किसान से बने मजदूर
ईश मिश्र
रहते थे गाँव में करते थे खेती
रहने खाने की कोइ कमी न थी
चावल-दाल-सब्जी अंचार के साथ खाते थे
नदी तीरे जंगल में गाय-भैंस चराते थे
दूध-घी की कमी न थी
लुटी अपनी ज़मीं न थी
खेत-बाग़ अपने थे
आते-सुहाने सपने थे
तभी हुआ राष्ट्र निर्माण का ऐलान
खेतों में उगेंगे अब सीमेंट के बगान
जिसके लिए चाहिए जेपी सेठ को हमारी जमीन
आ गया राष्ट्र तान बारूद की मशीन
हमको भी दिखाया भविष्य के सपने हसीन
टूट गए जो जन्मते ही बेचारे दीं-हीन
उजाड़ दिए घर लूट ली जमीन
II
निकल पडा रोजी-रोटी की तलाश मे
बुलाया जेपी सेठ ने कहा काम तो है पास में
मरता-क्या न करता मान लिया सेठ की बात
देख खेत के हाल रो पड़े जज़्बात
बनने लगी गगनचुम्बी अट्टालिका जब मेरे खेत में
उगा लिया हम मजदूरों ने झुग्गी बस्ती नदी की रेत में
शहर बन गया ग्राम
जेपी नगर पड़ गया नाम
शहर की शहनाइयों में झुग्गी के ढोलक का क्या काम?
हो गयीं जब अट्टालिका पूरी तरह आबाद
कर दिया हमारी बस्ती को आगजनी से बर्बाद
ख़ाक हो गए विस्तर-वर्तन आग की चिंगारी से
जोड़ा था जिसे खून-पसीने की मजदूरी से
[तीन जुलाई दो हजार ग्यारह]
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