पुस्तक समीक्षा/ईश मिश्र
टी. नागीरेड्डी, भारत: एक बंधक राष्ट्र: एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन. (अनुवाद: रणजीत सिंह) पृष्ठ: ६१२. मूल्य: ३०० रुपये.
तरिमेला नागीरेड्डी मेमोरियल ट्रस्ट, विजयवाडा, २०११.
देश की नीलामी
सौभाग्य से, सरकार और सरकारी भोंपुओं द्वारा भारत की जनता के फायदे और विकास के लिए ब्रह्मास्त्र रूप में प्रचारित और अपरिहार्य करार देकर फुटकर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने की सरकार की जिद्द, संसदीय अस्वीकृति के चलते फिलहाल टल गयी है. लेकिन खतरा टला नहीं है. हाल में दवोस मे संपन्न विश्व आर्थिक फोरम की मीटिंग से निवृत्त होकर, भारत के व्यापार मंत्री, आनंद शर्मा सीधे जर्जर हो रहे कार्पोरेटी दानव, वालमार्ट- दरबार में झेंपते हुए, सफाई और आश्वासन देने पहुँच गए, इस अंदाज़ में, “हुज़ूर, चिंता न करें, थोड़ा विराम लग गया है, सब ठीक हो जायेगा.” इतिहास की उपेक्षा करते हुए कार्पोरेटी, भूमंडलीय पूंजी के मुनाफे के लिए हजारों व्यापारिओं और मजदूरों की आजीविका को नष्ट करने वाले और किसानों एवं उपभोक्ताओं को एकाधिकार पूंजी के रहमो-करम पर ढकेलने वाले इस अधिनियम को पारित कराने के लिए, इतिहास-विमुख “अर्थशास्त्री” के नेतृत्व की सरकार कईं हर तरह के हथकंडे अपना रही है? साम्राज्यवाद के भूमंडलीकरण दौर में पूंजी का चरित्र अंतर्राष्ट्रीय से बदल कर इस अर्थ में भूमंडलीय हो गया है कि अब यह राष्ट्र-केंद्रित नहीं रहा. कई अर्थशास्त्री, ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के आधार पर इसके भयंकर दुष्परिणामों से आगाह करते रहे हैं. किसानों, आदिवासियों, मछुआरों को उजाड़ कर देश में, कर-नियमों से मुक्त असंख्य विदेशी उपनिवेश से क्षेत्र निर्मित करने वाला विशेष आर्थिकार्थिक क्षेत्र (सेज़) अधिनियम संसद के सदनों मे लगभग आम-सहमति से चंद घंटों में, लगभग बिना बहस के पारित हो गया. विदेशी निवेश के नाम पर देश की गर्दन पर साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी का फंदा कसता जा रहे हो और प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्री और इनके कारापोरेटी भोंपू इसे भारत की आबादी के सभी तपकों की समस्यायों का रामबाण बताने के अथक कुतर्क कर रहे हैं. भारतीय शासक वर्गों की हर तरह के झंडों की पार्टियां और सरकारें देश के “विकास” के लिए लोगों की लजाल-जमीन-प्राकृतिक सम्पदा के साथ बाजारें और अर्थतंत्र के सारे संसाधन देशी-विदेशी (भूमंडलीय), कार्पोरेटी पूंजीवाद को नीलाम करने की हडबडी में है. ऐसे में कामरेड टी. नागीरेड्डी के गहन शोध एवं चिंतन-मनन से तैयार, अकाट्य तर्कों-तथ्यों के साथ अपने और एक साथी के ऊपर चालए गए मुकदमें के दौरान सेसंस मजिस्ट्रेट की अदालत में दिए उनके बयान पर आधारित, पहली बार इंडिया मोर्टगेज्ड शीर्षक से मरणोपरांत १९७८ में छपी पुस्तक आज और भी प्रासंगिक है. ४० वर्ष पहले विदेशी निवेश के जरिए साम्राज्यवादी लूट के की समीक्षा के साथ जिन भावी दुष्परिणामो की बात इस शोधपूर्ण ग्रन्थ में की गयी है, वे हमारे सामने हैं. आज, संभवतः साम्राज्यवाद के इस अंतिम दौर में, विदेशी के खतरे अपने चरम पर हैं. अब किसी लार्ड क्लाइव की भी आवश्यकता नहीं है, सारे सिराज्जुद्दौला मेरे ज़ाफर बन गए हैं. कई भाषाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी, हाल में तरिमेला नागीरेड्डी मेमोरिअल ट्रस्ट, विजयवाडा द्वारा इसके हिंदी अनुवाद. ‘भारत: एक बंधक राष्ट्र: एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन’ का प्रकाशन अत्यंत प्रासंगिक एवं प्रशंसनीय है.
कुपोषण; गरीबी-भुखमरी; अशिक्षा; बेरोजगारी; विस्थापन; भ्रष्टाचार ....... की अन्यान्य गंभीर समस्यायों से जूझते इस मुल्क के शासक सेंसेक्स-जीडीपी जैसे व्यापारिक अर्थशास्त्रीय जार्गनों की मदद से इसके विश्व-शक्ति होने के शगूफे छोड़ रहे है. विदेशी निवेश के शब्दाडंबर में लिपटी भूमंडलीय पूंजी किस तरह काम कर रही है और कैसे हमारे अर्थतंत्र की गर्दन पर साम्राज्यवादी सिकंजे को कस रही है, आम आदमी के लिए समझ पाना मुश्किल है. तमाम श्रोतों से एकत्रित सामग्री के गहन अन्वेषण के आधार पर कामरेड टी. नागीरेड्डी द्वारा मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य से उनका विश्लेषण और सटीक निष्कर्ष, यह समझने में काफी मददगार है.
टी. नागीरेड्डी एंटोनियो ग्राम्सी और भगत सिंह की परंपरा के क्रांतिकारी-विद्वान थे जिन्होंने जेल को अध्ययनशाळा बना लिया था और अदालतों का उपयोग हालात के जनपक्षीय विश्लेषण और उन्हें बदलने के क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के मंच के रूप में किया. १९१७ में जन्में टी.नागीरेड्डी १९४० मे एम्.ए. के बाद क़ानून की पढ़ाई शुरू करते ही सरकार की निगाह में तभी आ गए जब उन्होंने युद्ध की विभीषिकाओं का विश्लेषण एक पुस्तक, ‘युद्ध के आर्थिक परिणाम’ में किया. इस “जुर्म” में उन्हें एक साल की सजा मिली, लेकिन एक साल बाद जेल से बाहर आने के पहले, १८६० में बने डिफेन्स ऑफ इंडिया रुल (डी.आई. आर) के तहत गिरफ्तार हो गये. तबसे १९७६ में अकाल मृत्यु तक, जीवन का ज्यादा हिस्सा “आज़ादी” के पहले और बाद जेल में या भूमिगत बिताने वाले, इस औपनिवेशिक क़ानून के तहत कई बार गिरफ्तार हुए. एक विचारक, प्रखर वक्ता और सक्षम संगठनकर्ता के रूप में, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाले कामरेड टी. नागीरेड्डी आजीवन भारतीय क्रान्ति के लिए सक्रिय रहे. उनके विचार स्वाध्याय और संघर्षों में शिरकत से उपजे, इस लिए वे सही मायने में, किसान-मजदूर वर्ग के जैविक बुद्धिजीवी थे. हर संभव श्रोत से एकत्रित आंकड़ों के विश्लेषण से, भारत में बड़े व्यापार के विकास के रफ्तार की तेजी और विदेशी पूंजी मे वृद्धि के अंतरंग अन्तःसंबंधों और भारतीय पूंजीपतियों के दलाली के चरित्र संबंधी उनके निष्कर्ष, आज, वित्तीय पूंजी के भूमंडलीय दौर में तब से ज्यादा ही प्रासंगिक हैं. १९४७-५१ तक्क भूमिगत रहने के बाद १९५२ से १९६९ तक वे विधान सभा के सदस्य के रूप में इसके दिवालिया का भंडाफोड़ करते रहे और अंततः इसकी न्रार्थाकता महसूस कर १९६९ में इस्तीफा दे दिया. पुस्तक में परिशिष्ट के रूप में शामिल इस्तीफे का उनका बयान एक ऐतिहासिक दस्तावेज तो है ही, अपराधियों और कार्पोरेटी दलालों से परिपूर्ण संसद और विधानसभा की कार्यवाहियों को देखते हुए समकालीन और सार्वकालिक लगता है. “मैं एक ऐसे समय में इस्तीफा दे रहा हूँ जब हो गया है कि विधानसभाएं गप्पबाजी का अड्डा और जनता के हितों के नाम पर उपहास करने का अखाड़ा बन चुकी हैं. ........ तब हमारा कर्तव्य क्या है? मुल्क की रक्षा करने का लोगों के पास एक ही उपाय है कि वे साम्राज्यवाद और सामंतवाद के दलाल शासकवर्गों के खिलाफ संघर्ष के लिए जन-समुदायों को लामबंद करके एक दीर्घकालीन जन-क्रान्ति के लिए प्रेरित करें. मैं भी अपने इसी कर्तव्य को पूरा करने के लिए असेम्बली को त्याग कर मेहनतकश जन-समुदायों के बीच जा रहा हूँ.”
अपने राजनैतिक अनुभव और प्रामाणिक आँकड़ों के आधार पर लेखक ने तर्क-संगत ढंग से दर्शाया है कि भारत साम्राज्यवादी आर्थिक नीतियों के जाल में फंस कर उसी तरह से एक बंधक राष्ट्र बन चुका है जैसे कर्ज के भार में डूबा गरीब व्यक्ति बंधुआ मजदूर बन जाता है. विदेशी पूँजी; भारतीय दलाल पूंजीपति; और सामंतवाद की भूमिकाओं एवं उनकी सांठ-गाँठ के ठोस धरातल पर आंकलन के आधार पर दर्शाये गए घातक परिणाम आज विध्वंशक रूप अख्तियार कर चुके हैं. १९४७ में सत्ता हस्तांतरण के बाद भी मुल्क में ब्रिटिश पूँजी का एकाधिकार कायम रहा और दिन-ब-दिन इसमें बढोत्तरी होती रही, बाद में अन्य यूरोपीय देशो एवं अमेरिका की कंपनियों की पूँजी भी इसके साथ शामिल हो गयीं. भूमंडलीकरण के बाद से जहां एक तरफ साम्राज्यवादी पूँजी का चरित्र भूमंडलीय हो गया वहीं दूसरी ओर देश में अमेरिकी नेतृत्व वाली विदेशी पूँजी का वर्चस्व त्वरित गति से बढ़ता जा रहा है. पुराने उपनिवेशों में वर्चस्व कायम रखने के लिए, साम्राज्यवाद कई तरह के आर्थिक और राजनैतिक हथकंडे अपनाता है और कई लबादों में सामने आता है. उनमें से एक है, सह्योग – कोलोबरेसन. दूसरी है अनुदान, जिसका स्वरुप लगातार बदलता रहा है. शुरुआत में यह अनुदान था, फिर १९६० से रियायती दरों पर क़र्ज़ और १९ओ८० से बिना र्यायत कर्ज जो अब तक कायम है. जिसका सार है, पुस्तक लिखे जाने के समय सोविएत संघ समेत विदेशी ( अब भूमन्डलीय) पूंजी पर पूर्ण निर्भरता. साम्राज्यवाद के सह-उत्पादक,भारत के पूंजीपतियों की भूमिका दलाल पूंजीपति की बन गयी. ठोस तथ्यों और सत्यापित आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर लेखक का निष्कर्ष कि भारत में में दलाल पूंजीपतियों की काफी बड़ी हिस्सेदारी साम्राज्यवाद की देन है, भविष्यवाणी साबित हो रही है. १९७२ के मार्च-अप्रैल में अदालत में पढ़े गए अपने इस बयान, यानि इस पुस्तक में, लेखक ने तथ्यों और तर्कसम्मत तर्कों के आधार पर शासक वर्गों और उनके प्रतिनिधियों द्वारा मुल्क को अमेरिकी साम्राज्यवाद एवं तत्कालीन सोविएत सामजिक साम्राज्यवाद के हाथों गिरवी रखने की साज़िश का पर्दाफास किया है.
भूमि-सुधार के पाखण्ड को खंडित करते हुए साबित किया है कि इससे सामंती भू-स्वामित्व का ढांचा आधुनिककृत हो कर और मजबूत हुआ है. भारत को अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेशिक देश साबित करने के साथ कृषि-क्रान्ति को इनके विरुद्ध जनता की जनवादी क्रांति की धुरी के रूप में स्थापित किया गया है. यह पुस्तक इस विषय की व्यापक जांच करती है और सरकार के विभिन्न भूमि-सुधार अधिनियमों वास्तविक चरित्र का खुलासा करने के साथ मुद्दे की अहमियत स्थापित करती है. असंदिग्ध जनपक्षीय प्रतिबद्धता के साथ, क्रान्ति की व्यापक समस्यायों के संदर्भ में और सरोकार से, अर्थवयवस्था की जटिलताओं की सीधे-सरल ढंग से व्याख्या सराहनीय है. इस अध्ययन का एक निष्कर्ष यह है कि यदि समाज के सभी शोसित तपके खास शोषण के विरुद्ध विद्रोह करते हैं तो वर्ग संघर्ष की धार पैनी होती जायेगी और जनतांत्रिक क्रान्ति का रास्ता आसान होगा.
मुख्यधारा मीडिया की नज़रों से ओझल,आज कार्पोरेटी हितों की सेवा में किसानों की जमीने हडपना और विस्थापन के विरुद्ध आन्दोलनों को कुचलने के लिए राज्यों की क्रूरताएं और इससे निदान आज देश के जनपक्षीय शक्तियों के मुख्य सरोकार हैं. कलिंगनगर, नियामगिरी, जगतसिंह पुर, नोएडा ........ के विस्थापन विरोधी आन्दोलनों के क्रूर दमन, आलनकारियों के खिलाफ फर्जी मुक़दमें आम बात हो गए है. ऐसे में कामरेड टी. नागीरेड्डी के कृषि-क्रान्ति के जनवादी जन-क्रांतियों की धुरी होने की बात अनायास याद आ जाती है. “एक सफल क्रान्ति के लिए आवश्यक मनोगत परिस्थियां स्वतः निर्मित नहीं होतीं”, समाजवादी चेतना मजदूरों के संघर्षों से स्वतः नहीं पैदा होतीं. “इसे मजदूर वर्ग की पार्टी द्वारा बहार से उत्पन्न किया जाता है”, और वे स्वयं आजीवन अपने भाषणों; लेखन और संगठन से इस दिशा में योगदान देते रहे.
दर-असल, यह कामरेड टी. नागीरेड्डी के दो बयानों का दस्तावेज है, यद्यपि उनका असेम्बली से इस्तीफी वाला बयान आकार में छोटा है और परिशिष्ट के रूप में शामिल है. दोनों ही भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनों के संधर्भ में ऐतिहासिक दस्तावेज हैं. यह पुस्तक भारतीय शासक वर्गों और भारतीय राज्य के चरित्र और विदेशी पूँजी-निवेश के दुष्परिणामों मार्ग-दर्शक और सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह है.
टी. नागीरेड्डी, भारत: एक बंधक राष्ट्र: एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन. (अनुवाद: रणजीत सिंह) पृष्ठ: ६१२. मूल्य: ३०० रुपये.
तरिमेला नागीरेड्डी मेमोरियल ट्रस्ट, विजयवाडा, २०११.
देश की नीलामी
सौभाग्य से, सरकार और सरकारी भोंपुओं द्वारा भारत की जनता के फायदे और विकास के लिए ब्रह्मास्त्र रूप में प्रचारित और अपरिहार्य करार देकर फुटकर क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देने की सरकार की जिद्द, संसदीय अस्वीकृति के चलते फिलहाल टल गयी है. लेकिन खतरा टला नहीं है. हाल में दवोस मे संपन्न विश्व आर्थिक फोरम की मीटिंग से निवृत्त होकर, भारत के व्यापार मंत्री, आनंद शर्मा सीधे जर्जर हो रहे कार्पोरेटी दानव, वालमार्ट- दरबार में झेंपते हुए, सफाई और आश्वासन देने पहुँच गए, इस अंदाज़ में, “हुज़ूर, चिंता न करें, थोड़ा विराम लग गया है, सब ठीक हो जायेगा.” इतिहास की उपेक्षा करते हुए कार्पोरेटी, भूमंडलीय पूंजी के मुनाफे के लिए हजारों व्यापारिओं और मजदूरों की आजीविका को नष्ट करने वाले और किसानों एवं उपभोक्ताओं को एकाधिकार पूंजी के रहमो-करम पर ढकेलने वाले इस अधिनियम को पारित कराने के लिए, इतिहास-विमुख “अर्थशास्त्री” के नेतृत्व की सरकार कईं हर तरह के हथकंडे अपना रही है? साम्राज्यवाद के भूमंडलीकरण दौर में पूंजी का चरित्र अंतर्राष्ट्रीय से बदल कर इस अर्थ में भूमंडलीय हो गया है कि अब यह राष्ट्र-केंद्रित नहीं रहा. कई अर्थशास्त्री, ऐतिहासिक तथ्यों और तर्कों के आधार पर इसके भयंकर दुष्परिणामों से आगाह करते रहे हैं. किसानों, आदिवासियों, मछुआरों को उजाड़ कर देश में, कर-नियमों से मुक्त असंख्य विदेशी उपनिवेश से क्षेत्र निर्मित करने वाला विशेष आर्थिकार्थिक क्षेत्र (सेज़) अधिनियम संसद के सदनों मे लगभग आम-सहमति से चंद घंटों में, लगभग बिना बहस के पारित हो गया. विदेशी निवेश के नाम पर देश की गर्दन पर साम्राज्यवादी, भूमंडलीय पूंजी का फंदा कसता जा रहे हो और प्रधानमंत्री समेत तमाम मंत्री और इनके कारापोरेटी भोंपू इसे भारत की आबादी के सभी तपकों की समस्यायों का रामबाण बताने के अथक कुतर्क कर रहे हैं. भारतीय शासक वर्गों की हर तरह के झंडों की पार्टियां और सरकारें देश के “विकास” के लिए लोगों की लजाल-जमीन-प्राकृतिक सम्पदा के साथ बाजारें और अर्थतंत्र के सारे संसाधन देशी-विदेशी (भूमंडलीय), कार्पोरेटी पूंजीवाद को नीलाम करने की हडबडी में है. ऐसे में कामरेड टी. नागीरेड्डी के गहन शोध एवं चिंतन-मनन से तैयार, अकाट्य तर्कों-तथ्यों के साथ अपने और एक साथी के ऊपर चालए गए मुकदमें के दौरान सेसंस मजिस्ट्रेट की अदालत में दिए उनके बयान पर आधारित, पहली बार इंडिया मोर्टगेज्ड शीर्षक से मरणोपरांत १९७८ में छपी पुस्तक आज और भी प्रासंगिक है. ४० वर्ष पहले विदेशी निवेश के जरिए साम्राज्यवादी लूट के की समीक्षा के साथ जिन भावी दुष्परिणामो की बात इस शोधपूर्ण ग्रन्थ में की गयी है, वे हमारे सामने हैं. आज, संभवतः साम्राज्यवाद के इस अंतिम दौर में, विदेशी के खतरे अपने चरम पर हैं. अब किसी लार्ड क्लाइव की भी आवश्यकता नहीं है, सारे सिराज्जुद्दौला मेरे ज़ाफर बन गए हैं. कई भाषाओं में पहले ही प्रकाशित हो चुकी, हाल में तरिमेला नागीरेड्डी मेमोरिअल ट्रस्ट, विजयवाडा द्वारा इसके हिंदी अनुवाद. ‘भारत: एक बंधक राष्ट्र: एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी मूल्यांकन’ का प्रकाशन अत्यंत प्रासंगिक एवं प्रशंसनीय है.
कुपोषण; गरीबी-भुखमरी; अशिक्षा; बेरोजगारी; विस्थापन; भ्रष्टाचार ....... की अन्यान्य गंभीर समस्यायों से जूझते इस मुल्क के शासक सेंसेक्स-जीडीपी जैसे व्यापारिक अर्थशास्त्रीय जार्गनों की मदद से इसके विश्व-शक्ति होने के शगूफे छोड़ रहे है. विदेशी निवेश के शब्दाडंबर में लिपटी भूमंडलीय पूंजी किस तरह काम कर रही है और कैसे हमारे अर्थतंत्र की गर्दन पर साम्राज्यवादी सिकंजे को कस रही है, आम आदमी के लिए समझ पाना मुश्किल है. तमाम श्रोतों से एकत्रित सामग्री के गहन अन्वेषण के आधार पर कामरेड टी. नागीरेड्डी द्वारा मार्क्सवादी-लेनिनवादी परिप्रेक्ष्य से उनका विश्लेषण और सटीक निष्कर्ष, यह समझने में काफी मददगार है.
टी. नागीरेड्डी एंटोनियो ग्राम्सी और भगत सिंह की परंपरा के क्रांतिकारी-विद्वान थे जिन्होंने जेल को अध्ययनशाळा बना लिया था और अदालतों का उपयोग हालात के जनपक्षीय विश्लेषण और उन्हें बदलने के क्रांतिकारी विचारों के प्रचार-प्रसार के मंच के रूप में किया. १९१७ में जन्में टी.नागीरेड्डी १९४० मे एम्.ए. के बाद क़ानून की पढ़ाई शुरू करते ही सरकार की निगाह में तभी आ गए जब उन्होंने युद्ध की विभीषिकाओं का विश्लेषण एक पुस्तक, ‘युद्ध के आर्थिक परिणाम’ में किया. इस “जुर्म” में उन्हें एक साल की सजा मिली, लेकिन एक साल बाद जेल से बाहर आने के पहले, १८६० में बने डिफेन्स ऑफ इंडिया रुल (डी.आई. आर) के तहत गिरफ्तार हो गये. तबसे १९७६ में अकाल मृत्यु तक, जीवन का ज्यादा हिस्सा “आज़ादी” के पहले और बाद जेल में या भूमिगत बिताने वाले, इस औपनिवेशिक क़ानून के तहत कई बार गिरफ्तार हुए. एक विचारक, प्रखर वक्ता और सक्षम संगठनकर्ता के रूप में, क्रांतिकारी कम्युनिस्ट आंदोलन में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने वाले कामरेड टी. नागीरेड्डी आजीवन भारतीय क्रान्ति के लिए सक्रिय रहे. उनके विचार स्वाध्याय और संघर्षों में शिरकत से उपजे, इस लिए वे सही मायने में, किसान-मजदूर वर्ग के जैविक बुद्धिजीवी थे. हर संभव श्रोत से एकत्रित आंकड़ों के विश्लेषण से, भारत में बड़े व्यापार के विकास के रफ्तार की तेजी और विदेशी पूंजी मे वृद्धि के अंतरंग अन्तःसंबंधों और भारतीय पूंजीपतियों के दलाली के चरित्र संबंधी उनके निष्कर्ष, आज, वित्तीय पूंजी के भूमंडलीय दौर में तब से ज्यादा ही प्रासंगिक हैं. १९४७-५१ तक्क भूमिगत रहने के बाद १९५२ से १९६९ तक वे विधान सभा के सदस्य के रूप में इसके दिवालिया का भंडाफोड़ करते रहे और अंततः इसकी न्रार्थाकता महसूस कर १९६९ में इस्तीफा दे दिया. पुस्तक में परिशिष्ट के रूप में शामिल इस्तीफे का उनका बयान एक ऐतिहासिक दस्तावेज तो है ही, अपराधियों और कार्पोरेटी दलालों से परिपूर्ण संसद और विधानसभा की कार्यवाहियों को देखते हुए समकालीन और सार्वकालिक लगता है. “मैं एक ऐसे समय में इस्तीफा दे रहा हूँ जब हो गया है कि विधानसभाएं गप्पबाजी का अड्डा और जनता के हितों के नाम पर उपहास करने का अखाड़ा बन चुकी हैं. ........ तब हमारा कर्तव्य क्या है? मुल्क की रक्षा करने का लोगों के पास एक ही उपाय है कि वे साम्राज्यवाद और सामंतवाद के दलाल शासकवर्गों के खिलाफ संघर्ष के लिए जन-समुदायों को लामबंद करके एक दीर्घकालीन जन-क्रान्ति के लिए प्रेरित करें. मैं भी अपने इसी कर्तव्य को पूरा करने के लिए असेम्बली को त्याग कर मेहनतकश जन-समुदायों के बीच जा रहा हूँ.”
अपने राजनैतिक अनुभव और प्रामाणिक आँकड़ों के आधार पर लेखक ने तर्क-संगत ढंग से दर्शाया है कि भारत साम्राज्यवादी आर्थिक नीतियों के जाल में फंस कर उसी तरह से एक बंधक राष्ट्र बन चुका है जैसे कर्ज के भार में डूबा गरीब व्यक्ति बंधुआ मजदूर बन जाता है. विदेशी पूँजी; भारतीय दलाल पूंजीपति; और सामंतवाद की भूमिकाओं एवं उनकी सांठ-गाँठ के ठोस धरातल पर आंकलन के आधार पर दर्शाये गए घातक परिणाम आज विध्वंशक रूप अख्तियार कर चुके हैं. १९४७ में सत्ता हस्तांतरण के बाद भी मुल्क में ब्रिटिश पूँजी का एकाधिकार कायम रहा और दिन-ब-दिन इसमें बढोत्तरी होती रही, बाद में अन्य यूरोपीय देशो एवं अमेरिका की कंपनियों की पूँजी भी इसके साथ शामिल हो गयीं. भूमंडलीकरण के बाद से जहां एक तरफ साम्राज्यवादी पूँजी का चरित्र भूमंडलीय हो गया वहीं दूसरी ओर देश में अमेरिकी नेतृत्व वाली विदेशी पूँजी का वर्चस्व त्वरित गति से बढ़ता जा रहा है. पुराने उपनिवेशों में वर्चस्व कायम रखने के लिए, साम्राज्यवाद कई तरह के आर्थिक और राजनैतिक हथकंडे अपनाता है और कई लबादों में सामने आता है. उनमें से एक है, सह्योग – कोलोबरेसन. दूसरी है अनुदान, जिसका स्वरुप लगातार बदलता रहा है. शुरुआत में यह अनुदान था, फिर १९६० से रियायती दरों पर क़र्ज़ और १९ओ८० से बिना र्यायत कर्ज जो अब तक कायम है. जिसका सार है, पुस्तक लिखे जाने के समय सोविएत संघ समेत विदेशी ( अब भूमन्डलीय) पूंजी पर पूर्ण निर्भरता. साम्राज्यवाद के सह-उत्पादक,भारत के पूंजीपतियों की भूमिका दलाल पूंजीपति की बन गयी. ठोस तथ्यों और सत्यापित आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर लेखक का निष्कर्ष कि भारत में में दलाल पूंजीपतियों की काफी बड़ी हिस्सेदारी साम्राज्यवाद की देन है, भविष्यवाणी साबित हो रही है. १९७२ के मार्च-अप्रैल में अदालत में पढ़े गए अपने इस बयान, यानि इस पुस्तक में, लेखक ने तथ्यों और तर्कसम्मत तर्कों के आधार पर शासक वर्गों और उनके प्रतिनिधियों द्वारा मुल्क को अमेरिकी साम्राज्यवाद एवं तत्कालीन सोविएत सामजिक साम्राज्यवाद के हाथों गिरवी रखने की साज़िश का पर्दाफास किया है.
भूमि-सुधार के पाखण्ड को खंडित करते हुए साबित किया है कि इससे सामंती भू-स्वामित्व का ढांचा आधुनिककृत हो कर और मजबूत हुआ है. भारत को अर्ध-सामंती, अर्ध-औपनिवेशिक देश साबित करने के साथ कृषि-क्रान्ति को इनके विरुद्ध जनता की जनवादी क्रांति की धुरी के रूप में स्थापित किया गया है. यह पुस्तक इस विषय की व्यापक जांच करती है और सरकार के विभिन्न भूमि-सुधार अधिनियमों वास्तविक चरित्र का खुलासा करने के साथ मुद्दे की अहमियत स्थापित करती है. असंदिग्ध जनपक्षीय प्रतिबद्धता के साथ, क्रान्ति की व्यापक समस्यायों के संदर्भ में और सरोकार से, अर्थवयवस्था की जटिलताओं की सीधे-सरल ढंग से व्याख्या सराहनीय है. इस अध्ययन का एक निष्कर्ष यह है कि यदि समाज के सभी शोसित तपके खास शोषण के विरुद्ध विद्रोह करते हैं तो वर्ग संघर्ष की धार पैनी होती जायेगी और जनतांत्रिक क्रान्ति का रास्ता आसान होगा.
मुख्यधारा मीडिया की नज़रों से ओझल,आज कार्पोरेटी हितों की सेवा में किसानों की जमीने हडपना और विस्थापन के विरुद्ध आन्दोलनों को कुचलने के लिए राज्यों की क्रूरताएं और इससे निदान आज देश के जनपक्षीय शक्तियों के मुख्य सरोकार हैं. कलिंगनगर, नियामगिरी, जगतसिंह पुर, नोएडा ........ के विस्थापन विरोधी आन्दोलनों के क्रूर दमन, आलनकारियों के खिलाफ फर्जी मुक़दमें आम बात हो गए है. ऐसे में कामरेड टी. नागीरेड्डी के कृषि-क्रान्ति के जनवादी जन-क्रांतियों की धुरी होने की बात अनायास याद आ जाती है. “एक सफल क्रान्ति के लिए आवश्यक मनोगत परिस्थियां स्वतः निर्मित नहीं होतीं”, समाजवादी चेतना मजदूरों के संघर्षों से स्वतः नहीं पैदा होतीं. “इसे मजदूर वर्ग की पार्टी द्वारा बहार से उत्पन्न किया जाता है”, और वे स्वयं आजीवन अपने भाषणों; लेखन और संगठन से इस दिशा में योगदान देते रहे.
दर-असल, यह कामरेड टी. नागीरेड्डी के दो बयानों का दस्तावेज है, यद्यपि उनका असेम्बली से इस्तीफी वाला बयान आकार में छोटा है और परिशिष्ट के रूप में शामिल है. दोनों ही भारत में क्रान्तिकारी आन्दोलनों के संधर्भ में ऐतिहासिक दस्तावेज हैं. यह पुस्तक भारतीय शासक वर्गों और भारतीय राज्य के चरित्र और विदेशी पूँजी-निवेश के दुष्परिणामों मार्ग-दर्शक और सन्दर्भ ग्रन्थ की तरह है.
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