Tuesday, November 6, 2018

कोलंबस और नस्लवाद



यह लेख ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के मार्च, 1992 अंक में छपा था।

रॉडनी किंग कांड
नस्लवादी हिंसा और कोलंबस की विरासत


ईश मिश्र


   कोलंबस नामक एक स्पेनी नाविक सोने – चांदी की लालसा में भारत आना चाहता था लेकिन रास्ता भटक कर अक्तूबर 1492 में अमरीका पहुंच गया और एक नयी दुनिया की ‘खोज’ कर डाली। इस ‘खोज’ के साथ इतिहास में एक नया दौर शुरू हुआ – औपंनिवेशिक शोषण, लूट और नरसंहार का दौर जिसकी निरंतरता आज तक बनी हुई है। ‘खोज’ की इस अवधारणा में कितना मिथ है और कितना यथार्थ इसका पता इस बात से ही चल जाता है कि अन्य लोगों ने कोलंबस से हजारों साल पहले ही इस भूखंड की खोज कर के वहां एक उन्नत सभ्यता का विकास कर लिया था। कोलंबस की ‘खोज’ से जो नयी बातें  शुरू हुई वे थीं अमरीका के मूल वासियों का अभूतपूर्व नरसंहार और ऐजतक की गौरवशाली सभ्यता का विनाश। अफ्रीकी मूल के लोगों को जबरन दास बनाने की प्रक्रिया इसकी अगली कड़ी थी जिसके लिए नस्लवाद की विचारधारा गढ़ी गयी। इसीलिए कोलंबस की पंचशताब्दी यूरोपीय श्रेष्ठता की बजाय मानवता के विरुध्द यूरोपीय अत्याचारों की याद के रूप में मनायी जानी चाहिए।

  अमरीकी साम्राज्यवाद तथा विश्व – बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष जैसी उसकी महाजनी संस्थाएं मानवाधिकारों की दुहाई देकर तीसरी दुनिया के मुल्कों पर आर्थिक प्रतिबंधों  का नगाडा पीट रहे थे कि रॉडनी किंग कांड ने मानवधिकारों के प्रति इनके छद्म सरोकारों की कलई खोल दी। वीडियो टेप के प्रत्यश साक्ष्य के बावजूद ऱॉडनी किंग नामक अश्वेत अमरीकी नागरिक को निर्ममता से पीटने वाले श्वेत पुलिसकर्मियों को बाइज्जत बरी करके लॉस एंजेलस के श्वेत न्यायाधिशों ने अमरीकी न्यायप्रणाली के नस्लवादी अन्याय को तो रेखांकित किया ही, दुनिया को यह भी बता दिया कि अमरीकी न्यायालयों के फैसले साक्ष्य पर नहीं न्यायाधीशों की मान्यताओं  पर आधारित होते हैं और मान्यताएं तो नस्लवादी भी हो सकती है। दरअसल ल़ॉस एंजेलस के न्यायाधीशों के पास शायद ही कोई और विकल्प था। वे कोलंबस की ‘खोज’ के बाद की उन्हीं ऐतिहासिक परंपराओं और  अनुष्ठानों के अंग है जो हर रोज नस्लवाद की रचना और पुनर्रचना करते हैं और उसे लोगों में प्राकृतिक नियम के रूप में स्थापित करने की कोशिश। लेकिन अब वे दिन गए जब अफ्रिकी मूल के लोगों को गुलाम बनाकर जानवरों की तरह हांका जाता था। नस्ल विरोधी मानवीय चेतना इतनी विकसित हो चुकी है कि जब भी किसी रॉडनी किंग के साथ की गई नस्लवादी बर्बरता  को न्याया की संज्ञा दी जाएगी तो नस्लवाद विरोधी आक्रोश उसे खाक में मिला देगा।

      कितने ही अश्वेत रॉडनी किंग हर रोज अमरीका की गोरी पुलिस की नस्लवादी हिंसा के शिकार होते रहते हैं पर उनकी वीडियो फिल्म नहीं बन पाती। अश्वेत नागरिक ऱॉडनी किंग के साथ श्वेत पुलिस कर्मियों के बर्बर व्यवहार के जीवंत चित्रांकन के प्रत्यक्ष साक्ष्य की मौजूदगी के बावजूद, लॉस एंजेलस के श्वेत श्रेष्ठतावादी न्यायाधीशों को इसमें मानवाधिकार के उल्लंघन जैसी कोई बात नजर नहीं आयी और दोषी पुलिस कर्मी बाइज्जत रिहा कर दिए गए।

कभी-कभी ऐसा होता है कि कुछ लोग अपने विश्वासों – अंधविश्वासों के प्रति इतने प्रतिबध्द होते हैं कि उनको प्रत्यक्ष तार्किक विसंगतियों की परवाह किए बिना आस्था के तौर पर आत्मसात कर लेते हैं। एक अश्वेत नागरिक (जिसके पूर्वजों को बर्बरतापूर्ण व्यवहार बर्दाशत करते हुए अपने स्वामियों के उपभोग के लिए उत्पादन करना पड़ता था) जो इन श्वेत श्रेष्ठतावादियों की मान्यता के अनुसार स्वाभावतः अपराध-प्रवृत्ति का होता है, उसके द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन  की गुहार विव्दान न्यायविदों को अटपटी लगी। उसकी गुहार को अमरीकी न्याय व्यवस्था ने तो निरस्त कर दिया लेकिन उस गुहार से संचित नस्ल विरोधी आक्रोश को गति मिल गई और नस्ल विरोधी आंदोलन ने उग्र रूप धारण कर कई अमरीकी नगरों को अपनी चपेट में ले लिया।

नई विश्व – व्यवस्था के स्वघोषित महानायक बुश को यह नस्ल विरोधी आंदोलन भले ही “अनियंत्रित भीड़ की बर्बरता” लगे, लॉस एंजेलस से शुरू हुआ यह आंदोलन उस चेतना का प्रतीक है जो श्वेत श्रेष्ठतावादी सभ्यता का हिस्सा है जिसकी नींव 1492 में कोलंबस ने अमरीकी न्याय प्रणाली में अंतर्निहित नस्लवादी अन्याय कोलंबस की ही विरासत का हिस्सा है। वैसे भी 1992 का वर्ष धूम धड़ाके के साथ, कोलंबस की “खोज” के पंचशताब्दी वर्ष के रूप में मनाया जा रहा है।

यह एक ऐतिहासिक विडंबना ही है एक यूरोपीय नाविक कोलंबस ने 1492 में एक ऐसे अमरीका की “खोज” की जो सामाजिक-संगठन कृषि और औधोगिक तकनीक, कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्रों में यूरोपीय देशों से कम विकसित नहीं था। गौरतलब है कि उस समय अजतक (Aztec) नगर की तीन लाख की आबादी मैड्रिड की आबादी की पाँच गुना थी। वहाँ के लोग इतने स्वाभिमानी थे कि कोलंबस और उसके अनुयायी उपनिवेशवदियों द्वारा न तो उन्हें गुलाम बनाया जा सका और न ही अनुबंधित नौकर। गुलामी की जिंदगी के बदले उन्होंने आजादी की मौत को चुना जिसके एक एक टुकड़े के लिए उन्होंने संघर्ष किया। अमरीका में यूरोपीय सभ्यता के प्रवर्तकों की बर्बरता और क्रूर हिंसा से जो बचे वे भागकर अभेध जंगलों और बंजर जमीनों में बस गए। उनके वंशज तब से लगातार औपनिवशिक दमन, अतिक्रमण और शोषण के शिकार हो रहे हैं। (हाल ही में प्रकाशित एक पुस्तक दि प्रेडिकामेंट ऑफ कल्चर (सं. – जेम्स क्लिफॅर्ड) का लेख ‘आइडेटिटी इन मैसिशिपी’ विस्थापन के कगार पर अस्मिता का संकट झेल रहे रेडइंडियनों यानी अमरीकी मूल के लोगों की शाश्वत पीड़ा की दर्दनाक कहानी है।)

यूरोपीय सभ्यता के महिमामंडन के रूप में मनाये जा रहे कोलंबस की ‘खोज’ की पंचशताब्दी समारोह का सीधा संबंध ल़ॉस एंजेलस के दगों से भले ही ल हो लेकिन इससे यूरोप और असरीका में श्वेत श्रेष्ठतावादी नस्लवाद की मुखरता आक्रामक हो उठी है। कोलंबस और उसके अनुयायी उपनिवेशवादियों की निगाह में महज श्वेत-ईसाई ही मनुष्य थे बाकी सब बर्बर और असभ्य। यदि कोलंबस यूरोपीय सभ्यता का प्रतिनिधित्व करता है तो यह पंचशताब्दी समारोह लातिन अमरीका का अपशकुन है। यह समारोह इन लोगों के अतीत को तो नकारता ही है वर्तमान से भी वंचित करने का प्रयास करता है।

समारोह के उपलक्ष्य में स्पेन के कादिज बंजरगाह से शुरू होकर कैरीबियन तट होते हुए कोलंबस बेडे की अमरीका की यात्रा  और फिर डांमिनिकन रिपब्लिक के लीवरपूल से वापसी, दास व्यापार के जल मार्गों की ही याद दिलाती है। 6 करोड़ डालर से लीवरपूल बंदरगाह पर बना कोलंबस लाइट हाउस डांमिनिकन रिपब्लिक के अश्वेत नागरिकों की अस्मिता का अपमान है। पंचशताब्दी समारोह के उपलक्ष्य में न्यूयार्क की स्वतंत्रता की प्रतिमा को बारसिलोना स्थित कोलंबस की प्रतिमा से ब्याहने की घटना  स्वतंत्रता संग्रामों के इतिहास को कलंकित करने के साथ स्वतंत्रता शब्द का भी मजाक उड़ाती है।

यूरो-श्वेत श्रेष्ठतावादी पूरे प्रकरण के लिए अश्वेतों में नस्ली तौर पर मौजूद अपराध प्रवृत्ति को ही जिम्मेदार मानते हैं। डेली टेलीग्राफ के एंडू सुलिवन नस्ली दंगों के दुष्परिणामों पर आंसू बहाते हुए रॉडनी किंग की बेरहमी से पिटाई को परोक्ष रूप से जायज ठहराते हैं क्योंकि पुलिसकर्मियों को सीमित साधनों से खतरनाक माहौल में कानून व्यवस्था चलानी पड़ती है। उनके अनुसार लॉस एंजेलस की अदालत के नस्लवादी फैसले को इस वृहत्तर संदर्भ में रखकर देखना चाहिए कि ज्यादा अपराध कौन करता है। फिर लंबे चौड़े आंकड़ों से साबित करते हैं कि अफ्रिकी मूल के लोग स्वभावतः अपराधी होते हैं। उनकी और उन्हीं जैसे तमाम अमरीकी बुध्दिजीवियों की राय में श्वेतों के पैंसे से चलने वाले सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों के रद्द करके ही अमरीका की नस्ली समस्या हल की जा सकती है। इस तरह के तर्क अशिक्षा और गरीबी के मकड़जाल में फंसे अश्वेत अमरीका को नेस्तनाबूद करने की साजिश है।
जनवरी 1988 में अमरीका टेलीविजन नेटवर्क के एक खेल उद्घोषक जिम्मी द ग्रीक ने दर्शकों को बताया कि बास्केट बाल में यदि प्रशिक्षक भी अश्वेत होने लगे तो श्वेतों के लिए टीम में कोई जगह ही नहीं बचेगी। आगे यह भी बताया कि अश्वेत इस खेल में इसलिए ज्यादा दक्ष होते हैं कि उनकी जांघें चौड़ी होती हैं। इसके लिए उनकी पूर्वजों के नियोजित प्रजनन की भूमिका को रेखांकित करते हुए इतिहास की अपनी जीव  वैज्ञानिक समझ का परिजय देने के उद्देश्य से उसने कहा, “दास व्यापार के दौरान मालिक लोग भारी भरकम काले गुलामों का सहवास आनुपातिक कद काठी की काली औरतों के साथ आयोजित करते थे जिसने तिजारत के लिए गुलामों की अच्छी पैदावार हो सके”।

‘नस्ल’ की यह जीवविज्ञानिक समझ ‘द ग्रीक’ जैसे खेल उद्घोषकों तक ही सीमित होती तो गनीमत थी। शिक्षित होने का दावा करने वाले और उसी की कमाई खाने वाले भी उससे पीछे नहीं हैं वाशिंगटन पोस्ट के जाने माने उदारवादी पत्रकार रिचर्ड कोहेन ने द ग्रीक की हिमायत करते हुए शरीर विज्ञान के विव्दानों को धता बताकर श्वेत जींस का सिध्दांत प्रतिपादित कर डाला। सुलिवन और कोहेन जैसे पत्रकार पहले रंग-रूप की विशिष्टताओं को नस्ल के रूप में परिभाषित करते हैं और घुमावदार तर्क का इस्तेमाल करते हुए उसी परिभाषा के माध्यम से नस्लीय भिन्नता प्रमाणित करते हैं

नस्ल की यह जीवविज्ञानिक समझ खेल उदघोषकों और अधकचरे पत्रकारों तक ही सीमित होती तो भी गनीमत थी। मई 1987 में अमरीका के सर्वोच्च न्यायालय में कुछ अरब यहूदी राष्ट्रीयता के अमरीकी नागरीकों ने भेदभाव से बचने के लिए नागरिक कानून के तहत संरक्षण की याचिका दायर की। जनतंत्र में किसी के विरूध्द भेदभाव की मनाही के सिध्दांत के आधार पर फैसला करने की बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने यह जानना चाहा कि अरब यहूदी काकेशियन समूह के लोगों से नस्ली तौर पर भिन्न होते हैं क्या? यदि हाँ, तो उन्हें नस्ली भेदभाव से संबंधित नागरिक कानूनों के तहत संरक्षण मिल सकेगा। फिर फैसला किया कि चूंकि उन्नीसवीं शताब्दी तक अरब, यहूदी और कई अन्य राष्ट्रीयता और जातीयता के समूहों को नस्ली समूह के रूप में माना जाता था इसलिए उन्हें सौ साल बाद भी वैसा ही माना जा सकता है। 100 साल पहले के नस्ली अन्याय को समाप्त करने की बजाय सर्वोच्च न्यायालय ने 19वीं शताब्दी के नस्ली अधंविश्वास और पूर्वाग्रह को पुनर्स्थापित करना ही न्याय संगत समझा। दरअसल लॉस एंजेलस की ही अदालत की तरह अमरिकी सर्वोच्च न्यायालय के पास भी शायद ही कोई और विकल्प रहा होगा क्योंकि वह भी अमरीका के उसी ऐतिहासिक विकास की विरासत का हिस्सा है जिसकी नींव अनगिनत रेड इंडियनों अनुबंधित नौकरों और गुलामों के लहू से जोड़ी गई है। इस तरह हम पाते हैं कि, अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय और जिम्मी द ग्रीक में इस अर्थ में कोई फर्क नहीं है कि दोनों ही के विचार उन्हीं अवधारणाओं से प्रभावित हैं जो एक विचारधारा के रूप में नस्ल की रचना और पुनर्रचना करती है। ज्यादातर अमरीकियों के दिमाग में प्रत्यक्ष या परोक्ष यह कुतर्कपूर्ण अवधारणा घर कर गई है कि अफ्रीकी मूल या रूप रंग के लोग अलग किस्म के जीव होते हैं।  जिनके हर काम, बात या विचार से नस्ल की बू आती है। श्वेत श्रेष्ठतावादी बौध्दिकों को यूरो अमरीकी शब्द अटपटा लगता है लेकिन अफ्रीकी-अमरीकी सहज। जिस तरह हमारे देश की कई र्धम निरपेक्ष शिक्षण संस्थाओं के आवेदन पत्रों पर र्धम और जाति के कालम होते हैं उसी तरह अमरीकी शिक्षण संस्थाओं के आवेदन पत्रों पर नस्ल का कॉलम होता है। इसीलिए अमरीकी में एक तरफ सुंदरी प्रतियोगिता होती है तो दूसरी तरफ ‘अश्वेत-सुंदरी-प्रतियोगिता’, कुछ कवि होते हैं और कुछ ‘अश्वेत’ कवि। जान अपडाइक लेखक हैं और टॉनी मारीसन अश्वेत लेखक बुश और डुकाकिस राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार थे और जेसी जैक्सन अश्वेत उम्मीदवार। चुनाव परिणामों से साफ हो गया था कि जैसी जैक्सन को तमाम तबकों से मुद्दों के आधार पर समर्थन मिला था। लेकिन अमरिका मीडिया इस बात का ढोल पीटती रही कि जैक्सन को अनिवार्यतः सभी अफ्रीकी अमरीकियों का ही समर्थन मिला।

अमरीकी इतिहास की एक प्रचलित पाठ्य पुस्तक (विंथ्रॉप जार्डन, लिऑन लिर्वाक व अन्य दि यूनाइटेड स्टेट्स. 1982)  में अमरीकी संविधान की एक धारा की व्याख्या इस प्रकार की गई है, प्रत्यक्ष कर और प्रतिनिधित्व के मामले में पाँच अश्वेत तीन श्वेतों के बराबर हैं। (पृ. 144) उपनिवेश विरोधी क्रांति के बाद निर्मित संविधान जैसे दस्तावेज में ‘श्वेत’, ‘अश्वेत’ जैसे शब्दों की अनुपस्थिति पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए। संविधान में स्वतंत्र व्यक्तियों और अन्य व्यक्ति (दास के लिए सम्मानजनक संबोधन) का वर्णन है। उपरोक्त ‘तीन-पाँच’ धारा का संबंध दास स्वामियों के विशेषाधिकारों से था। 1789 में बने संविधान ने स्वामियों को दासों की संख्या के तीन पाँचवें अनुपात में दास-स्वामित्व के एवज में प्रतिनिधित्व का अधिकार प्रदान किया और उसी अनुपात में प्रत्यक्ष करों की जिम्मेदारी। अमरीका के संविधान निर्माताओं को विडंबना यह थी कि उनके एक हाथ में आजादी का परचम था और दूसरे में दास व्यापार के मुनाफे की थेली। 1776 उत्तरी अमरीका के कुछ उपनिवेश आजाद हुए थे पर वहाँ के गुलाम नहीं। गृह-युध्द के दौर में दास प्रथा के विरोधी समर्थक दोनों ही इसके लिए कोलंबस की बिरासत को नहीं बल्कि अफ्रीकी मूल के लोगों की गुलामी को स्वाभाविक उनकी तार्किक परिणति नस्ल को स्वयं सिध्दि मानने में ही होगी।

कई अमरीकी इतिहासकार अमरीका में दास प्रथा की व्याख्या नस्ल संबंधों की प्रणाली के रूप में करते हैं जैसे इसका प्रमुख उद्देश्य तंबाकू, चावंल, चाय, कपास, चीनी आदि का उत्पादन न होकर श्वेत श्रेष्ठता का निर्माण रहा हो। अंग्रेजों सी ही गोरी चमड़ी के बावजूद आयरिश जनता के दमन में भी ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने बर्बरता के उन्हीं तर्कों का इस्तेमाल किया था जो अफ्रीकी, एशियाई और अमरीकी मूल के लोगों के दमन में किया था। प्राचीन  यूनान और रोम में स्वामी और दास के संबंध का निर्धारण रंग रूप के आधार पर नहीं होता था। हिटलर के गैस चैंबरों में घुट-घुट कर मरने वालों में यहूदियों और जिप्सियों के अलावा जर्मन (आर्य) जाति के ही कम्युनिस्ट एवं अन्य राजनैतिक विरोधी भी थे। नस्लवादी दमन रंग रूप की भाषा नहीं समझता वह सिर्फ प्रतिरोध की भाषा समझता है। नस्ल दरअसल न तो जीववैज्ञानिक गुण/प्रवृत्ति है और न ही कोई शाश्वत विचार। नस्ल पूंजीवाद की एक विचारधारा है जो एक खास दौर में आर्थिक राजनैतिक उद्देश्यों के ऐतिहासिक कारणों से अस्तित्व में आई। इसीलिए इसका अंत भी संभव है। लेकिन ऐसे लोगों के लिए जिन्होंने उन्हें अंतिम सत्य के रूप में आत्मसात कर लिया हो किसी विचारधारा का ऐतिहासिक विश्लषण संभव नहीं है इसीलिए वे इसकी आध्यात्मिक, धार्मिक या फिर सामाजिक जीववैज्ञानिक व्याख्या करते है। लेकिन एक बार अस्तित्व में आ जाने के बाद उसकी ऐतिहासिकता समाप्त हो जाती है। और नस्ल ऐतिहासिक विचारधारा से खिसक कर वशंगत प्रवृत्ति बन जाती है। (वेंथ्राप जार्डन, व्हाइट ओवर ब्लैकः अमेरिकन एटीच्यूट टुवर्ड नीग्रो 1988)

17वीं शताब्दी की शुरूआत में जब उत्तरी अमरीका (जो आगे चलकर संयुक्त राज्य अमरीका बना) के अंग्रेजी उपनिवेशवादियों को वर्जीनिया में तंबाकू उत्पादन की संभावनाओं का पता चला तो उन्हें मालामाल बनाने वाले तंबाकू अर्थतंत्र की रीढ़ अफ्रीकी गुलाम नहीं थे बल्कि भूस्वामियों जैसी ही चमड़ी वाले इंग्लैंड से लाए गए ब्रिटिश राष्ट्रीयता के अनुबंधित नौकर थे। इन्हें खरीदा बेचा जा सकता था, चुराया जा सकता था, अपहृत किया जा सकता था, जुए में दांव पर लगाया जा सकता था या उपहार में दिया जा सकता था। उनके साथ गुलामों जैसा ही बर्बर व्यवहार किया  जाता था। उनकी स्थिति अफ्रीकी गुलामों से इस मायने में बेहतर थी कि उनकी संताने इस अभिशाप से मुक्त थीं और कुछ भाग्यशाली अनुबंध की अवधि के बाद भी जिंदा बच जाते थे। कुछ लालची भूस्वामी उन्हें स्वतंत्रता और स्वतंत्रता राशि से वंचित करने के लिए अनुबंधों के साथ हेराफेरी करते थे, विषाक्त भोजन देते थे, उन्हें निर्दयता के साथ पीटते थे यहाँ तक कि जान से मार देते थे। भूपतियों की पसंद से अलग आचरण करने पर हाथ पैर तोड़दिए जाने, जीभ, कान, काट लेने जैसी घटनाएं अनजानी नहीं थी। (एडमंड मार्गन, अमैरिकन स्लेवरी, अमेरिकन फ्रीडमः दि आर्डियल ऑफ कोलोनिअल वर्जीनिया 1975, पृष्ठ 14-30)

वर्जीनिया उस समय तंबाकू उत्पादन से मालामाल होने के लिए मशहूर थी। जनतांत्रिक अघिकारों, स्वतंत्रता था उत्तरदाया सरकार की बातें अनजानी थी। जनतांत्रिक तरीकों से मुनाफा नहीं कमाया जा सकता था। अनुबंधित नौकरों को चरम शोषण और अमानवीय बर्बरता से न तो उनकी गोरी चमड़ी बचा सकी थी और न ही ब्रिटिश राष्ट्रीयता। अंग्रेज उपनिवेशवादियों ने अनुबंधित नौकरों को इसलिए नहीं गुलाम बनाया कि एक यूरोपीय दूसरे यूरोपीय के शोषण में एक हद से आगे नहीं जा सकता। ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि अनुबंधित नौकर भी सशस्त्र थे और संख्या में भी अधिक थे। उन्हें गुलाम बनाने की कार्रवाई में विद्रोह की संभावना निहित थी। इससे उपनिवेशवादी खेमे में दरार का पायदा उठाकर बदले की ताक में बैठे अमरीकी मूल के लोगों के आक्रमण का भी खतरा था। इनके अलावा इसकी खबर फैलने के बाद इंग्लैंड से और नौकरों की आमद बंद होने का भी खतरा था। दमन को प्रतिरोध से ही रोका जा सकता है। ब्रिटिश निम्न वर्गों की आजादी अभिजात अंग्रेजों की कृपा का परिणाम नहीं थी। इसका एक-एक टुकडा सदियों के संघर्शों से हासिल किया गया था।
दास प्रथा का अंत भी मालिकों के हृदय परिर्वतन या उनकी जनतांत्रिक चेतना के चलते नहीं हुआ। गुलामों ने आजादी का एक-एक टुकडा लड़कर हासिल किया। पिछले संघर्षों से हासिल आजादी को बचाने और बढ़ाने के लिए अगला संघर्ष करना पड़ा। लासएंजेलस की अदालत के फैसले के विरुध्द अमरीका का मौजूदा नस्ल विरोधी आंदोलन पिछले संघर्षों की अगली कड़ी है। अमरीका में औपनिवेशिक अर्थतंत्र की ऐतिहासिक जरूरतों के चलते दास प्रथा का जन्म पहले हुआ उसकी विचारधारा के रूप में नस्लवाद का बाद में। वर्जीनियै में तम्बाकू व्यापार के चरमोत्कर्ष के दौर में वहाँ की अश्वेत आबादी नगण्य थी। एक अध्ययन के अनुसार 1645 में लगभग 500 और 1660 में लगभग 2,000 अश्वेत थे। (मॉर्गन, पृ. 298) ऐसा इसलिए था कि अनुबंधित नौकरों और गुलाम की जिंदगी की अवधि इतनी कम होती थी कि प्रायः एक नौकर के सात वर्ष की अवधि के एक अनुबंध का श्रम किसी दास के आजीवन श्रम से अधिक ही पड़ता था और औरतों की नगण्य संख्या को देखते हुए भविष्य में गुलामी के लिए गुलाम बच्चों की संभावनाएं भी अनिश्चित थी। (मार्गन, पृ. 111)

श्रम और जीवन की परिस्थितियों के बारे में प्रतिकूल प्रचार से आजीविका की तलाश में इंग्लैंड से आने वाले अनुबंधित नौकरों की संख्या घटने लगी तो उत्पादन बरकरार रखने के लिए वेस्ट इंडीज और अफ्रीका से जबरन ले आए जाने वाले अफ्रीकी और ऐफ्रो-वेस्ट इंडियन लोगों की संख्या में वृध्दि स्वाभाविक थी। यह स्थिति स्वामियों के लिए और मायने में फायदेमंद थी कि अंग्रेज निम्न वर्ग ऐतिहासिक विकास में अपनी शिरकत के दौरान वार्तालापों और संघर्षों के जरिए स्वामियों के साथ संबंध निर्धारण में कई सुविधाएं अर्जित कर चुका था। उनके संघर्षों के पीछे उनके पूर्वजों के संघर्षों का इतिहास थी। जबकि स्वजनों से दूर अफ्रीकी मूल के लोगों को संघर्ष की शुरूआत शुरू से करनी थी। इसलिए इन लोगों की गुलामी की जंजीरों में जकड़ना संभव था। वैसे भी वर्जीनिया के दास व्यापारी अक्सर पहले से प्रशिक्षित दास ही खरीदने थे। 1660 तक न तो आजीवन दासता से संबधित कानून ही बने थे और न ही अफ्रीकी मूल के नौकरों को लिए कोई अलग आचार संहिता थी। 1661 के पहले अफ्रीकी मूल के गुलामों के पास 19वीं शताब्दी के स्वतंत्र अश्वेतों से भी अधिक अधिकार थे। (विली रोज, सं. – ए डाक्युमेंटरी हिस्ट्री ऑफ स्लेवरी इन नार्थ अमरीको 1976 पृ. 16-18) उस समय तक एक आजीवन दास का दाम 5 वर्षों के लिए अनुबंधित ब्रिटिश नौकर के दाम का दुगुना था और उसकी जिंदगी प्रायः 5 साल से कम ही होती थी। इसीलिए उस समय तक दास प्रथा संस्थागत ढाँचा नहीं अख्तियार कर सका था । (मार्गन, पृ 197-98)

1660 के बाद तंबाकू के दामों में गिरावट शुरू हुई। अमरीका आने वाले ब्रिटिश नौकरों की संख्या घटने लगी और अफ्रीकी गुलाम काफी समय तक जिंदा रहने लगे। अनुबंधित नौकर अनुबंध की अवधि से अधिक जीने लगे और स्वतंत्रता राशि के साथ जमीन पर भी दावा जताने लगे। इससे जिनका ऐश्वर्य नौकरों के श्रम  पर आधारित था उन्हें चिंता होने लगी। उन्होंने बहाने गढ़कर नौकरों की अनुबंध की अवधि बढ़ाना शुरू कर दिया। दूसरा तरीका यह अपनाया कि सभी सिंचाई योग्य जमीनों पर कब्जा घोषित कर दिया जिससे स्वतंत्र हुए नौकर या तो भूस्वामियों के मालगुजारीदार बनकर उनकी सेवा टहल बजाएं चा फिर असिंचित सीमांत प्रांतों में जाकर बसें और बारंबार अतिक्रमण के शिकार अमरीका इंडियनों के कोप का भाजन बनें। 1670 के दशक में स्वतंत्र, भूमिहीन, असतुष्ट और सशस्त्र श्वेत युवकों की फौज वर्जीनिया के शासकों से सामने चुनौती बन गई। और 1676 में इन युवकों ने नौकरों और गुलामों के साथ मिलकर विद्रोह का बिगुल बजा दिया। शक्ति और सत्ता की व्यवस्था को सशक्त झटका देने अपनी ऐतिहासिक भूमिका अदा किए बिना ही विद्रोह की लौ बुझ गई लेकिन इसने शक्तिशाली अमीरों के मन में श्वेत-निम्न वर्गों के प्रति संदेह की भावना भर दी। यूरोपीय मूल के लोगों को नौकर रखना खतरनाक समझा जानो लगा। (मार्गन, पृ. 250-70)

सके बाद औपनिवेशिक अर्थतंत्र के बदले समीकरणों के तहत अफ्रीकी मूल के दासों की संख्या तेजी से बढ़ने लगी और दास प्रथा को संस्थागत ढांचा प्रदान करने की जरूरत महसूस की जाने लगी व उसका औचित्य ठहराने के लिए विचारधारा के रूप में नस्लवाद की। नस्लवाद की जड़ें तो कोलंबस की “खोज” तक जाती हैं लेकिन रंग – रूप के आधार पर इसका विधिवत विकास शुरू हुआ दास प्रथा के संस्थागत बन जाने के बाद। फर्क को श्रेष्ठता और हीनता की शब्दावली में प्रस्तुत करने वाली विचारधारा के रूप में नस्लवाद का इतिहास अमरीकी संविधान के इतिहास का समकालीन है। उपनिवेशोत्तर अमरीका समाज और राजनीति में अफ्रीकी मूल के लोगों को शामिल तो कर लिया गया लेकिन बिना किसी आजादी या अधिकार के। कहा जाता है जिन लोगों को सहजता से स्वभावतः हीन मान लिया जाए उन पर दमन करना आसान होता है। इसका विलोम ज्यादा सही है। सामंती जमाने में किसान इसलिए नहीं। सामंतों के अधीनस्थ थे  कि वे स्वभावतः हीन थे बल्कि चूंकि वे अधीनस्थ थे इसलिए उन्हें हीन समझा जाने लगा। लंबी पंरपराएं प्राकृतिक नियम का रूप धारण कर लेती हैं। प्रायः सभी मानव समाज प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने सामाजिक गठन को प्रकृति प्रदत्त बताने की कोशिश करते हैं। जारकालीन रूस के अभिजातों की आस्था थी उनकी हडिड्यां सफेद थीं और किसानों (सर्फ) की काली (पीटर कोल्विन, अन फ्री लेबरः अमरीकन स्लेवरी एंड रसिअन सर्फडम, 1987 पृ. 170-91) जाहिर है किसानों की, हडियां देखने के उनको अनेक अवसर मिले होंगे, लेकिन विचारधारा के तहत व्याख्यायित प्राकृतिक यथार्थ प्रकृति के यथार्थ से ज्यादा प्रभावशाली बन जाता है। ऐसा न होता तो भारत में ब्राह्मणवाद का इतिहास इतना लंबा न होता। 19वीं शताब्दी में जब कपास और कपड़ा उत्पादन समृध्दि का साधन बना, अफ्रीकी गुलाम तब भी उसी तरह अर्थ तंत्र की रीढ़ थे जिस तरह उपनिवेशवादी दौर में। इससे ऐसी स्थितियाँ बनीं कि स्वतंत्र नागरिक (श्वेत – अमरिकी) एक दूसरे के प्रत्यक्ष शोषण के बिना भी काम चला सकते थे। वर्ग शोषण को नस्ल शोषण को वैचारिक लबादा पहना दिया गया। इस तरह दास प्रथा का वर्णन नस्ल संबंधों के अर्थों मे किया जाने लगा और इसकी जिम्मेदारी डाल दी गई  अफ्रीकी मूल के लोगों की स्वाभाविक अयोग्यता पर। और इस तरह नस्लवाद की विचारधारा स्वतंत्रता और प्राकृतिक अधिकारों के क्रांतिकारी सिध्दांतों पर आधारित गणतंत्र में दास प्रथा की व्याख्या का माध्यम बन गई। यह विचारधारा की कुछ लोगों को उन अधिकारों से वंचित रखने का औचित्य साबित करने के लिए गढ़ी गई जो औरों के लिए नैसर्गिक अधिकार थे। यूरो-अमरीकियों ने स्वतंत्रता और दासता के अंतविरोधों के समाधान में नस्लवाद की विचारधारा का अन्वेषण किया तो अफ्रीकी अमरीकियों ने इस अतंर्विरोध के निदान के लिए दास प्रथा के अंत का नारा बुलंद किया  कि स्वतंत्रता उनका जन्मसिध्द अधिकारी है। दास प्रथा तो समाप्त हो गई लेकिन विचारधारा के रूप में नस्ल आज भी जीवित है। और इतिहास के इस दौर में जब प्रतिगामी शक्तियां उफान पर हैं, साम्राज्यवादी महाप्रभुओं की छत्र-छाया में इसकी मुखरता आक्रामक हो उठी है।

      कोलंबस की ‘खोज’ की पंचशताब्दी समारोह के जवाब में कई यूरोपीय और अमरीकी देशों में ‘500 साल का प्रतिरोध’ अभियान चलाया जा रहा है। इस अभियान का उद्देश्य अमरीकी महाव्दीप पर आक्रमणों के विरुध्द 500 सालों से चले आ रहे प्रतिरोध को रेखांकित करना है। यह अभियान कोलंबस नामक नाविक के महिमामंडन का भंडाफोड़ करने के साथ ही औपनिवेशिक आक्रमण, दासता और नस्लवाद के विरुध्द 500 सालों के संघर्षों की अगली कड़ी है। लॉस एंजेलस की अदालत के नस्लवाद विरोधी प्रदर्शन उसी कड़ी के हिस्से हैं। यह डॉमिनिकन रिपब्लिक में 6 करोड़ डॉलर की लागत से कोलंबस की याद में बने भव्य लाइट हाउस को देखकर खुश नहीं होता बल्कि कोलंबस की प्रतिमा को समुद्र में फेंक देने की हैती सरकार के निर्णय की सराहना करता है। स्पेन में प्रकाशित ‘अनमास्किंग 1992’ पंचशताब्दी और साझा यूरापीय बाजार के मुद्दों के साथ स्पेन से मूरों और यहूदियों के निष्कासन और 1942 की घटनाओं के मुद्दे भी उठा रहा है।  अभियान  के  तहत यूरोप और जनतांत्रिक ताकतें सभाओं, प्रकाशनों  सेमिनारों, गोष्ठियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए कोलंबस की खोज का मिथ तोड़ने का भरपूर प्रयास कर रही है। हो सकता है कि कोलंबस की ‘खोज’ के पंचशताब्दी वर्ष में शुरू किया गया ‘500 वर्षों का प्रतिरोध अभियान’ कोलंबस की विरासत की शिकार जनता के भावी संधर्ष की शुरूआत साबित हो और रंगभेद विरोधी चेतना का प्रतीक बन कर भेदभाव विहीन दुनिया के निर्माण की प्रक्रिया को निर्णायक दौर तक पहुँचा दे।




     

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