क्या हम उसी भाषा में बच्चों-बड़ों के साथ बात कर सकते हैं कि नहीं. फिलहाल छात्र-जीवन में मित्रों के साथ हम जिस भाषा में बात करते हैं, उसमें बड़े-बच्चों के साथ क्या, किसी शिष्ट मंच पर बात नहीं कर सकते. लेकिन हम ऐसी बातें ही क्यों करें जिसे बच्चों से छिपाना पडे? हम सब अपना बचपन याद करें तो बड़ों की जिन बातों से हमें दूर रखा जाता था, वे बातें हम उनसे ज्यादा जानते थे. मेरे जो मित्र मेरी तरह माँ-बाप [मैं दो बेटियों का फ़क्रमंद (फ़िक्रमंद नहीं) बाप हूँ,] हैं उनसे पूंछता हूँ कि क्या उनके माँ-बाप पूरी कोशिस के बाद उनकी फ्रीडम कंट्रोल कर पाए थे? जवाब हम सब जानते हैं, ‘हमारी फ्रीडम कौन कंट्रोल कर पाता?’ मैं उन्हें कहता हूँ नियंत्रण की वांछनीयता विवादित है, बिना बहस में गए, उन्हें सेट डाइलाग मारता हूँ, Every next generation is always smarter. जब प्रयास विफल होना अपरिहार्य है तो इसमें समय, ऊर्जा औरौर मन की शान्ति क्यों नष्ट करें.
हम जब बच्चे होते हैं तो सोचते हैं माँ-बाप को ऐसे नहीं ऐसे करना चाहिए और सबसे कष्ट होता था जब हमें सोचने के अधिकार से वंचित किया जाता था. हमारे बदले माँ-बाप/टीचर ही सोचते थे. जब हम माँ-बाप बन जाते हैं बचपन का कष्ट भूल कर बच्चों के साथ वही (क्योंकि हम तो बच्चों का भला ही चाहेंगे) अन्याय करते हैं. हम जब विश्विद्यालय में नए आते हैं अपमानजनक रैगिंग से इतने पीड़ित होते हैं कि कई आत्महत्या कर लेते हैं. एक साल बाद हम अपनी पीड़ा परसंतापी अंदाज़ में दूसरों को हस्तांतरित कर देते हैं. यही बात छात्र-शिक्षक/होस्टेलेर-वार्डन पर भी लागू होती है. हमें जीवन में juxtapose (दूसरे की जगह खुद को रखना) करना सिखाया ही नहीं जाता है.
हर समाज अपनी ऐतिहासिक जरूरतों के हिसाब से भाषा, कहावतें, मुहावरे, लोकोक्तियों, धर्म और देवी-देवता, आदर्श और स्मृतियाँ गढ़ते हैं इसी लिए देश-काल के अनुसार उनमें परिवर्तन होता रहता है. पूर्व-आधुनिक काल में इश्वर गरीब और असहाय की मदद करता था, अब सामाजिक डार्विनवाद, Survival of the fittest के प्रभाव में जो सक्षम है उसकी मदद करता है.
हमारा समाज पारंपरिक रूप से वर्णाश्रमी-सामंतवादी, मर्दवादी समाज रहा है. कोई शब्द भी तटस्थ नहीं होता. जब हम लड़की को बेटा कहकर संबोधत करते हैं तो हम अनजाने में ही मर्दवादी मूल्यों का पोषण करते हैं. मुख्य वर्जित क्षेत्र क्या हैं, जो हम छोटे-बड़ों से छिपाते हैं और बड़े छोटों से? सभ्यता हमारे अंदर दुहरेपन का भाव भरती है, हम जो होते नहीं, वह दिखना चाहते हैं और इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण परिवार है. मुख्य वर्जित क्षेत्र हैं सेक्सुअलिटी और उससे जुडी गालियाँ. कुछ लड़कियां, जो थोड़ा ‘हीरो’(हीरोइन नहीं) बनतीहैं, अनजाने में, विचारधारा के गहरे प्रभाव में वही नारी-विरोधी, मर्दवादी, सेक्सिस्ट गालियाँ देने लगती हैं. मैं उन्हें समझाता हूँ, नई गालिया आविष्कार करो तब तक कमीने/चीकट जैसी सेकुलर गालियों से काम चलाओ. ये गालियाँ तटस्थ नहीं हैं, ये सेक्सुअलिटी, खासकर फेमेल सेक्सुअल्टी की मर्द्वादी अवधारणाओं से पैदा हुई हैं उर उन्हें पोषित करती हैं. ज़रा सोचिये, दो लोगों के अन्तरंगतम, पारस्परिक, सम्भागीदारी की स्वाभाविक क्रिया-कलाप को गाली के रूप में क्यों इस्तेमाल किया जाता है? दो सहभागियों में एक की भागीदारी पौरुष हो जाता है दूसरे का कलंक?
२० साल पुरानी बात है, मेरे गाँव की एक आठवी क्लास की लड़की ने अपने किसी लम्पट सहपाठी से कभी बात-चीत कर ली थी और उसने गाँव के कुछ लड़कों के साथ मिलकर फैला दिया कि उसका उस लड़की से चक्कर है. लड़का तो चौराहे पर वीरगाथा बता रहा था और लड़की सभी के (घरवालों समेत) घृणा की पात्र थी. (वह लड़की अभी यूरोप के एक नामी संस्थान में अच्छे पद पर है.) सेक्स के इर्द-गिर्द सारे रहस्य, वर्जनाएं और सुचिताएं फिमेल सेक्सुअलिटी और फलस्वरूप पर्सनालिटी को मर्दवादी मानकों से नियंत्रित करने के उद्देश्य से निर्मित हैं. हम ऐसी लोकतांत्रिक भाषा का विकास क्यों नहीं कर सकते जो बच्चों को सोचने का अधिकार दे, औरतें, हर क्षेत्र में आगे रहने के बाद भी सेक्सुअलिटी सहित तमाम विमर्शों में क्यों नहीं शिरकत कर सकतीं?
इसके लिए हमें संवाद की जनतांत्रिक भाषा गढनी पड़ेगी लेकिन यह तभी संभव होगा जब वे मूल्य जिनकी यह अभिव्यक्ति है.इस दिशा में पहले कदम के रूप में जेंडर-फ्री गालियों का आविष्कार करें, तब तक गालिया देना बंद करें.
क्या जिस भाषा में हम मित्रों से बात कर सकते हैं क्या उसी भाषा में मा-बाप भाई बहन से? भाषा अभिव्यक्ति का माध्यम है वह जनतांत्रिक तभी होगी जब विचार/चेतना जनतांत्रिक होंगे और सही के अर्थों जब पारिवरिक संम्बंध जनतांत्रिक होंगे और परिणामस्वरुप सामाजिक मूल्य.