सामाजिक बदलाव के शायर, अदम गोंडवी का न रहना
ईश मिश्र
गोंडा जिले के आटा-परसपुर में १९४७ में “आज़ादी” के कुछ महीनों बाद, २२ अक्टूबर को पैदा हुए, “अमीरों से फैसलाकुन जंग” के हिमायती, असन्दिग्ध जनपक्षीय प्रतिबद्धता के साथ. “वर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर” की तरह “मशरिकी फन में नयी तामीर” की अपनी गज़लों से “होशोहवास में” जनता से “बगावत” की गुहार लगाने वाले जनकवि, रामनाथ सिंह – अदम गोंडवी – १८ दिसंबर २०१२ को दिवंगत हो गए. अदम जी को अगली पीढ़ियों की क्षमताओं पर अडिग विश्वास था, इस लिए यह तो नहीं कहूँगा कि अदम जी के न रहने से जनपक्षीय राजनैतिक कविता के क्षेत्र में निर्वात पैदा हो गया है, लेकिन बहुत दिनों तक खालीपन महसूस होता रहेगा. अदम जी कबीर परम्परा के कवि थे. कबीर ने कलम को हाथ नहीं लगाया था, अदम जी ने गांव की प्राइमरी पाठशाला से पांचवीं जमात तक पढ़ाई की थी, जनसत्ता के पहले आधुनिक पैरोकार, अठारहवीं शताब्दी के दार्शनिक, रूसो जितनी, जिनका ज़िक्र अदम जी ने अपनी एक कविता में किया है. ठाकुर रामनाथ सिंह से अदम गोंडवी बनने की यात्रा स्वाध्याय और कठिन आत्म-संघर्षों की यात्रा रही है. आज़ादी के चंद महीनों बाद जन्मे, अद्भुत समझ अवं संवेदनशीलता और सम्प्रेषण की पैनी धार एवं दलित-शोषित के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता वाले अदम गोंडवी को आज़ादी की हकीकत जल्दी ही समझ में आ गयी. “सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है/दिल पे रख कर हाथ कहिये मुल्क कया आजाद है/कोठिओं से मुल्क के मेआर को मत आंकिये/असली हिन्दुस्तान तो फूटपाथ पर आबाद है/.....ये नई पीढ़ी पे निर्भर है वही जजमेंट दे/फल्फा गांधी का मौजूं हैकि नक्सालवाद है......”. और यह कि “जो डलहौज़ी न कर पाया ये हुक्मरान कर देंगे/कमीशन दो तो हिन्दुस्तान को नीलाम कर देंगे/.......सदन को घूस देकर बच गयी कुर्सी बच गयी तो देखोगे/अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे.
"मेरी खुद्दारी ने अपना सर झुकाया दो जगह/वो कोइ मज़लूम हो या साहिबे किरदार हो." साहित्यिक प्रतिष्ठानों और प्रतिष्ठित साहित्यिकों की उपेक्षा और अवमानना एवं आर्थिक अभावों को धता बताते हुए, सिर्फ मजलूम और साहिबे किरदार के सामने सर झुकाने वाले, गंवईं किसान, जनपक्षीय चिंतक-कवि, अदम गोंडवी, अपनी अदम्य जनपक्षीय प्रतिबद्धता और साहस के साथ, मजलूमों और मुफलिसों की पीड़ा और आक्रोश को शब्दों में पिरोकर जन-द्रोहिओं को बेनकाब करके जन-विद्रोह के आह्वान की कवितायें लिखते हुए खुद्दारी से जिए.अंतिम समय में मित्र-प्रशंसकों का उनके इलाज़ के लिए चंदे की अपील जारी करना उन्हें नागवार लगा और खुद्दारी के साथ उन्होंने किसी के प्रति बिना किसी कृतज्ञता-भाव और बिना किसी के शिकायत के जिन्दगी से विदा ले ली. अदम कला-के-लिए कला के विरोधी थे और उनकी गज़लें किसी अमूर्त ग्राम्य की कल्पित छठा का बयान नहीं करतीं बल्कि हकीकत का बेबाक बयान करती है. “घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है/बताओ कैसे लिख दूं धूप फागुन की नशीली है”. फनकारों का आह्वान करते हैं, "ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नजारों में/मुसलसल फन का दम घुँटता है इन अदबी इदारों में”. उल्लेखनीय है कि अदम की कविताएं अपनी धार और प्रहार के पैनेपन के चलते प्रतिष्ठानी समर्थन-अनुमोदन-प्रोत्साहन के बगैर लोकप्रिय हुईं.
अपनी ग़ज़लों के बारे में अदम का आत्मकथन है, “एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी गज़ल/मशरिकी फन में नई तामीर है मेरी गज़ल/....../दूर तक फैले हुए सरयू के साहिल पे आम/शोख लहरों की लिखी तहरीर है मेरी गज़ल.” अदम की कविताओं का उनके उचित सन्दर्भ में मूल्यांकन, साबित करेगा कि उनकी गणना पिछली और इस सदी के महान जनकवियों में होनी चाहिए. राजनैतिक ग़जलों की जो परम्परा दुष्यंत ने शुरू किया, अदम उसे एक नए मुकाम तक ले गए. आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे वर्तमान में अदम की कवितायें और भी प्रासंगिक हैं. "पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें/संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में/....जनता के पास एक ही चारा है बगावत/यह बात कह रहा हूँ होशो हवाश में".
वे अदीबों की नयी पीढी से" धूमिल की विरासत को करीने से" "संजो कर" रखने की गुजारिश" तो करते ही थे, समानधर्मी पूर्ववर्ती और समकालीन कवियों के प्रति अतिशय सम्मान भी दिखाते थे. और उनकी विरासत को आगे बढाने की अदम की धुन उल्लेखानीय है. पिछले कई सालों से बातची वे अक्सर अपने को “सड़कछाप” कहा करते थे. अदम जी सड़कछाप नहीं थे. वे आमजन के कवि थे और उन्ही के साथ सड़क के आदमी थे, साहित्य के वातानुकूलित संग्रहालयों के नहीं. अदम सच मायने में एक प्रतिबद्ध जनकवि थे. “भूख के अहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो/या अदब को मुफ्लिशों की अंजुमन तक ले चलो/...... मुझको नज्मों जब्त की तालीम देना बाद में/पहले अपनी रहबरी को आचरण तक ले चलो/खुद को ज़ख़्मी वकार रहे हैं वगैर के धोखे में लोग/इस शहर वको रोशनी के बांकपन तक ले चलो. ‘
ग्राम्सी ने लिखा है कि किसानों के पास अपना जैविक बुद्धिजीवी नहीं होता. वह अन्य वर्गों को जैविक बिद्धिजीवी प्रदान करता है लेकिन खुद के लिए नहीं. अदम गोंडवी इसके अपवाद हैं. अदम अन्य दलित-दबले-कुचले वर्गों के साथ कृषक वर्ग के भी बुद्धिजीवी हैं. साम्रदायिकता और जातिवाद के मुद्दों को भी वे वर्ग हित से जोड़कर देखते हैं और वर्ग-शत्रु की इन विचारधाराओं पर प्रखर प्रहार करते हैं: “ये अमीरों से हमारी फैसलाकुन जंग थी/फिर कहाँ से बीच में मस्जिद व मंदिर आ गए/जिनके चेहरे पर लिखी है जेल की ऊंची फसील/रामनामी ओढ़ कर संसद के अंदर आ गए.” १९८० के दशक में जब शिलापूजन और मलियाना जैसी निहित स्वार्थ समाज में फिरकापरस्ती का जहर फैला रहे थे, तो अदम उन्हें आगाह करते हैं, “हिंदू या मुस्लिम के एहसास को मत छेडिए/अपनी कुर्सी के लिए जज्बात को मत छेडिए/छेडिए इक जंग मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ/दोस्त मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिए.”
अदम गोंडवी एक असाधारण रूप से साधारण इंसान थे. उनकी साधारणता उनका बड़प्पन था. रूसो के विचार में, सभ्यता मनुष्यों के अन्दर दोगलेपन का संचार करती है. सम्मान पाने के चक्कर में वह वैसा दिखना चाहता है जैसा होता नहीं अदम जी सभ्यता के उपरोक्त गुण से मुक्त थे. वे मौजूदा वर्णाश्रमी-सामंती, पूंजीवादी यथार्थ की क्रूर विसंगतियों को आत्मसात कर 'दुस्साहसी' "अभिव्यक्ति के खतरे" उठाते हैं. “अन्त्यज कोरी पाशी हैं हम/क्योंकर भारतवासी हैं हम/.....धर्म के ठेकेदार बताएं/किस गृह के अधिवासी हैं हमहरामखो”. और “जितने हरामखोर थे कुर्बो जबार में/परधान बन के आ गए अगली कतार में/...” “आँख पर पट्टी रहे और अक्ल पर ताला रहे/अपने शाहे वक्त कायूं मर्तबा आला रहे/...तालिबे शोहरत हैं कैसे भी मिले मिलती रहे/आये दिन अखबार मे प्रतिभूति घोटाला रहे/एक जनसेवक की दुनिया में अदम क्या चाहिए/चार-छः चमचे रहें माइक रहे माला रहे.
अदम १९७३ में चर्चा में आये अमृत प्रभात में छपी लंबी कविता, चमारों की गली से. जो काम क़ानून नहीं कर पाया वह एक कविता ने कर दिखाया. एक दलित लड़की, “सरयूपार की मोनालिसा” के एक दबंग ठाकुर द्वारा बलात्कार के मामले की कानूनी कार्रवाई की परिणति पीड़ित के समुदाय के पुलिस उत्पीडन के साथ समाप्त हो चुकी थी. यह वह समय था जब आज की दलित-चेतना की सुगबुगाहट भी नहीं थी. एक कविता ने मामला फिर से खोल दिया. यह कविता १९७५ में बी.बी.सी. से प्रसारित हुई. अदम दबंग ठाकुरों और स्थानीय प्रशासन की आँखों के किरकिरी बन गए. लेकिन अदम "चमारों की गली में" "ज़िंदगी के ताप" को महसूसते-महासूसाते अदम्य साहस के साथ आगे बढ़ते रहे,"ताला लगा के आप हमारी जबान को/कैदी न रख सकेंगे जेहन के उड़ान को."
होशो हवाश में बगावत का रास्ता दिखाने वाले अदम क्रान्ति की निरंतरता में यकीन करते थे और नई पीढ़ियों के प्रति काफी आशावादी थे."एक सपना है जिसे साकार करना है तुम्हे/झोपडी से राजपथ का रास्ता हमवार हो."
अदम के लिए जीवन का कोई "जीवनेतर उद्देश्य" नहीं था. वे मानते थे एक "सार्थक" जीवन जीना अपने आप में बहुत बड़ा उद्देश्य है. और एक जनपक्षीय कवि के रूप में आख़िरी सांस तक अपने विचारों और कविकर्म से, तमाम तरह की प्रतिकूल परिस्थियों और वंचना/उपेक्षा के बावजूद अपने पक्ष और प्रतिबद्धता पर अडिग रहते हुए, जीवन की सार्थकता साबित करते रहे. अदम की रचनाशीलता आमजन की मुक्ति को समर्पित थी. उन्होंने मजाज़, फैज़, दुष्यंत, नागार्जुन, पाश, गोरख पाण्डेय जैसे जनकवियों की राजनैतिक कविताओं की परंपरा में एक नया आयाम जोड़ा. मुक्ति के लिए हथियार उठाने की गुहार करने वाले अदम, आजीवन कलम को हथियार के रूप में चलाते रहे.”अगर खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमा/कुर्सी के लिए गिरते सम्हलते हों रहनुमा/गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमा/टुकड़ों पे जमाखोर के पलते हो रहनुमा/जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले. ....”
ईश मिश्र
१७ बी, विश्वविद्यालय मार्ग
हिंदू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय
दिल्ली ११०००७
ईमेल: mishraish@gmail.com
बढ़िया आलेख सर
ReplyDeleteशुक्रिया
ReplyDeleteSir adam gondavi par koi pustak sarikha lekh h...bahut hi sargarbhit lekh h...!!
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