इस नव-उदारवादी दौर में सामाजिक न्याय और आर्थिक न्याय की लड़ाइयां आगे-पीछे नहीं, साथ-साथ चलकर ही कारगर हो सकती है.
पंजाब के दलितों ने जमीन के अधिकार की लड़ाई, प्रतिष्ठा के सवाल से जोड़ा और काफी हद तक सफलता मिली.
जातिवाद को समाप्त किए बिना समाजवाद की स्थापना मुश्किल ही नहीं असंभव है.
पुरातन को समाप्त होना ही है. धार्मिक कर्मकांडों के विस्तार तथा जाति आधारित चुनावी लामबंदी, इसमें सबसे बड़े बाधक हैं.
उन्नत वैचारिक व्यक्ति की बात पर मैं निश्चित नहीं हूं, लेकिन उन्नत सामाजिक चेतना के बगैर क्रांति नहीं संभव है.
सामाजिक चेतना का जनवादीकरण यानि वर्गचेतना के प्रसार की जिम्मेदारी जनपक्षीय बुद्धिजीवियों की जिम्मेदारी है.
बाबा साहब ने बिल्कुल ठीक कहा था कि ....जातिवाद के शैतान को मारे बिना क्रांति नहीं हो सकती. लेकिन क्रांति के बिना जाति का विनाश नहीं हो सकता."
मुझे लगता है कि दोनों संघर्ष साथ चलना चाहिए.
अंबेडकरवादी समूहों और मार्क्सवादी समूहों को सार्थक संवाद के जरिए, संघर्ष का एकताबद्ध मंच बनाना चाहिए.
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