Wednesday, February 29, 2012

28 फरवरी.

क्या-क्या भूलते रहेंगे? `भूल जाओ शाह आलमों-रामनारायनों-मेरे जाफराओं को जिनकी दुर्वुद्धि और निहित स्वार्थों के चलते व्यापारिक कम्पनी सैकड़ों साल देश लूटती रही. इतिहास-बोध से मुक्त एवं दलाली-अर्थशास्त्र-बोध से युक्त हमारे “बेचारे, ईमानदार” प्रधानमंत्री को भले ही अग्रेजी हुकूमत भारत की भाग्य-विधाता लगती हो, जैसा कि उन्होंने ऑक्सफोर्ड की मानद डिग्री लेते हुए आभार के अपने उदगार में उन्होंने घोषित किया था, लेकिन हकीकत यह है कि जब भग्य-विधाता ने व्यापार के बहाने भारत-भूमि पाँव रखा था उस समय पूरी दुनिया के गैर-खेतिहर औद्योगिक उत्पादन की एक तिहाई का उत्पादक भारत था. अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का मतलब था, भारत और पूर्व एशिया, खासकर चीन के साथ व्यापार. जब वे गए तो देश की अर्थव्यवस्था में, भारतीय रेल के साथ सेवा क्षेत्र समेत औद्योकिक योगदान ६ फीसदी से थोड़ा ज्यादा था. भूल जाएँ उन मेरे जाफरों-रामनारायनों को जिससे भूमंडलीय कारपोरेटों के हाथ देश नीलाम करने वाले आज के मीर जाफरों-रामनारायानों और शिराजुद्दौला के भेष में मीरजाफरों से भी ध्यान हटा रहे. भूल जाओ हिटलर को आदर्श मानने वाले मौदूदियों और गोल्वल्कारों को जो आंदोलन के रूम में उभरती सामासिक राष्ट्रवाद की अवधारणा को कमजोर करने और राष्ट्रीय आंदोलन की धार को कुंद करने के मकसद से साम्प्रदायिकता का जहर फैलाते रहे, जिसकी परिणति भयावह रक्तपात और अनैतिहासिक पलायन के साथ देश के बंटवारे में हुई, जिसके घाव कश्मीर-समस्या के रूप में आज तक रिस रही है. कैसे भूल सकते हैं ६ दिसंबर और २८ फरवरी की तारीखें, ये तारीखें एक बार फिर मानवता के विवेकसम्मत तर्क पर धार्मिक उन्माद और आस्था के कुतर्क के विजय की काली तारीखें हैं. कब तक धार्मिक भावनाओं को आहात होने से बचाने के लिए धर्म पर बहस से बचाते रहेंगे. इन तारीखों को याद रखने की आवश्यकता है जिससे करोंणों के खर्च से आयोजित से मोदी के “सद्भाव” के झांसे न चल सकें.

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