूट-खसोट और चोरी-बेइमानी से किया जा सकता है। बैंकों का राष्ट्रीयकरण इंदिरा गांधी का एक जनपक्षीय प्रगतिशील कदम था। मौजूदा सरकार के अंधभक्त उनके बारे में दुष्प्रचार और निजी बैंकों के महिमामंडन से उन्हें दुबारा धनपशुओं के हवाले करने की भूमिका तैयार कर रहे हैं।

शिक्षा और ज्ञान 338 (धर्म-संस्कृति)

 कुछ लोग बात-बेबात सनातन की दुहाई देते हैं खासकर धर्मनिरपेक्ष मान्तायताओं को गाली देने के लिए, लेकिन वे स्पष्ट नहीं करते कि सनातन से वे क्या समझते हैं, पूछने पर, वैसे ही आंय-बांय करते हैं जैसे वाम शब्द के दौरे से पीड़ा का अनवरत विलाप करने वाले, वाम क्या है के सवाल पर।


ये धर्म और संस्कृति का इस्तेमाल साथ-साथ ऐसा करते हैं जैसे दोनों एक ही हों। जबकि धर्म का संबंध ईश्वर की अलौकिक शक्ति से है। विभिन्न धर्मावलंबी अपने अपने ईश्वर को श्रृष्टि का रचइता मानते हैं।

हर ऐतिहासिक समुदाय अपने अपने ऐतिहासिक संदर्भ और बदलती देश-काल की परिस्थियों में अपनी भाषा, मुहावरे, रीति-रिवाज, ईश्वर और उसके निलय (धर्म) का निर्माण करता है जिसका स्वरूप और चरित्र देश-काल के अनुसार बदलता है। संस्कृति का संबंध मनुष्य के आचार-विचार तथा मान्यताओं के विकासक्रम से है।

धर्म की परिभाषा भगवान या भगवानों में आस्था के रूप में की जा सकती है; यह भगवान या भगवानों की पूजा-अर्चना के नियमों, कर्मठों और कर्मकांडों की एक प्रणाली है। जबकि संस्कृति शब्द को एक पूरे सामाजिक समुदाय की जीवन शैली और सामाजिक मान्यताओं के रूपमें की जा सकती है। गौरतलब है कि ऐसे सामाजिक समुदाय में विभिन्न धर्मावलंबी तथा अधार्मिक एवं नास्तिक भी हो सकते हैं। संस्कृति की गुणवत्ता का निर्धारण समुदाय के लोगों की रचनात्मक रुचि, इंसानियत की समझ तथा विश्वदृष्टिकोण एवं नैतिक मान्यताओं, तथा सामाजिक संबंधों, प्रवृत्तियों तथा सामूहिक उद्देश्यों और रीति-रिवाजों से होता है।

जारी.....

Thursday, December 23, 2021

बेतरतीब 119(मिशाल से शिक्षा)

 Kanupriyaहा हा. मेरी बेटियां तो बहुत बड़ी बड़ी होगयी हैं. छोटी जब छोटी(4-5) थी तो मुझसे तथा अपनी बड़ी बहन पर बहादुरी दिखाती थी, सोसाइटी में अपनी ही उम्र के किसी लड़के से पिट कर आई तो अपनी मम्मी को बताया कि वह लड़का अपनी मां-बाप का नालायक पैदा हुआ है. मैंने थोड़ा मजाक किया तो मुझे पीट दी. बच्चे बहुत सूक्ष्म पर्यवेक्षक तथा नकलची होते हैं. नैसर्गिक प्रवृत्ति महज आत्मसंरक्षण होती है, हम अपना बचपन याद करें या अपने बच्चों का सूक्ष्म अध्ययन करें तो पायंगे बच्चे डांट से बचने के लिेए सच लगने वाले बहाने बनाते हैं. बच्चे अच्छे-बुरे नहीं होते अच्छाई बुराई वे परिवार, परिवेश तथा समाज से सीखते हैं. बच्चे रूसो के प्राकृतिक मनुष्य की तरह निरीह, मासूम जीव होते है। व्यक्तित्व का विकास समाजीकरण से होता है। इसी लिए मां-बाप तथा शिक्षक को मिशाल से पढ़ाना होता है प्रवचन से नहीं.(A teacher has to teach by example and parents have to bring up children by example) 2-3 साल की उम्र से बच्चों की समझदारी बढ़ती है, साथ ही बढ़ती है आज़दी की चाह तथा बढ़ता है मां बाप का आज़ादी पर अलोकतांत्रिक नियंत्रण. इस नियंत्रण में विवेकशीलता की जरूरत है. ज्यादातर मां-बाप अपने मां-बाप के सम्मान में अपने बच्चों से वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा उनके मां-बाप ने उनके साथ किया था, अपनी असुरक्षा तथा दुर्गुण बच्चों में प्रतिस्थापित कर देते हैं, अपनी अपूर्ण इच्छाएं भी. एक कॉलेज के एक शिक्षक अपने बाप की घूसखोरी के लिए जेल यात्रा की कहानी ऐसे बताते हैं जैसे कि वे स्वतंत्रता सेनानी हों. 1991-92 की बात होगी मैं एक साल की कॉलेज की नौकरी के बाद फिर से फ्री-लांसर (बेराजगार) था. यचआईजी फ्लैट में रहता था(यलआईजी फ्लैट ढूंढ़ते ढूंढते थककर य़चआईजी ले लिया, वैसे1100 से सीधे 2000 का जंप बहुत था) छोटी प्रेप में थी बड़ी 4 में. हमारे पास फ्रिज नहीं था. बेटियों को आइसक्रीम खिलाने ले गया था. वापसी में मैंने ऐसे ही तफरीह में पूछा मेहनत मजदूरी की कमाई से ऐसे रहना ठीक है कि चोरी-बेईमानी से ऐशो आराम से. दोनों ने कहा नहीं वे ऐसे ही खुश हैं. छोटी को लगा कि रोज आइसक्रीम खाना शो-आराम है. बहन से बोली, दीदी हम घड़े में आइसक्रीम जमा लेंगे. खैर उसी हफ्ते एक डॉक्यूमेंटरी की स्क्रिप्ट का 10000 का पेमेंट आ गया तथा इमा का ऐशोआराम.एक बार कुछ कर रहा था किसी का फोन आया मन में आया बेटी से कह दूं कि बोल दे घर पर नहीं हूं लेकिन तुरंत सोचा कि कल झूठ बोलने से रोकूंगा तो सोचेगी कि अपने काम से झूठ बोलवाते हो और अपने आप झूठ बोलूं तो आफत. तुम भाग्यशाली हो जो इतनी छोटी बेटियों के साथ बढ़ रही हो, इतने छोटे बच्चों के साथ बहुत मजा आता है बस उनको उनके बारे में अपनी चिंताओं, ओवरकेयरिंग, ओवरप्रोटेक्सन, ओवरयक्सपेक्टेसन से प्रताड़ित मत करना. हा हा. इतनी सलाह मुफ्त में और के लिए फीस इज निगोसिएबल. मेरा प्यार देना.


24.12. 2015

नागरिकता कानून

 मैंने नागरिकता अधिनियम के विरोध में अमेरिका के शिकागो में आयोजित प्रोटेस्ट में अपनी बेटी के शिरकत की तस्वीर शेयर किया उस पर एक सज्जन ने कहा कि मैं इसलिए विरोध कर रहा हूं कि इसे खास पार्टी लागू कर रही है, एक और ने कहा कि वामपंथी सीधे-सादे आदिवासियों को बरगलाकर जल-जंगल की लड़ाई में झोंक देते हैं और अपने बच्चों को पूंजीवादी देश अमेरिका भेज देते हैं, उनपर कुछ कमेंटः


जी नहीं, हम इसलिए विरोध करते हैं कि यह संविधान के मूल चरित्र के विरुद्ध है। इस पर एक छोटा लेख मैंने इस ग्रुप में शेयर किया है। इसलिए भी विरोध करते हैं कि इसका मकसद गरीबी, बेरोजगारी, देश की सार्वजनिक संपत्ति की बिक्री से ध्यान हटाकर हिंदू-मुसलमान के बाइनरी के नरेटिव को जारी रखते हुए, धर्मपरायण जनता को उल्लू बनाकर चुनावी ध्रुवीकरण से अपना उल्लू सीधा करना है।

आप की अकल पर कुछ कमेंट करूंगा तो बुरा मान जाएंगे, किन सीधे-सादे लोगों को बरगलाने की बात कर रहे हैं? जिन्हें आपसीधे-सादे बरगलाने के पात्र समझ रहे हैं वे आप और मेरे जैसों से बहुत समझदार हैं, बरगलाने की कोशिस कीजिएगा तो कान काट लेंगे। कहां से सीधे-सादे बरगलने वाले लोगों की कल्पना लेकर आते हैं? आदिवासियों के किसी आंदोलन में जाइए 20-25 साल के लड़के-लड़कियों को सुनकर दंग रह जाएंगे तथा खुद के डिग्री होल्डर होने पर शर्म आएगी। पूंजी का कोई देश नहीं होता और मजदूर का भी देश नहीं होता, मेरी बेटी मेरी ही तरह एक स्वतंत्र इंसान है, मेरी ही तरह जहां भी खरीददार मिले श्रम बेचने को अभिशप्त, बाकी जहां भी रहे वहीं अन्याय के विरुद्ध लड़ने न लड़ने को स्वतंत्र। वैसे घटिया निजी आक्षेप ओछेपन की निशानी है। मैंने उसे प्रोटेस्ट में शामिल होने के लिए नहीं कहा, न ही मेरे कहने से वह शामिल होगी, न मना करने से मानेगी। बाकी मैं पड़ोसी के घर नहीं अपने ही घर भगत सिंह के पैदा होने की कामना करता हूं।

समाजवाद भविष्य की व्यवस्था है। द्वंद्वात्मक भौतिकवाद है क्या जिसे फेल होते आपने देखा है? यदि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की समझ होती तो यह सवाल न करते कि मैं पूंजीवादी व्यवस्था के विवि में नौकरी क्यों करता था? समाजवाद में नौकरी (श्रम बेचने) की जरूरत नहीं होगी सब अपनी सर्जक क्षमता भर काम करेंगे और सबकी जरूरतें पूरी करना समाज का दायित्व होगा। सादर।

असहमति का सम्मान करता हूं लेकिन आप सहमति नहीं दिखा रहे हैं कुतर्क कर रहे हैं तथा निराधार निजी आक्षेप। बेटी की सत्ता की दलाली करती तस्वीर नहीं शेयर कर रहा हूं, प्रोटेस्ट की तस्वीर शेयर कर रहा हूं, मेरे बारे में या वाम पंथ के बारे में कुछ जाने बिना कुतर्कपूर्ण आक्षेप या फतवेबाजी को पूवाग्रह एवं कुंठा का ही परिचायक है। मेरी न तो सत्ता में पहुंच है न इतना धन है कि बेटी को अमेरिका भेज सकूं, मेरी बेटियां इतनी आजाद-खयाल हैं कि मेरे भेजने से न कहीं जाएंगी न मना करने से न जाएंगी। उसने फिल्म-पत्रकारिता का कोर्स किया और देश-विदेश में आगे की पढ़ाई और रोजी के स्कोप खोजते अमेरिका पहुंच गयी, वहां कोई प्रोटेस्ट हो रहा था उसमें वह शरीक हुई। उसने मुझे कार्यक्रम की तस्वीर भेजा मैंने एक फक्रमंद बाप की तरह शेयर कर दिया। आप उस पर अपने कमेंट देखिए और खुद अपने पूर्वाग्रहों तथा कुंठा पर सोचिए। आपकी प्रोफाइल देखा और एक शिक्षक होने के नाते दूसरे शिक्षक का ऐसा व्यवहार देख तकलीफ हुई जो मैंने आपसे शेयर किया। यथार्थ देखर किताबों से अधिक असली ज्ञान होता है लेकिन उस पर चिंतन यदि विवेकपूर्ण हो, पूर्वाग्रहऔर कुंठाजनित न हो। किताबों से अन्य लोगों के विचार भी जानने को लमिलते हैं जो हमारे अपने चिंतन को समृद्ध करते हैं, इसलिए किताबें पढ़ना भी जरूरी है। शिक्षक को तो लगातार पढ़ते रहना चाहिए। सादर, किसी को छोटा दिखाना मेरा कभी मकसद नहीं होता।

23,12.2019

Friday, December 17, 2021

गोरख की याद के बहाने

 क्रांतिकारी सांस्कृतिक मंच, 'जन संस्कृति मंच' (जसम) के संस्थापक महासचिव (General Secretary), हमारे मित्र गोरख पांडेय एक क्रांतिकारी कवि, लेखक एवं बुद्धिजीवी तथा क्रांतिकारी कम्युनिस्ट कार्यकर्ता थे। 1969 में सीपीआई (एमएल) की संस्थापना के समय से ही वे इसके जीवनपर्यंत सक्रिय सदस्य रहे। चारवाक, बुद्ध, डिमोक्रिटस, इपीक्यूरिअस तथा स्टोइक्स एवं कबीर जैसे चंद अपवादों को छोड़कर प्राचीनकाल से ही ज्यादातर दार्शनिकों नें आमजन (श्रमजीवी) वर्ग के प्रति तिरस्कारपूर्ण अवमाना दिखाया है। अठारहवीं शताब्दी के महान आवारा दार्शनिक रूसो ने आमजन को राजनैतिक विमर्श के केंद्र में स्थापित किया तथा नवोदित शासक वर्ग (पूंजीपति वर्ग) को बाध्य कर दिया कि वे जन के नाम पर ही जनविरोधी राजनीति करें। सारे पूंजीवादी संविधानों के जिल्द पर 'वि द पिपुल' लिखना पड़ा। सभी वर्ग समाजों की तरह पूंजीवाद का भी कथनी-करनी का अंतर्विरोध (दोगलापन) प्रमुख अंतर्विरोध है। साम्राज्यवादी भूमंडलीय पूंजी की सर्वाधिक वफादार भारतीय जनता पार्टी समेत भारत की सारी कॉरपोरेटी पार्टियां जनहित के विरुद्ध कॉरपोरेटी दलाली की राजनीति जरूर करेंगी, लेकिन नाम में जनता, लोक या समाजवादी जोड़ेंगी। दुनिया की अन्य संशोधनवादी कम्युनिस्ट पार्टियों की ही तरह, सीपीआई-सीपीएम जैसी भारत की संशोधनवादी पार्टियां भी शासक वर्गों की पार्टियों के साथ मिलकर सामाजिक बदलाव का ताना-बाना बुन रही थीं। व्यवस्था में घुसकर व्यवस्था नहीं तोड़ी जा सकती बल्कि व्यवस्था में समायोजन हो जाता है। गोरख ने यह गीत (समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई) 1970 के दशक के पूर्वार्ध में लिखा था जब सीपीआई इंदिरा गांधी के 'गरीबी हटाओ' नारे के चक्कर में कांग्रेस का पुछल्ला बन गयी थी। आलोचना और आत्मालोचना मार्क्सवाद की प्रमुख अवधारणाएं हैं। मार्क्सवाद के बारे में व्हाट्सअप विवि की अफवाहों में प्रशिक्षित धनपशुओं (पूंजीपति वर्ग) के तमाम कारिंदे मार्क्सवादियों के इस व्यवहार को मार्क्सवाद के विरुद्ध प्रोपगंडा के रूप में प्रचारित कर अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन करते हैं।


Thursday, December 9, 2021

बेतरतीब 118 (विनोद दुआ)

 मेरा भी परिचय विनोद दुआ से एक रंगकर्मी के रूप में ही हुआ था। मैं 1976 में आपातकाल में भूमिगत रहने (रोजी-रोटी की जुगाड़ के साथ) की संभावनाओं की तलाश में इलाहाबाद से दिल्ली आ गया और इलाहाबाद विवि के सीनियर डीपी त्रिपाठी को खोजते हुए जेएनयू पहुंच गया। त्रिपाठी जी तो जेल में थे लेकिन उनके मित्र घनश्याम मिश्र के जरिए इलाहाबाद के एक अन्य सीनियर रमाशंकर सिंह से मुलाकात हो गयी और रहने की जुगाड़ हो गयी तथा गणित के ट्यूसन से रोजी-रोटी का। 1977 में आपातकाल के बाद जेएनयू में दाखिला लिया और अक्सर लंच के बाद मंडी हाउस में अड्डाबाजी करने जेएनयू बस से सप्रू हाउस आ जाता था। भूमिका अनायास लंबी हो गयी। एक बार रवींद्र भवन के लॉन में कुछ युवा रंगकर्मियों से मुलाकात हुई जो एमके रैना के ग्रुप प्रयोग से विद्रोह कर अलग ग्रुप बना लिए थे। उनमें विनोद दुआ भी थे। बाकी जो नाम याद हैं वे हैं वीरू (वीरेंद्र सक्सेना), सुधीर और सुधांशु (दिवंगत) मिश्रा जिनकी बहन सुनीता मिश्रा जेएनयू में थी, नीना गुप्ता (शायद) और तनुजा चतुर्वेदी। बादल सरकार के प्रसिद्ध नाटक पगला घोड़ा का रिहर्सल कर रहे थे, मुझे भी ग्रुप में शामिल कर लिया। उसके बाद विनोद के कई नाटक देखे। बाद में विनोद टीवी पत्रकार हो गए तो मुलाकातें बहुत कम हो गयीं। प्रेस क्लब 2-4 मुलाकातें हुईं लेकिन टीवी पर उनके कार्यक्रमों में भी रंगमंचीय रचनाशीलता की झलक मिलती थी। वे मुझे एक विद्रोही रंगकर्मी और निडर पत्रकार के रूप में हमेशा याद रहेंगे। विनम्र श्रद्धांजलि।